Sunday, August 13, 2017

अब तुम जल्दी ठीक होंगे

-वीर विनोद छाबड़ा

आज हमें एक मित्र ने काम की बात बताई है।
वो मेरे घर नहीं आये थे। मैं ही उनके घर गया। भयानक उलझन हो रही थी। बात करने कोई पात्र व्यक्ति मिला ही नहीं। हमारी नज़र में ढंग के आदमी की पहचान वो होती है जो विधिवत चाय के लिए पूछे नहीं, बल्कि चाय ले आये।
लेकिन प्रॉब्लम यह रही कि ऐसा भला माणूस मिला नहीं। कोई सुनाने या सुनने वाला मिला नहीं। एक अदद पत्नी भी व्यस्त रही। सोचने लगा कि न सुनने वाला और न सुनाने मिला और कुछ दिनों न मिला और कुछ दिन तक ऐसी स्थिति बनी रही तो पागल हो जाऊंगा। यार कोई मिले तो। लेकिन राजनीती पर बकवास सुनाने वाला न मिले। आज जमावड़ा वाला कीर्तन भी नहीं हुआ। सब दिल्ली गए हुए थे, कोई राजनीतीक उठा पटक करने। 
याद आया कि पड़ोस में रहने वाले एक मित्र है। मैं उन्हें राजनीती सबसे कम बहस करते पाता हूँ। सिनेमा पर ज़बरदस्त बहस करते पाता हूं ज्यादा मूड में तो तरन्नुम में रफ़ी का गाना सुनाने लगते हैं अगर म्युज़िक शंकर जयकिशन का हो तो फिर तो फिर बात क्या। उठ कर गाने भी लगते हैं। यों प्यानो भी उनके पास। कम दिक्कत देने वाले मित्रो में हैं। अलप भाषी हैं। मैं उनके घर चला गया। थोङी तक कुशल-क्षेम का आदान प्रदान होता रहा। बहुत अच्छा लगा कि इन्हें मेरी मानसिक उलझन का पता नहीं है।
लेकिन आखिर वही हुआ जिसका भय था। यार, तुम्हारी बीमारी का क्या हुआ? फ़लाने मनोचिकित्सिक के पास जाओ। मनोविज्ञान के हर मर्ज़ का इलाज़ है उनके पास। हम सर झुकाये चुपचाप बहुत देर तक सुनते रहे। काफी देर तक वो बोलते रहे।
अचानक हमने पूछा - आज मैच की पोजीशन क्या रही?
वो चौंके - यानी मैं तुम्हें घंटे भर तो जो भाषण देता रहा, तुमने उसे सुना ही नहीं।
मैंने कहा - नहीं। बिलकुल नहीं। इस कान से सुनो और उधर से निकाल दो। यही गुरुमंत्र दिया है परसों एक डॉक्टर ने। और अब कुछ बेहतर लग रहा है।
वो बहुत जोर से हंसे। अब तुम बहुत जल्द अच्छे हो जाओगे, पिचले एक घंटे से मैं तुम्हें यही समझा रहा था।
---
१४ अगस्त २०१७




भूख न लगना किस बीमारी के लक्षण?

- वीर विनोद छाबड़ा
क़रीब महीना भर होने को आया है। भूख नहीं लगती है। पहले रोटी की भूख गायब हुई और अब चावल नहीं अच्छे लगते। वज़न भी कम हो गया है।
यार दोस्त तो देखते ही कृपालू हो जाते हैं - अरे, क्या हो गया? इतने मुरझाये हुए दिखते? डॉक्टर को दिखाया? क्या कहा?
हम जैसे टाल जाते हैं - आज से ठीक एक महीने बात दाह संस्कार है.और फिर चार दिन बाद क्रिया।
मित्र आश्चर्य चकित हो जाते हैं। शायद वो यही सुनना हैं।
हम जोर से हंस देते हैं। मित्र हैरान होते हैं।
हम हम उनका भ्रम मिटाने के लिए हंस देते हैं - डॉक्टर कहता है। आपकी उम्र और हाइट के हिसाब से वज़न ठीक है।
लेकिन मित्र पीछे पड़े हैं। फलां डॉक्टर को दिखाओ। लेकिन किसी ने यह नहीं कहा - चलो मैं चलता हूं, तुम्हारे साथ।
एक ने इतनी मेहरबानी ज़रूर की कि मैं तुम्हारे साथ चला चलता, लेकिन मुझे कल ज़रूरी काम है। और परसों साले के बेटे का कनछेदन। कानपुर जाना।
चटपटा खाना अच्छा लगता है। लेकिन डरता हूं कि कोई और प्रॉब्लम न हो जाये। मित्रगण भी एक कदम आगे बढ़ते हैं और दो कदम पीछे। कुछ गड़बड़ हो गयी तो सारा इलज़ाम मुझ पर आ जायेगा।
कल एक जगह से न्यौता आया था। पेशे से कैटरर हैं। अपना विज्ञापन ज्यादा करते हैं। कल भी बहुत बड़ा विज्ञापन लगा था। मसवारा, नामकरण, कनछेदन वगैरह वगैरह वगैरह। लगा जैसे कहना चाहते हैं  कि यह सब संस्कार उचित दर पर सम्पन्न होते हैं।
वैसे हम उनके यहां जाते नहीं। लेकिन चले गए इसलिए कि चटपटे आईटम देख कर भूख खुल जाए। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। फिर उनका व्यवहार देख कर दिल और भी खराब हो गया। हमने व्यवहार पकड़ाया। उन्होंने हाथों से तौला। समझ गए कि रकम हलकी है। बेमन से पकड़ा। हमें उपेक्षित भाव से देखा।

क्यों न दिखे यूसुफ साहब और काका एक संग?

- वीर विनोद छाबड़ा 
दिलीप कुमार साहब पक्के परफेक्शनिस्ट थे। उन्हें एक-दो रिटेक में कभी आनंद नहीं मिला। रिटेक पर रिटेक। वो बात दूसरी है कि अक्सर पहला वाला ही फ़ाईनल रहा। नतीजा - छह महीने में तैयार होने वाली फिल्म दो साल में बनी और बजट भी बढ़ता चला गया।
कुछ-कुछ ऐसे ही थे हमारे काका उर्फ़ राजेश खन्ना। खासतौर पर तब जब अमरदीप (१९७९) से वो एक नए रूप में दिखे। उनके कैरियर में परफॉरमेंस के नज़रिये से ये यह एक शानदार फिल्म थी और साथ ही बॉक्स ऑफिस पर सफलता की वापसी भी। और 'अवतार' (१९८३) इस परफॉरमेंस की पराकाष्ठा थी।
दिलीप साब की धरोहर राजेश खन्ना में ही दिखती थी। दोनों पक्के स्टाइलिश और परफेक्शनिस्ट। ख़बर थी कि दिलीप कुमार और राजेश खन्ना में बहुत पटरी खाती थी। अक़्सर शामें साथ गुज़रती थीं। जाम के साथ राजनीति, फिल्म इंडस्ट्री और पारिवारिक मुद्दों पर लंबे डिस्कशन भी चले।
लेकिन हैरानी होती है कि अदाकारी की दुनिया में 'मील के पत्थर' इन दो लीजेंड को एक-साथ लाने की कोशिश क्यों नहीं की गई?

Saturday, August 12, 2017

शुक्ला जी के बेटे

-Vir Vinod Chhabra
हमें याद है कि हमारे परिवार में एक बच्चे को 'पंडत' अर्थात पंडित कहा जाता था। कारण यह था कि न वो मीट-मच्छी खाता था और न ही अपशब्द बोलता था। और इन सबसे दूर रहने वाली बच्ची 'ब्राह्मणी' कहलाती थी। खराब काम करने पर हमें 'मलिच्छ' की उपाधि से विभूषित किया जाता था।
हमारे सीनियर मित्र Ravindra Nath Arora रवींद्र नाथ अरोड़ा जी बताते हैं कि उन्होंने जब होश संभाला था तो उनकी पहचान 'शुक्ला जी' के बेटे के तौर पर थी। कारण वही था कि उनके पिता पूर्णतया वेजेटेरियन थे। मदिरा से घृणा तो थी ही, मदिरा सेवन करने वालों से भी दूर रहा करते थे। सदैव ज्ञान-ध्यान और पांडित्य की बातें करते थे। गीता, रामायण और महाभारत सहित अनेक पुराणों का भी ज्ञान था। धार्मिक मुद्दों के अलावा सोशल समस्याओं पर भी लोग सलाह-मश्विरा करने आते थे। कर्म से पक्के ब्राह्मण और विद्वता में पंडित जी थे।

अनजाने दोस्त

-वीर विनोद छाबरा 
हमारे एक अस्सी वर्षीय मित्र को खराब लगा जब एक सोसाइटी ने एक हमारे ८२ वर्षीय मित्र को न सिर्फ वयोवृद्ध घोषित किया गया बल्कि इसी नाते बाक़ायदा सम्मानित भी कर दिया। उन्हें बहुत खराब भी लगा। हम होते तो हमें भी बेहद बुरा लगता। भाड़ में सम्मान /
मित्र कहते हैं जब तक चलने और सोचने की शक्ति है। विचारों से भी प्रगतिशील हूं, तब तक मैं वयोवृद्ध कहलाना पसंद नहीं चाहूंगा । इस सम्मान को ससस्मान वापस करना चाहता हूं। 
मैं ठीक उनकी ही तरह के विचार रखता हूं। हालांकि बस में नहीं चल सकता। लेकिन मौका मिला तो चल भी सकता हूं।
लेकिन इंसल्ट पसंद नहीं करता। गुस्सा आता है। कैसी पीढ़ी? सीनियर का सम्मान नहीं करती। कल एक नेशनल बैंक की ब्रांच में खड़ा था। शायद उस समय सबसे सीनियर मैं ही था। किसी ने बैठने के लिए सीट ऑफर नहीं की। काउंटर पर बैठी एक लड़की, जो अपने व्यवहार से ऑफिसर रैंक की थी। क्योंकि उस समय वो सबसे ज्यादा एक्टिव और हेल्पफुल थी। उसने मुझसे कहा - अंकल आप जाएँ, आपका काम हो जाएगा। शाम तक आपके अकाउंट के पैसा पहुँच चाहेगा। बाहर मौसम बहुत ख़राब हो रहा है।
मैंने कहा - थैंक्यू मेडम, मौसम तो ख़राब हो चुका है। मेरे पास कार है, थोड़ा भीग ही जाऊंगा। कोई ग़म नहीं। आप नहीं जानती कि यह काम कितना ज़रूरी है। मेरे सामने बेटी के अकाउंट में पैसा ट्रांसफर हो जाएगा तो इत्मीनान हो ज्यादा हो। मैं उम्र के उस पड़ाव पर हूं कि कब क्या हो जाए, कुछ पता नहीं?
हमारी बात सुन रहा एक जवान उठा। सर, आप बैठें कृपया।
हमने ना-नुकुर की।
उसने हमें ज़बरदस्ती बैठा दिय। दस मिनट हुए थे, हमें बैठे हुए कि बैंक वाली मैडम ने सूचित किया कि पैसा अकाउंट में ट्रांसफर हो गया।
हमें चैन मिला। ऊपर वाले तेरा लाख लाख शुक्रिया। सही समय पर पैसा मेरी बेटी आकउंट में ट्रांसफर हो गया। हम कम्प्यूटर युग को इसीलिए बहुत शुक्रिया कहते हैं। हफ़्तों का काम चुटकियों में होता है। अन्यथा एक टेबुल से दूसरी टेबुल पर फाइल उठा कर रखने में चपरासी हफ्ता भर ले लिया करता है। 

Friday, August 11, 2017

दो बीघा ज़मीन।

-वीर विनोद छाबड़ा
बिमल रॉय 'दो बीघा ज़मीन' (१९५३) बनाने की योजना बना रहे थे।
कहानी कुछ यों थी। लगातार दो साल सूखा पड़ा। एक किसान शंभू महतो को दो बीघे का खेत ज़मीदार के पास गिरवी रखने को मजबूर होना पड़ा।
शंभू पर ज़मींदार दबाव बनाता है कि या तो खेत बेच दे या फिर क़र्ज़ चुकाओ। पुरखों की ज़मीन है। शंभू किसी भी कीमत पर बेचने को तैयार नहीं। वो क़र्ज़ के ६५ रुपये का चुकाने के लिए अपना सब कुछ बेच देता है। पत्नी के गहने भी। लेकिन ज़मींदार ने धोखाधड़ी करके २३५ रुपये का क़र्ज़ निकाल दिया। कोर्ट में भी  शंभू को न्याय नहीं मिला।
मगर शंभू हताश नहीं होता। वो तय करता है कि शहर जाऊंगा, खूब मेहनत-मज़दूरी करेगा। खूब पैसा कमायेगा। और ज़मींदार का क़र्ज़ अदा करके पुरखों की दो बीघा ज़मीन छुड़वायेगा।
शंभू कलकत्ता आता है। वहां वो हाथे ताने रिक्शा चलाता है। मगर शहर में ज़िंदगी इतनी आसान नहीं है। हालात इतने विषम हो जाते हैं कि शंभू शहर से कुछ हासिल होने की बजाये अपना सब कुछ गंवाना पड़ता है। थक-हार कर वो गांव लौटता हैं तो देखता है कि उसकी दो बीघा ज़मीन नीलाम हो चुकी है। और ज़मींदार उस पर फैक्टरी बनवा रहा है। शंभू निशानी के तौर मुट्ठी भर मिट्टी बटोरता है। लेकिन सुरक्षा कर्मी उसे ऐसा करने से भी मना कर देता है। निराश शंभू वहां से चल देता है।
शंभू के इस किरदार के लिए बिमल रॉय को किसी दुबले-पतले मेहनतकश चेहरे की ज़रूरत थी। एक दिन किसी ने उनके सामने बलराज साहनी को खड़ा कर दिया। सूट-बूट के साथ टाई और फिर ऊपर से अंग्रेज़ों को भी मात करने वाली नफ़ीस अंग्रेज़ी। बिमल रॉय को जैसे गुस्से का दौरा पड़ा। एकदम से नकार दिया। बाद में बड़ी मुश्किल से माने।
कामयाबी की इस बामुश्किल सीढ़ी को बलराज पार गए। लेकिन अभी इससे भी कठिन मुश्किलों का दौर बाकी था। सिर्फ वेश-भूषा किसान की धारण करने से कोई मेहनतकश नहीं बन जाता। मेहनतकश की यंत्रणा से गुज़रना भी होता है।
झुलसाने वाली गर्मी, तपती सड़क और नंगे पांव बलराज 'हाथे ताने रिक्शा' खींचने के लिए तैयार खड़े हैं।
बेतरह भागदौड़ वाला शहर कलकत्ता। अगर पता चले कि शूट चल रही है तो ट्रैफिक रुक जाये। जाम लग जाये। शहर की ज़िंदगी थम जाये।
बिमल रॉय ने कैमरा कार में कुछ इस अंदाज़ में छुपाया कि किसी को नज़र न आये। शहर की ज़िंदगी चलती रहे।

Thursday, August 10, 2017

छपवा ही लें पुस्तक

- वीर विनोद छाबड़ा
आज सुबह सुबह ही आ धमके हमारे एक बड़े भाई। दद्दा कहते हैं हम उन्हें। बोले - क्या लिख पढ़ रहे हो?
हमने कहा - फेस बुक भर रहा हूं और उसी में से कुछ चुनींदा लेख और ज़िंदगी से उठाये किस्से-कहानियां ब्लॉग में भी डालते चलता हूं।
दद्दा भन्नाये - बस यही करते रहना। किसी दिन निकल लोगे ऊपर। अब अपने ऊपर जाने की ख़बर तुम खुद तो फेस बुक पर डालोगे नहीं और तुम्हारे आस-पास रहने वाले दोस्तों-रिश्तेदारों को फेस बुक पर ठीक से नाक पौंछने तक की भी तमीज नहीं। किसी को तुम्हारे अंतर्ध्यान होने का कैसे पता चलेगा?
हमने कहा - नहीं दद्दा, ऐसी बात नहीं। कई सयाने हैं। हमारे पल-पल की ख़बर रखते हैं। कोई न कोई देर-सवेर फेस बुक पर चेंप देगा।
दद्दा बोले - अच्छा ठीक। फेस बुक पर ख़बर भर होने से क्या होगा? पांच-छह सौ लोग तुम्हारा मरना लाईक करेंगे। सौ के करीब कमेंट आ जायेंगे - दुखद। बुड्ढे को विन्रम श्रद्धांजलि। हो गया तुम्हारा पटाक्षेप। दो-चार दिन यही चेलगा। इसके बाद कोई कोई नाम लेवा नहीं रहेगा। कोई पुस्तक नहीं लिखोगे तो यही होगा। पुस्तक होगी तो लोग पढ़ेंगे, हो सकता है सहानुभूति में मरणोपरांत कोई ईनाम-विनाम मिल जाए।
हमने कहा - दद्दा, क्या लाभ। हम तो जीते-जी तो एन्जॉय कर नहीं पाएंगे। और फिर हमें कोई शेक्सपीयर या मुंशी प्रेमचंद तो बनना नहीं।
दद्दा बोले - तुम रहोगे लल्लू के लल्लू। तो मत मरो। कौन मरने को कहता है? सब इंतेज़ाम अब जीते जी होने लगा है। हर प्रोग्राम का पैकेज है। कल्लू हलवाई से लेकर प्रदेश मुखिया तक से विमोचन करा दें। फिफ्टी-फिफ्टी करो तो किसी कॉरपोरेट घराने से पचास लाख ईनाम दिलवा दूं। इत्ता जुगाड़ तो है हमारा। फिर घूमना मुर्गे की तरह गर्दन ऊंची करके, जगह जगह बांगे देते फिरना।
हम दद्दा की बातों में बह गए। हमें याद आया कि किशोरावस्था में जिस दिन स्वतंत्र भारत में हमारा लेख छपता था तो चारबाग़ की गुरुनानक मार्किट में हम सीना फुला कर टहला करते थे। एक दिन हमारा ही छपा आर्टिकल पढ़ रहे एक किरयाने वाले ने हमें टोक दिया - पिताजी से कहना, पिछले महीने का उधार नहीं चुकाया तो अगले महीने राशन नहीं मिलेगा।
इधर दद्दा बता रहे थे - अगर चाहते हो कि तमाम लायब्रेरियों में तुम पड़े रहो तो कम से कम दो-चार किताबें तुम्हारी ज़रूर आनी चाहियें। और कुछ न सही ब्रेन वेव पर ही लिख दो। हवा-हवाई किले। उड़न तश्तरियां। आजकल यह मैटेरियल भी खूब बिक रहा है। सरकारें भी खूब खरीद रहीं हैं। किसी पाठ्यक्रम में लगवा दूंगा। वैसे अंग्रेजी के प्रकाशक भी इसी की तलाश में रहते हैं।
हमने शंका ज़ाहिर की - लेकिन हमारी लिखी पुस्तकें पढ़ेगा कौन