Tuesday, May 30, 2017

सच्चे का बोलबाला

-वीर विनोद छाबड़ा
मंत्री मंडल में वो सबसे अधिक शिक्षित, बुद्धिमान और योग्य मंत्री था। इसी कारण से वो राजा का प्रिय और विश्वासपात्र भी था। राज्य हित में जो भी निर्णय लिए जाते थे, उसमे मंत्री की सलाह अवश्य ली जाती थी।
इससे राजा के साथ-साथ मंत्री की भी जय-जयकार होती थी। यह बात मंत्रिमंडल के बाकी मंत्रियों को पसंद नहीं थी। वो मंत्री की पीठ पीछे अक्सर राजा के कान भरा करते थे कि राज्य में अपराधों की बढ़ती संख्या और व्याप्त भ्रष्टाचार के पीछे मंत्री का ही हाथ है। मंत्री ऊपरी तौर पर ईमानदार है लेकिन भीतर से महाभ्रष्टाचारी है।
एक झूठ जब सौ बार बोला जाये तो वो सच लगने लगता है। राजा यों भी कान का कच्चा था। उसने बिना जांच कराये मान लिया कि मंत्री भ्रष्ट है।
राजा ने मंत्री को बुलाया। आरोपों का पुलिंदा थमाते हुए कहा - तुम पर लगे आक्षेप गंभीर हैं। तुम्हें तीन दिन का समय दिया जाता है। यदि इस समयावधि में खुद को निर्दोष साबित नहीं कर पाये तो कड़ा दंड भुगतना होगा। मृत्यु दंड भी दिया जा सकता है।
तीन दिन व्यतीत हो गए। मंत्री ने जवाब नहीं दिया। राजा को विश्वास हो गया कि मंत्री दोषी है इसलिए उसने कोई जवाब नहीं दिया है। राजा भरी सभा में मंत्री को दोषी करार देते हुए सजा-ए-मौत का ऐलान करने ही जा रहे थे कि मंत्री की ओर से एक पत्र प्राप्त हुआ। राजा ने उसे बाआवाज़े बुलंद पढ़ने का हुक्म दिया।
मंत्री ने पत्र में लिखा था - मेरे ऊपर जितने इल्जाम हैं, सब ग़लत हैं। मगर सबूतों के अभाव में मैं खुद को निर्दोष साबित नहीं कर कर पाऊंगा। बेइज़्ज़त होने की ज़िल्लत से बेहतर है कि आत्महत्या कर लूं। लिहाज़ा मैं मरने जा रहा हूं।
राजा ने मंत्री की दूर-दूर तक तलाश करवायी। लेकिन न मंत्री मिला और न उसका शव। जब दस दिन से अधिक का समय व्यतीत हो गया तो यह मान लिया गया कि मंत्री ने वास्तव में आत्महत्या कर ली है और उसका शव जंगली जानवरों ने खा लिया है। राजा ने एक शोक सभा आयोजित की। शोक सभा में अपार जनसमूह के साथ साथ मंत्री के विरोधी भी उपस्थित थे।

Monday, May 29, 2017

भक्तों से डरो!

-वीर विनोद छाबड़ा
आज जेठ महीने का तीसरा बड़ा मंगल है। अपने शहर लखनऊ में जेठ का हर मंगल बड़े मंगल के रूप में मनाया जाता है। शहर में करीब चार हज़ार भंडारे सजते हैं। प्रसाद के रूप में आलू-पूड़ी आदि लोग ग्रहण करते हैं। इस दिन शहर में कोई भूखा नहीं रहता। बाहर से आये मेहमान भी इसी प्रसाद से पेट भरते हैं।
हमने छत्तीस साल आठ महीने बिजली बोर्ड की नौकरी में एक से बढ़ एक महान अफसरों के मातहत काम किया और दूसरे तमाम अफसरों को भी देखा। सबके सब भीरू भाई। उनके टेबुल ग्लॉस के नीचे उनके आराध्यदेव की तस्वीर ज़रूर लगी देखी। ऑफिस आकर श्रद्धानुसार दो से दस मिनट तक पूजा-पाठ में लगाया। सख्त अफसर के कमरे में प्रवेश करने से पूर्व मातहत अफ़सर को बजरंग बली का स्मरण करते देखा।
अफसरों को भगवान के नाम से डरते देखा। हमें याद है कि एक बार दो-तीन बजरंग भक्त बाबूओं के मन में हूक उठी कि बड़े मंगल पर भंडारा आयोजित किया जाए तो विभाग पर छाये संकट के बादल टल जायेंगे। चल पड़े चंदा बटोरने। एक घनघोर नास्तिक अफसर ने चंदा नहीं दिया। यह बात उन्होंने अपने साथियों से डंके की चोट पर शेयर की।
एक धर्मभीरू मित्र ने समझाया - अरे दे देते तो अच्छा रहता। अब पाप चढ़ेगा तुम पर।
वो नास्तिक अफ़सर बोले - देखता हूं कि मेरे चंदा न देने से क्या पाप चढ़ता है मुझ पर।
तब दूसरे साथी ने समझाया - देखिये, ठीक कहते हैं आप। कोई पाप नहीं चढ़ेगा। आपको कोई फ़र्क भी नहीं पड़ेगा। बजरंग बली को भी नहीं पड़ेगा। लेकिन भक्तगण को फ़र्क पड़ सकता है। इनसे टकराना महंगा पड़ सकता है। जीना हराम कर देंगे। काम नहीं करेंगे। बात-बात में मीन-मेख निकाल कर काम की स्पीड में रुकावट पैदा करेंगे। और शायद आपके निजी काम मसलन पे-बिल, एरियर बिल, टूर के टीए-डीए बिल भी लटकायेंगे। और मेडिकल लीव या अर्नलीव
बात पूरी हुई नहीं कि वो नास्तिक मित्र उठ कर बाहर निकल गए। हम लोग समझे कि नाराज़ हो गए हैं।
लेकिन बाद में पता चला कि उन्होंने सबसे ज्यादा चंदा दिया। और ख्याल रखा कि आयोजन में कोई कमी न होने पाये। सुना है ऐसे आयोजनों पर उनकी दृढ़ आस्था भी हो गयी है। वो इन्हें सांस्कृतिक आयोजन की संज्ञा देते है। स्वयं भंडारे में लंबा लाल टीका लगा कर बैठते हैं और भक्तजन को प्रसाद बांटते नज़र आते हैं। निजी कामों से संबंधित उनकी फाईल नहीं रुकती है। भक्तजन स्वयं भाग-दौड़ कर उनके सारे काम कराते हैं।

Sunday, May 28, 2017

और आख़िर छांट दिए गए फूलवाले

-वीर विनोद छाबड़ा 
आजकल ७५वां जन्मदिन मनाने की धूम है।
हम भी कोई साल भर पहले एक ७५वीं सालगिरह में शरीक हुए थे। वो पेशे से कपडे के थोक व्यापारी हैं। अथाह धन दौलत और साधनों के मालिक हैं। भरा-पूरा संयुक्त परिवार है। आये दिन किसी का जन्म दिन, किसी का मुंडन और किसी की छठी। ज़बरदस्त जश्न होता है।
भगवान के बड़े भक्तों की सूची में होने का दावा करते हैं। हर साल बड़े बाजे-गाजे के साथ लगातार तीन दिन भगवान भजन करते हैं। फिर भोग के नाम पर शानदार दावत। वो बात अलग है कि पड़ोसियों की तीन दिन तक नींद हराम रहती है। इनमें कई दिल के मरीज़ भी हैं। लेकिन उन्हें इसकी परवाह नहीं। भगवान सबकी ख़ैर लेंगे।
हमको सौभाग्य प्राप्त है कि उनकी पचासवीं भी अटेंड की थी। एक शानदार गिफ़्ट लेकर गए थे। उनके एक करीबी ने बताया कि वो बहुत नाराज़ थे, उन लोगों से जो फूलों के गुलदस्ते लेकर आये थे। भनभना रहे थे कि इनका क्या करूं? सर पर मारूं? तीस-चालीस रुपए के फूलों के गुच्छे के स्थान पर अच्छा होता कि ग्यारह या इक्कीस रूपए रख दिए होते।
ऐसे ही कुछ फूलवालों को हम भी जानते थे। उनको मैंने आने वाले सालों में उनके परिवार में होने वाले जश्नों में नहीं देखा। सब छांट दिए गए।
कुछ भी हो करीबी होने के कारण उनके परिवार में आयोजित हर प्रोग्राम में निमंत्रित रहे। कभी नकदी दी तो कभी चमकीली पन्नी में लिपटा बड़ा सा गिफ्ट।

हां, तो बात ७५वीं वर्षगांठ की हो रही थी। हम दूसरे शहर में थे। वहां का प्रोग्राम कट-शार्ट कर हम ऐन मौके पर वापस पहुंचे।
उस दिन बुधवार था। साप्ताहिक बंदी के कारण मार्किट बंद थी। टाइम बिलकुल नहीं था। सो फूलों का बढ़िया सा बुके लिया और चल पड़े सपरिवार।
वो ऊंचे डायस पर बादशाहों वाली शानदार कुर्सी पर विराजमान थे। बेचारी पत्नी दो हाथ पर छोटी कुर्सी पर एक बड़ा सा बैग लेकर बैठी थी। नकदी वाले लिफ़ाफ़े भर रही थी। हमने उन्हें फूलों का गुलदस्ता भेंट दिया।
उन्होंने बड़े मुर्दा अंदाज़ से कहा - धन्यवाद।
हमें हैरानी हुई। अभी अभी तो ये शख्स कितना प्रफुल्लित था। हमें ही देख कर क्यों चेहरा मुरझाया?
ओह हो! अब समझा। तभी हमें पच्चीस साल पहले की घटना याद आ गयी। फूल की जगह ग्यारह या इक्कीसहे राम। अब क्या करूं?
फिर सोचा - कोई बात नहीं। दो-चार दिन बाद सही। चचा को बढ़िया गिफ्ट भेंट करूंगा । पश्चाताप हो जायेगा। बरसों पुराने संबंध हैं। इतनी जल्दी न टूटने वाले।

Saturday, May 27, 2017

किराएदार

- वीर विनोद छाबड़ा
मैंने पूछा - भाई साहेब, सुना है आपका मकान फिर खाली है।
वो बोले - हां। कोई अच्छा किरायेदार हो तो बताइयेगा।
मैंने कहा - है तो।
उनकी आंखें चमकी - क्या है वो? मेरा मतलब, उसकी जाति और धर्म क्या है?
मुझे मालूम था कि वो कैसा किरायेदार चाहते हैं। मुसलमान नहीं हो। हिन्दू ही चाहिए। और वो भी ब्राह्मण। गोश्त न खाता हो। सिगरेट का धुआं न उडाता हो और बोतल का शौक़ीन न हो। जबकि मकान मालिक वो खुद इन सबके बेहद शौक़ीन हैं। लेकिन किरायेदार के लिए पाबंदिया हैं। उसे सात्विक बनाने का बीड़ा जो उठा रखा है। शायद यही वज़ह है कि उनके घर किरायेदार छह महीने से ज्यादा टिकता नहीं।
बहरहाल, मैंने कहा - इस बार आपके मन मुताबिक किरायेदार है। खांटी वेजीटेरियन। समस्त प्रकार के दुर्वसन से दूर, बहुत दूर। सौ फीसदी टिकाऊ।
वो उछल पड़े - अच्छा। क्या करता है?
मैंने कहा - अच्छी जगह पर है। वेतन भी अच्छा है। पत्रकार हैं। वर्किंग जर्नलिस्ट। स्थाई नौकरी है। वो बात अलबत्ता दूसरी है कि अख़बार बंद हो जाए। लेकिन पत्रकार है, बेकार नहीं बैठता, कहीं न कहीं से खाने का जुगाड़ बैठा लेगा।
वो एकदम से बिदक गए - न भैया। हमें खखेड़ नहीं चाहिए। देखो, अब मुसलमान नहीं होने के साथ-साथ यह भी जोड़ लो कि वो पत्रकार न हो और वकील भी नहीं। और हां पुलिस वाला भी न हो। सचिवालय या उसके जैसे ऐसे ऑफिस में नौकर न हो जहां पोस्टिंग परमानेंट हो। बैंक वाला चलेगा। पर फैमिली वाला न हो।
कुछ क्षण शांत रहने के बाद दबे स्वर में बोले - मेरी तो इच्छा है कि पढाई करने आई लड़कियां को दूं। पढाई के बाद घर वापस चली जातीं हैं। उनके मां-बाप को उनकी शादी की फ़िक्र होती है। लेकिन, श्रीमतीजी नहीं मानतीं। उनको डर है कि लड़कियों के बॉय फ्रेंड होते हैं। घर में भी जवान बेटी है। न बाबा न!
मुझे याद आता है कुछ साल पहले का वो ज़माना। जात-पात और हिन्दू-मुसलमान का ज़माना तो वो भी था। लेकिन थोड़ी न-नुकुर के बाद लोग तैयार हो जाते थे।

भूचाल आंटी!

-वीर विनोद छाबड़ा
जब भी भूचाल आता है या दुनिया के किसी भी हिस्से में इसके आने की खबर पढता हूं तो मुझे 'भूचाल आंटी' याद आती है।
यह मेरी चाची थीं। उन्हें आंटी कहलवाना पसंद था। इसलिए उन्हें हम आंटी कहते थे। पचास के दशक का अंत और साठ के दशक की शुरुआत का दिल्ली। चाची एक सरकारी स्कूल में पढ़ाती थीं और चाचा भी टीचर थे। उनके आने-जाने का रास्ता एक ही था। बस प्यार हो गया। चाचा साईकिल के कैरियर पर बैठा कर उन्हें रोज़ाना घर तक छोड़ते थे। अड़ गए चाचा कि शादी करूंगा तो इसी से। संयोग से पार्टीशन पूर्व हमारे इलाके भी आसपास के थे। हम मियांवाली की तो वो डेरा इस्माईल खान के। और शादी हो गयी। उनके चार बच्चे हुए, तीन लड़कियां और एक बेटा।
दिल्ली के बाड़ा हिन्दू राव की चिमनी मिल गली के उस मकान के आंगन में सुबह पांच बजे अंगीठी सुलग जाती। धुआं-धुआं सा घर हो जाता। सभी को उठ जाना पड़ता। अगले दो घंटे चाची का राज। यह उठाया, वो पटका। इसको डांटा उसको थप्पड़ रसीद किया। चाचा से लंबी बहस भी की। बच्चों की धमाचौकड़ी अलग से। मानों भूचाल सा आ गया हो।
दो-चार दिनों के लिए लखनऊ से दिल्ली आये हम सब बच्चे मूक दर्शक की भांति सब देखा करते। कभी कभी लगता था कि यह सब करमुक्त मनोरंजन हो रहा है हमारा। 
फिर एक-एक कर सब बिदा होते। सबसे पहले चाचा साइकिल उठा कर स्कूल को निकलते। फिर बच्चों की बस आ जाती। सबसे छोटा राजू। अभी स्कूल जाने लायक नहीं था। चाची स्कूल जाने लगती तो दूसरी मंज़िल पर रहने वाली सास को संबोधित करते हुए एक ऊंची आवाज़ लगाती - भाभी मैं वेंदी पई हां। (अर्थात मैं जा रही हूं)
इसका मतलब यह होता कि राजू का ख्याल रखना।
अगले छह-सात घंटे घर में बड़ी शांति रहती। पहले लड़कियां स्कूल से लौटतीं और फिर चाचा। और थोड़ी देर बाद चाची। बस शुरू हो जाते भूचाल के छोटे-मोटे झटके जो रात देर तक जारी रहते। कभी बच्चे आपस में लड़ते तो कभी चाची उन्हें छुड़ाने के लिए डपटती। रसोई में काम करते करते बच्चों को जोर जोर से पढ़ाया भी करती थीं। चाचा अख़बार पढ़ रहे होते थे। उन्हें बहुत डिस्टर्बेंस होती। वो कहते थे - जरा धीरे से बोलो। बस इसी बात पर भूचाल आ जाता। 
चाची खाना बहुत अच्छा बनाती थी। हम जब तक दिल्ली में रहते थे कोशिश होती थी चाची के हाथ का बना खाएं और वो खिलाती भी बड़े प्यार से थीं। स्कूल जाने से पहले हमारे हाथ में चवन्नी रखना भी नहीं भूलती थी। जब हम लखनऊ लौटते थे तो पांच का नोट और ढेर सारा गाज़र का हलवा देना नहीं भूलती थीं। हमें हैरानी होती थी कि यह बनाया कब। वो बताया करती थीं कि रात को जब तुम सब सो रहे होते थे तो बनाती थी।

Friday, May 26, 2017

सिर्फ़ दो गुड़िया।

- वीर विनोद छाबड़ा
पति-पत्नी का वो जोड़ा एक दूजे के लिए बना था। दोनों को कभी झगड़ते हुए नहीं देखा गया था। बल्कि मिसाल थे, दूसरों के लिए।
पत्नी के पास एक मजबूत लोहे का संदूक था। शादी के अवसर पर उसकी मां ने इसे गिफ़्ट किया था। वो रोज़ इसे खोलती थी, कुछ रखती और फिर बंद कर देती। एक मोटा सा ताला जड़ना भी कभी न भूली।
पति को उस पर इतना विश्वास था कि उसने कभी पलट कर कभी पूछा नहीं कि इसमें क्या है?
उन दोनों के शांतिपूर्ण जीवन का यह भी एक राज था कि एक-दूसरे के काम में दख़ल मत दो।
समय गुज़रता गया। दोनों बहुत बूढ़े हो गए। एक दिन पत्नी बहुत बीमार हो गई। डॉक्टर ने कह दिया कि अब ज्यादा दिनों तक ज़िंदा रहने की उम्मीद करना व्यर्थ है।
इस सत्य की जानकारी होते ही कि अब ज्यादा दिन जीवन के बचे नहीं हैं, बिस्तर पर लेटी पत्नी ने पति से अनुरोध किया कि मेरा संदूक ले आओ।
बूढ़े पति को लोहे का भारी-भरकम संदूक लेकर आने में काफ़ी मेहनत करनी पड़ी।
पत्नी ने तकिए के नीचे से चाबी निकाल कर पति को दी। पति ने ताला खोला तो हैरान रह गया। उसमें हाथ से बनी कपड़े की दो गुड़िया थीं और साथ में नकद दो लाख डॉलर।

Thursday, May 25, 2017

धुआं धुआं!

-वीर विनोद छाबड़ा
मैं सुबह सुबह मुंह अंधेरे टहलने नहीं निकलता। इसके दो कारण हैं। 
एक - उस समय पेड़-पत्ती कॉर्बनडाइओक्ससाईड छोड़ रहे होते हैं और हमें हाई ब्लड प्रेशर, हाइपरटेंशन और अस्थमा की शिकायत है। डॉक्टर की अड्वाइज़ है कि आसमान में हल्की लालिमा के दर्शन होते ही निकल लें।
दो - अनेक अशिष्ट ही नहीं शिष्ट नागरिक भी अपने घर का कूड़ा-कचरा सफाई कर्मी से उठवाने के स्थान पर घर के द्वारे जलाते दिखते हैं। मजे की बात यह है कि यह काम वो बड़े शान से कर रहे होते हैं मानों वो देश की उन्नति में कोई बड़ा योगदान दे रहे हैं।
यों सफाई कर्मी भी पीछे नहीं हैं। वो भी अपना भार हल्का करने के लिए जहां मौका मिलता है, कूड़े को दियासलाई दिखा देते हैं। कोहरे के दिनों में तो ये धुआं हवा में घुल कर कोढ़ में खाज का काम करता है।
धुआं-धक्कड़ सिर्फ मुझे ही नहीं मेरे जैसे सांस रोगी को नुकसान पहुंचाता, जो हर गली, हर मोहल्ले में बिखरे पड़े हैं। धुआं, आग लगाने वालों के अड़ोस-पड़ोस में ही नहीं जाता, बल्कि स्वयं उनके घर भी जाता है। ये रोगीओं को ही नहीं सामान्य जन को भी हानि पहुंचाता है। यही सोच कर मैं सुबह साढ़े आठ के बाद टहलने निकलता हूं। लेकिन तब भी कई जगहों पर आग की लपटें और धुआं उठते दिख जाता है।

Tuesday, May 23, 2017

सर्वगुण संपन्न पत्नी

-वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक मित्र बता रहे थे - आजकल मैं बड़े आराम में है। सर्वगुण संपन्न पत्नी जो मिलने वाली है।
उन्होंने बताया कि उनकी होने वाली पत्नी ट्रिपल एम.ए. है - हिंदी, इंग्लिश और इकोनॉमिक्स में। चौथी बार भी करेगी। अभी हिस्ट्री में एडमिशन लिया है। इसे वो शादी के बाद पूरा करेगी।
मित्र खुद भी डबल एम.ए. हैं - पोलिटिकल साइंस और सोशियोलॉजी से। अच्छी बात है। पत्नी ज्यादा पढ़ी-लिखी है। होनी भी चाहिए। और सयानी तो होगी ही।
उनमें तनिक हीन भावना भी जगी। फिर खुद को तसल्ली दी। एजुकेशन ही तो ज्यादा है। लेकिन पढ़ा तो मैं ज्यादा है। साहित्य, हिस्ट्री, जिओग्राफी, गीता- रामायण और दर्शनशास्त्र तक क्या-क्या नहीं पढ़ा है।

हमारे मित्र शक्ल से भी फिलॉसफर लगते हैं। मोटे-नीले लेंस और काले चौड़े फ्रेम का चश्मा। चेहरे पर घास की तरह उगी दाढ़ी और बिखरे हुए लंबे लंबे बाल। कई दिन से नहाये हुए भी नहीं लगते हैं। कभी कभी बदबू भी मारते हैं। बिना इस्त्री की मैली खाखी पैंट और ऊपर भूरे रंग का कुरता। हर समय कंधे पर काले रंग का मैला सा झोला भी लटकता रहता है। 
लेकिन पत्नी पर रुआब जमाने के लिए इतना काफ़ी नहीं लगा उन्हें। ज्ञान-ध्यान की ढेर पुस्तकें और हिंदी-अंग्रेज़ी के अनेक मोटे-मोटे ग्रंथ खरीद लाये।
उन्होंने बताया - सुहागरात पर पत्नी को सबसे पहले इन सबसे दर्शन करा कर अपनी रूचि और प्रतिभा से परिचित कराऊंगा। धन्य हो जायेगी वो मुझ जैसा फिलॉसफर पति प्राप्त करके।
हम तमाम दोस्तों को उनकी किस्मत पर तनिक जलन भी हुई। लेकिन उन्होंने हमें एक बढ़िया बैचलर पार्टी देकर दिल खुश कर दिया। हम सबने उन्हें भरपूर शुभकामनाएंं दीं और साथ में सुंदर गिफ़्ट भी।
मित्र की शादी हो गयी, बड़ी धूमधाम से। हम सब खूब नाचे-गाये।
शादी के बाद अक्सर मित्रगण गायब हो जाते हैं। लेकिन वो मित्र मिलते रहे। कुछ दिन तक बड़े प्रसन्न भी दिखे। उनकी घासनुमा दाढ़ी, बिखरे बाल, झोला आदि सब गायब हो चुका था। एक शरीफ़ आदमी की शक्ल अख्तियार कर ली थी। इत्र की खुशबू आती थी उनके कपड़ों से। बहुत हैंडसम दिखने लगे।

Monday, May 22, 2017

भूतनी के छाबड़ा जी....

- वीर विनोद छाबड़ा
ज्ञानी-ध्यानी कह गए हैं पाप से घृणा करो पापी से नहीं।
लेकिन इसके बावजूद कुछ लोग कभी दुरुस्त नहीं होते। क्यूंकि उनका स्वाभाव ही डंक मारना होता है।
कोई नौ दस साल पहले की बात है। तब हम इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड की सेवा में हुआ करते थे।
चेयरमैन साब का फरमान हुआ कि फलां फ़ाइल फौरन से पेश्तर पेश की जाये।
अधीनस्थ ऑफ़िसर से मैंने उस खास फाइल को पर्सनली सेक्शन से जल्दी करवा कर लाने को कहा।
जब किसी पत्रावली को आला ऑफ़िसर तलब करता है तो उसे सिर्फ मातहतों के भरोसे छोड़ना ठीक नहीं होता। यह सोच कर मैं भी पीछे-पीछे चल दिया कि वहीँ सेक्शन में बैठ कर निपटा दूंगा फाइल। इससे जल्दी का उद्देश्य भी पूरा होगा। और फिर मैं खुद चेयरमैन को फाइल पेश दूंगा।
जब मैं सेक्शन पहुंचा तो देखा दरवाज़ा खोल कर वो अधीनस्थ ऑफ़िसर खड़े थे और मेरे दिए हुए हुक्म को कुछ इस अदाज़ में पास कर रहे थे - वो फ़लानी फाइल जल्दी निकालो। वो भूतिनी के छाबड़ा जी मांग रहे हैं।

उन्होंने पत्र को ही लेख बना दिया

- वीर विनोद छाबड़ा
पत्र लेखन से संबंधित मुझे एक किस्सा याद आ रहा है ।
बात १९८८ की है। क्रिकेट के 'डॉन' सर डॉन ब्रैडमैन २७ अगस्त को ८८ साल के होने जा रहे थे। मैं डॉन का ज़बरदस्त फैन था। उन पर कई लेख लिख चुका था। लेकिन इस बार इस कुछ अलग हट लिखना चाहता था। मैंने विषय चुना उनकी आख़िरी पारी का। इसमें वो शून्य पर आऊट हुए थे। अगर चार रन बना लेते तो उनका टेस्ट एवरेज सौ हो जाता।
लेकिन क्रिकेट तो महान अनिश्चिताओं का खेल है। होता वही है जो नियति में बदा होता है।
इरादा किसी स्थानीय अख़बार में देने का था। लेकिन फिर सोचा, अभी समय है, बाहर भेज दूं, किसी बड़ी खेल पत्रिका को।
उन दिनों इंदौर से एक प्रकाशित होती थी - 'खेल हलचल', खेल के विषय में एकमात्र हिंदी साप्ताहिक। मुझे बहुत पसंद थी। यह 'नई दुनिया' समाचार समूह का प्रकाशन था। मैंने उन्हें लेख भेज दिया।
चूंकि उन्हें पहली बार रचना भेज रहा था, इसलिए साथ में एक पत्र नत्थी किया। पत्र में प्रथमता अपना परिचय दिया। तदुपरांत लेख की महत्वत्ता के संबंध में विस्तार से लिख दिया। मुझे लगा कि पत्र कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। फिर सोचा, जाने दो। संपादक जी को तो लेख से मतलब है। मर्ज़ी होगी तो पत्र पढ़ेंगे अन्यथा रद्दी की टोकरी तो हर संपादक के बगल में रखी ही रहती है।
बहरहाल, कुछ दिनों बाद लेख प्रकाशित हो गया। लेकिन मुझे सदमा लगा। लेख नहीं छपा था, बल्कि मेरा पत्र लेख छपा हुआ था, लेख के रूप में।
मैंने फ़ौरन संपादक जी को नाराज़गी भरा पत्र लिखा। कोई जवाब नहीं आया। दो-तीन बार स्मरण भी कराया। तब भी कोई असर नहीं पड़ा।
झल्ला कर मैंने अपने पत्रकार मित्र विजय वीर सहाय से बात की। वो 'स्वतंत्र भारत' में फीचर देख रहे थे।
उन्होंने कहा - इसमें परेशान होने वाली क्या बात है? अरे, उनको लगा होगा कि पत्र में तुमने ब्रैडमैन के बारे में ज्यादा बेहतर लिखा है। इसीलिए इसे उन्होंने छाप दिया और लेख फाड़ रद्दी की टोकरी में फेंक दिया होगा।

Sunday, May 21, 2017

राजेश खन्ना उस दौर में वाकई टॉप पर थे

- वीर विनोद छाबड़ा
Rajesh Khanna with Sharmila in Amar Prem
राजेश खन्ना अपने दौर में वाकई सुपरस्टार थे। वो उस दौर को परदे बाहर भी पूरी शान-ओ-शौकत के साथ जी रहे थे। दो राय नहीं कि वो बेहतरीन कलाकार थे। तब तक आखिरी खत, राज़, आराधना, कटी पतंग, अमर प्रेम, आनंद, डोली, सच्चा-झूठा, अंदाज़ आदि दर्जन भर से ज्यादा फ़िल्में उनकी रिलीज़ हो चुकी थीं। कई तो बॉक्स ऑफिस पर ज़बरदस्त हिट थीं।
लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि वो बहुत संवेदनशील व्यक्ति थे। ज़रा सी भी चोट बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। कुछ इसे फुटबाल साइज़ ईगो के रूप में देखते हैं। लेकिन इस सच से इंकार करना बहुत मुश्किल है कि राजेश खन्ना जैसी शख्सियत उस दौर में 'हवा हवाई' नहीं थी।
राजेश खन्ना की 'अमर प्रेम' को हम उनकी सबसे बेहतरीन फिल्म मानते हैं। १९७१ में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म में वो एक ऐसे मुश्किल किरदार को बहुत सहजता से अदा करते हुए दिखते हैं जिसे घर से कोई ख़ुशी नहीं मिलती और उस ज़िंदगी को वो कोठों पर तलाशता फिरता है।
इस फ़िल्म में उनकी परफॉरमेंस को १९७२ में फ़िल्मफ़ेयर ने ईनाम देने के लिए नामांकित किया। यह वही अवार्ड फंक्शन था जिसमें प्राण साहब ने बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का ख़िताब लेने से इसलिए मना कर दिया था क्योंकि 'पाकीज़ा' में गुलाम मोहम्मद को संगीत के लिए ख़िताब देने से इंकार करके आयोजकों ने बड़ी बेइंसाफी की थी।
राजेश खन्ना के साथ भी ऐसा ही हुआ। उन्हें पता चल गया कि बेस्ट एक्टर का अवार्ड मनोज कुमार को 'बेईमान' के लिए दिए जाने का फैसला कर लिया गया है। बहुत आहत हुए वो ये सुन कर। उन्हें लगा कि यह अपमान है, उनका ही नहीं बल्कि एक बेहतरीन परफॉरमेंस का भी, जिन्हें उन्होंने बड़ी शिद्दत से जीया है।
लेकिन राजेश उन लोगों में नहीं थे जो चुपचाप सह लें। ऊपर से सुपरस्टारडम को भूत। उन्होंने फैसला किया एक बहुत बड़ी पार्टी का, ठीक अवार्ड नाईट के वक़्त में, आयोजित करेंगे। फिल्म इंडस्ट्री के तमाम छोटे से बड़े तक को न्यौता चला गया। बड़ी तादाद में 'न्यौता कबूल है' की मुहर भी लग गयी।
जब फ़िल्मफ़ेयर वालों को पता चला तो उनके पैर तले से ज़मीन खिसक गई। अवार्ड नाईट फेल होने की नौबत आ गयी। प्राण साहब ने अवार्ड लेने से इंकार करके पहले से ही विवाद खड़ा कर रखा था। और अब राजेश खन्ना की एक प्रकार की यह धमकी। हिल गए आयोजक।
बहरहाल, बड़ी मुश्किल से मना पाए वे राजेश खन्ना को। सुना है कुछ बड़े प्रोड्यूसर, डायरेक्टर्स और सीनियर कलाकारों की सेवाएं भी ली गयीं थीं।

Friday, May 19, 2017

बाप बाप होता है और.…

-वीर विनोद छाबड़ा
Govinda & Amitabh in Bade Miyan, Chote Miyan
कभी अतीत की कोई पोस्ट इसलिये अच्छी लगती है क्योंकि उसमें कोई अतीत का बंदा आकर अतीत की याद दिलाता है।
ऐसी ही एक अतीत की पोस्ट। 
करीब ढाई साल पहले की बात है। रात डेढ़ बजे का समय। आंखों से नींद गायब है। बिस्तर पर ख़ामख़्वाह करवटें बदलने से बेहतर है कि फेसबुक खोल कर बैठ जाओ। वही किया मैंने।
सहसा मेसेज बॉक्स खुल गया। राम भाटिया का नाम उभरा। पूछ रहे थे, कैसे हैं?
मैंने कहा ठीक हूं। फिर सोचने लगा, कौन है यह बंदा? प्रोफाइल चेक किया। बंदा हिन्दुस्तान मीडिया का था। देखा-भाला लगता है।
स्मृति पर पड़ी धूल की मोटी परत थोड़ी झाड़ी ही थी कि याद आ गया। अरे, यह तो राम चन्दर भाटिया है। इसे मैंने किशोरावस्था से युवावस्था में जाते हुए देखा था। मेहनती और जिज्ञासू बंदा है। 
मैं सिनेमा और क्रिकेट पर लिखता था। वो मेरा फैन था। अक्सर घर भी आता था, कुछ सलाह-मशविरा लेने।  उन दिनों मैं पुलकित होता था ये जान कर कि सिनेमा और क्रिकेट के स्थानीय लेखकों के भी प्रशंसक होते हैं।
इतने बरस बाद भी भाटिया ने मुझे याद रखा, यह भी मेरे लिए सुखद आश्चर्य की बात थी। वरना सिनेमा और क्रिकेट के लोकल लेखक की बिसात लेखन संसार में ज़र्रे से भी कम है। हमें ही याद दिलाना पड़ता है कि मैं फलाना हूं और इन विषयों पर लिखता हूं। बहुत ख़राब लगता था जब अगला कहता था कि उसकी इन विषयों में कोई दिलचस्पी नहीं है, इसलिए अख़बार के इन सफ़ों को वे बिना खोले की आगे बढ़ लेते थे।
बहरहाल, भाटिया ने लेकिन आगे जो लिखा, उसका जोल्ट बहुत ज्यादा सुखद था।
उसने बताया कि हिन्दुस्तान, लखनऊ में प्रकाशित उसे मेरा लेख 'बड़े मियां छोटे मियां' इतना पसंद आया था कि आज भी याद है।
मुझे याद आया कि अक्टूबर, १९९८ में मैंने वो लेख लिखा था। इसमें मेरा दृष्टिकोण यह था कि फिल्म 'बड़े मियां, छोटे मियां' की कामयाबी कोई मायने नहीं रखती है। ज्यादा देखने वाली बात तो यह होगी कि आज के दौर में 'सिनेमा के पर्दे के बड़े मियां' गोविंदा हैं या अमिताभ बच्चन। 
दरअसल, यह नब्बे के दशक के अंतिम दौर की बात है। उन दिनों गोविंदा की पतंग सातवें आसमान पर उड़ रही थी और बॉक्स ऑफिस पर एक के बाद एक नाकामियों से घायल अमिताभ फड़फड़ाने तक के लिए झटपटा रहे थे।