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Monday, February 17, 2014

थैला-लिफ़ाफ़ा युग की वापसी की आहट!

-वीर विनोद छाबड़ा
पोलीथीन को पर्यावरण तथा ज़िंदगी के लिये ज़हर मान चुके हमारे एक अज़ीज़ मित्र उस दिन अख़बार में ये ख़बर पढ़ कर बेहद खुश थे कि लखनऊ शहर की एक बड़ी मार्किट के व्यापारियों ने तय किया है कि वे आइंदा पोलीथीन बैग्स का इस्तेमाल नहीं करेंगे। इलावा इसके एक समाजसेवी संस्था ने भूतनाथ मार्किट को पोलीथीन-मुक्त करने की मुहिम के अंतर्गत मुफ़्त झोले व लिफा़फे़ बांटे। इत्तिफ़ाक़ से मित्र उस वक़्त वहीं मौजूद थे। इससे पहले इतना खुश तब हुए थे जब कुछ साल पहले सरकार ने पोलीथीन बैग्स पर पाबंदी का ऐलान किया था।

उनको वो ज़माना याद आया जब पोलीथीन बैग्स का किसी ने नाम तक नहीं सुना था। हर सामान काग़ज़ से बने लिफ़ाफ़ों में पैक हो कर मिलता था। चूंकि भारी और ज्यादा सामान का बोझ काग़ज़ी लिफ़ाफे़ बर्दाश्त नहीं कर पाने के कारण जल्दी फट जाते थे इसलिये इन लिफ़ाफ़ों को एक बड़े कपड़े के थैले में रख दिया जाता था। सब्ज़ी-तरकारी आदि की खरीद के वक़्त पहले आलू-प्याज़ जैसी सख़्त जान वाले आईटम थैले में सबसे पहले रखे जाता थे और बाद में मुलायम आईटम का नंबर आता था। सबसे ऊपर लाल-लाल टमाटर और हरी धनिया को जगह मिलती थी।

Monday, January 20, 2014

शर्म हमें मगर नहीं आती!

-वीर विनोद छाबड़ा

उस दिन गोरखरपुर में एक किशोरी के साथ गैंगरेप की घटना ने पूरे ज़िले में त़बरदस्त ऊफ़ान पैदा कर दिया। तमाम फिरके और सामाजिक संगठन इस दरिंदगी की मुख़लाफत करने के लिए सड़को पर उतर पड़े। मगर बड़े शर्म की बात है कि सूबे की राजधानी लखनऊ और उसके आस-पास के देहाती इलाकों और कस्बों में आए दिन अबलाओं पर जु़ल्म ढाए जाते हैं, अस्मतें लूटती हैं, दहेज की में जलायी जाती हैं, मगर लखनऊ के बंदे इल्मो-अदब और नफ़ासत की मोटी चादर ओढ़ कर सोते रहते हैं। यहां की संजीदगी अब इतिहास की बात हो चली है। एंटिक के तौर पर चंद जर्जर इमारते और कुछ हांफते-कांपते बुजुर्ग ही बचे हैं। अब यहां हद दरजे के संवेदनहीन बसते है। मिसाल पेश है। कुछ महीने हुए, शहर के रईस इलाके गोमती नगर में एक चार साल की मजलूम मासूमा दरिंदगी का शिकार हुई। थानेदार बोला- कुत्तो ने नोच डाला। मौकाए वारदात के आस-पास रहने वाले शरीफों ने सीसी कैमरा फुटेज जांच एजेंसियों से शेयर नहीं की। मजलूम मासूमा की बेवा मां के ज़ि़ंदा रहने का सबब ही ख़त्म हो गया। बाकी ज़िंदगी को वो एक जिंदा लाश के माफ़िक ढोएगी।

Friday, December 27, 2013

आजा नच लै!

बारातों में लड़के-लड़कियों को नाचते -कूदते और गाते देखता हूँ तो अपना ६० व ७० का दशक याद आता है जब हम भी लड़के थे और अपनी मंडली के साथ कम सेप्टेम्बर की धुन पर खूब ट्विस्ट करते थे। ये देश है वीर जवानो का…ले जायेंगे ले जायेंगे दिल वाले दुल्हनियां …आज मेरे यार की शादी है…मेरा यार बना है दूल्हा…आदि खूबसूरत गानों को बैंड-बाजे बेसुरा बना देता थे मगर फिर भी जम कर डांस होता था, भले ही दूसरों को हम भालू -बंदर दिखते हों। मगर ख़ुशी होती है कि मेरे दौर के गानों के धुनें बारातों में आज भी जवां हैं, भले ही अंग्रेज़ी ट्विस्ट का वक़्त ख़त्म हो गया है। इसी संबंध में जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ दिनांक २७.१२.२०१३ के उलटबांसी स्तंभ में प्रकाशित मेरा निम्नलिखित लेख -

Saturday, December 21, 2013

मन चंगा, कठौती में गंगा

मन और बुद्धि के मध्य द्वंद अक्सर चलता है. बुद्धि की तुलना में मन वाचाल भी है और महाआलसी भी. जनसंदेश टाइम्स दिनांक २१/१२/२०१३ के उलटबांसी स्तंभ में प्रकाशित मेरा निम्मलिखित लेख - मन चंगा तो कठौती में गंगा - पढ़ने का कष्ट करें:-