Thursday, March 27, 2014

अपने बुज़ुर्गों को भी रुलाते हैं ये बिजली वाले!

-वीर विनोद छाबड़ा

चिलचिलाती धूप। साठ से लेकर नब्बे साल तक के डेढ़ सौ पेंशनर फैमिली पेंशनर बिजली दफ़तर के आलीशान मुख्यालय के प्रांगण में धरना-प्रदर्शन पर बैठे हैं। इनकी शिकायत है, वक़्त पर पेंशन का मिलना, महंगाई राहत का ऐलान महीनों बाद होना, चिकित्सा व्यय प्रतिपूर्ति का विलंब से भुगतान होना, रिटायरमेंट

पर लीव इनकेशमेंट, जीपीएफ, ग्रेच्यूटी, कम्यूटेशन का महीनों बिलंब से भुगतान होना और तमाम ऐरियर्स का भुगतान भी सालों तक टाला जाना। जबकि कार्यरत कर्मियों को सब कुछ ससमय मय ब्याज के भुगतान हो जाता है। कोई दस महीने पहले भी ये पेंशनर इन्हीं मांगो को लेकर आये थे। इस आश्वासन पर उठ गये थे कि महीने भर में सब ठीक हो जायेगा। मगर मिला बाबा जी का ठुल्लू। अब फिर जमा हुए हैं। पिछली बार शामिल कुछ पेंशनर और फैमिली पेंशनर इसमें नहीं हैं। वो तस्वीर बन चुके हैं। कुछ मिलने की हसरत दिल में ही रह गयी।

Thursday, March 20, 2014

इस शहर में धूंआ-धूंआ सा क्यों है?









-वीर विनोद छाबड़ा
उस दिन अख़बार में ख़बर छपी कि शहर के एक पाॅश इलाके में एक दुकानदार द्वारा फुटपाथ पर कूड़ा जलाने पर आस-पास के तमाम दूसरे दुकानदारों और दीगर सिटीज़न ने सख़्त एतराज़ किया। ये ख़बर पढ़ कर बंदा बेहद खुश हुआ। उसे विश्वास हो चला कि आख़िरकार समाज जाग रहा है। खुले आम यूं कूड़ा जलाने से निकलते उठते धूंए से इंसान की सेहत पर पड़ रहे नुक्सान की फ़िक्र अब समाज के कुछ अलंबरदारों को हो चली है।

अभी कुछ दिन पहले की बात है। कई बार मना करने के बावजूद उस अलसुबह बंदे के पड़ोसी सियाजी ने घर का ढेर सारा कूड़ा-करकट, जिसमें उनके लाॅन व आंगन की सूखी घास, रद्दी काग़ज, प्लास्टिक का टूटा-फूटा सामान, घिसा-फटा साईकिल का टायर, टूटा-फूटा फर्नीचर आदि शामिल था, अपने घर के द्वारे पर जलाया था। इसका बदबूदार रसायनज्ञी धूंआ खुली खिड़की के रास्ते से बंदे के घर भर में फैल गया था। चूंकि बंदा अस्थमा के अलावा अन्य नाना प्रकार की व्याधियों से पीड़ित था, अतः उसे बेतरह खांसी के साथ-साथ सांस लेने में भी दिक्कत होने लगी थी। बदन भी बुरी कांपने लगा था। इन्हेलर, नेबुलाईज़र द्वारा दी गयी डाक्टर की प्रेस्क्राईब्ड दवाएं भी कारगर सिद्ध नहीं हो पायी थीं। ऐसे में उनकी बड़बोली और मोहल्ले में आतंकी स्वभाव के लिये मशहूर पत्नी को मानों टेलर मेड पिच मिल गयी हो। उसने सियाजी को चुनींदा असंसदीय शब्दों के बाणों से बींध दिया। शायद ये बाणबाजी सियाजी की पिटायी में कनवर्ट होती कि इस बीच बंदे की तबीयत ज्यादा ही बिगड़ गयी। पत्नी ने झगड़े पर क्रमशः लगाया और अन्य पड़ोसियों की मदद से उन्हें सबसे नज़दीकी चिकित्सालय ले गयी। जहां बंदे को आक्सीजन देने के साथ-साथ तमाम ज़रूरी इंजेक्शन लगा कर कर बामुश्किल उसकी जिंदगी को पटरी पर लाया जा सका था।

बंदा जनता-जनार्दन के ज्ञानवर्द्धन के लिये अक्सर बताता था कि धूंए से थोड़ी बहुत एलर्जी तो सभी को होती है, चाहे ये मामूली सूखी घास-फूस से उठा धूंआ हो या किसी रसायनज्ञ पदार्थ से। चूंकि रसोई में खाना बनाने से उठा धूंआ भी अनेक सांस संबंधी दिक्कतों का सबब बनता है, इसीलिये एग्ज़ास्ट या फ्रेशऐयर फैन आजकल ज़रूरी फैशन बन चला है। बंदे का तो धूप-अगरबत्ती परफ़्यूम की महक से तथा सड़ांध से भी दम घुटता है। पिछले कई महीनों से बंदा सुबह की सैर पर भी इसलिये नहीं जा रहा है, क्योंकि बहुत से लोग नियमित रूप घर का कूड़ा सफाईकर्मी के हवाले की बजाये खुद ही जलाने में यकीन रखते हैं। खासतौर पर जब पतझड़ का मौसम होता है तो पड़ों से गिरे सूखे पत्तों का ढेर जलाने में कई लोगों को न जाने क्यों एक आंतरिक सुख की अनुभूति होती है। यों सफाईकर्मी भी कुछ कम नहीं हैं। कूड़ा-करकट ढोकर नियत स्थान पर फेंकने की बजाय उसे आस-पास में ही जला डालते हैं। ऐसा भी होता है कि कूड़ेदान में काग़ज-पत्तर आदि को फूंक दिया जाता है ताकि ये उड़-उड़ कर आस-पास दोबारा न फैले। मगर इसका उल्टा असर होता है। जले कूड़े के धूंए के साथ-साथ इसकी राख़ भी आस-पास के वातातरण को प्रदूषित करती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि तेज हवाओं के सहारे धूंए के साथ उठी एक अदद चिंगारी भी आस-पास के कई आशियाने व कारोबार ख़ाक़ कर देती हैं। खासतौर पर अंधड़ जब चलता है तो मजदूरों की झुग्गी-झोंपड़ियां धूंए से उठी इन चिंगारियों की पसंदीदा चारागाह बनती हैं।

Sunday, March 16, 2014

घरौंदों को लौटते परिंदे









-वीर विनोद छाबड़ा
जब भी तीज-त्यौहार के दिन आते हैं तो बड़े शहरों से बाहर जाने वाली की हर बस, ट्रेन, यहां तक कि वायु और जल मार्ग पर उपलब्ध यातायात के तमाम साधनों में भी जगह पाने के लिये भारी भीड़ उमड़ती है। कभी-कभी तो जगह के लिये मारा-मारी तक की नौबत आती है। बाखुशी ज्यादा किराया देने की व्यग्रता भी है। ये भीड़ अपने-अपने गावों में, कस्बों में, छोटे शहरों की ओर लौटने वालों की होती है जिन्हें त्यौहारों पर अपने रीति-रिवाज, धर्म-कर्म के बहाने अपनी जड़ों की याद आती है, अपने पुरखों की याद आती है, जिनसे उनका जन्म हुआ है और जिनका खून उनकी रगों में गर्दिश कर रहा है। उन घरों की याद आती है जहां वे पैदा हुए थे, उस ज़मीन की गंध की याद पुलकित करती है, जिस ज़मीन पर उनके घर बने हुए है। उस जमीन की माटी पर पैर रखते ही, उसे छूते ही उन्हें अपने पुरखों की गंध महसूस होती है उनकी रूहों के वहीं कहीं ‘होने‘ का अहसास होता है। उनकी आखें में साफ़-साफ़ पढ़ा जा सकता है कि इसे पाने की चाहत उनमें इतनी तीव्र होती है कि जानते-बूझते हुए भी वो परवाह नहीं करते कि वहां खंबों पर लटकती तार होगी मगर उसमें बिजली नहीं दौड़ रही होगी। पाईप लाईन में पानी नहीं होगा। गंदगी से बजबजाती नालियां होंगी। टूटी-फूटी सड़कें होंगी जिसमें कई जगह गहरे गहरे गड्डे होंगे। गलियां में भी इंटें भी उखड़ी मिलेंगी। कुल मिला कर तमाम ज़रूरी नागरिक सुविधाओं का सर्वथा अभाव होगा। इन सबके बावजूद उन्हें अपने मुलूक, अपने घर से बेसाख्ता प्यार है, जैसा भी टूटा-फूटा है, है तो अपना ही। और इसके दर्शन करने के लिये उनकी बेताबी इतनी ज्यादा है कि इसके लिये वे कोई भी कीमत अदा करने के लिये आतुर दिखते हैं।

Thursday, March 13, 2014

अक़्ल बड़ी या भैंस से बंदूक बड़ी या कलम तक!





- वीर विनोद छाबड़ा
अक़्ल बड़ी या भैंस? बचपन से सुनते आये हैं। सबको मालूम है कि अक़्ल ही बड़ी है। फिर भी बहस जारी है। अच्छी तरह ये ये मालूम होते हुए भी कि अंततः अकल ही जीतेगी। लेकिन उल्टी गंगा बहाने में माहिर आशावादी कवायद में लगे है। वो सुबह कभी तो आयेगी जब भैंस अक़्ल से बड़ी कहलायेगी। ये बात तब पुख्ता हुई जब एक मंत्री जी की भैंसे चोरी हो गयी और सारा महकमा लाखों रुपये की अक़्ल खर्च कर भैंसे ढूंढ़ लाया। अरे जितने रुपये भैंस ढूंढ़ने में अक़्ल पर खर्च कर दिये इतने में खोयी भैंसों से ज्यादा भैंसे आ जातीं। बहरहाल, सत्य की जीत हुई।

अब वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य देखिये। चैनल पर खबर न ठीक से सुनी, न देखी और न लाईनों के भीतर देखने की कोशिश की। सिर्फ फोटो व बाईट देखा और उत्तेजित हो गये। चल पड़े लाठी-डंडा उठा कर मैदान में दो-दो हाथ करने। जैसे दिखाने-सुनाने वाले वैसे ही देखने-सुनने वाली पब्लिक पैदा हो गयी है। कोई दहाड़-दहाड़ कर खुद को सुुनामी बता रहा है तो कोई राबिनहुड की तरह भष्टाचार और अपराध को झाड़ू से बुहारने की बात कर रहा है। ये देख-सुन कर बंदे का दिल वेदना से बहुत भीतर तक कराह उठता है। वो ज़माना देखा है उसने जब कहा जाता था कि झूठ बोलना पाप है। इस सामाजिक मूल्य पर प्रहार करने वाले को निरा मर्ख माना जाता था, हिकारत का पात्र घोषित कर दिया जाता था। ऐसे ही चोरी अपराध है। अब देखिये कैसी उलटी गंगा बह चली है। मूल्य पलटे जा रहे है। कोई वेल्यू ही नहींे रही। लड़का ऊपर से कितना कमा रहा है? खुले आम पूछा जा रहा है। पहले इस ऊपरली कमाई पहले बड़े डर डर कर टेबुल के नीचे से ली जाती थी। अंडरहैंड डील।

ज्ञान चक्षु खोलने के लिये बड़े बड़े संत महात्मा पैदा हो रहे है। अरे बाबा रे, ज्ञान का विपुल भंडार हर व्यक्ति के भीतर पहले से मौजूद है, बस तनिक झांक कर देखिये तो। कोई चैलेंज करने की गुस्ताखी नहीं कर सकता था। मगर ये भी अब बिकाऊ हो गया। बेचने वालों की एक छोटी सी ज़मात फिलहाल जेल में चक्की पीस रही है। मगर पब्लिक है कि मानती नहीं। उन्हें यकीन है कि भगवान सलाखों के पीछे ज्यादा दिन नहीं रह सकते। कृष्ण जी भी बाहर आये थे, कितना आंधी-तूफान था। जमुना जी पूरे ऊफान पर थीं। कलयुग जायेगा। देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान कि कितना बदल गया इंसान। भगवान को सलाखों के पीछे डाल दिया है।

Monday, March 10, 2014

पुराना सोना खरा सोना यानि ओल्ड इज़ गोल्ड!

-वीर विनोद छाबड़ा
इंडिया में सिनेमा का इतिहास सौ साल की उम्र पार कर चुका है मगर यहां बात साठ-सत्तर साल पहले के हिंदी सिनेमा से शुरू कर रहा हूं,, क्योकि इससे पहले का युग मैंने देखा नहीं है। री-रन में भी इक्का-दुक्का फ़िल्में देखीं। हां, बचपन की धंधुली यादों में से एक नज़ारा याद आता है। चालीस के दशक में बनी ‘शाहजहां’ का कंुदन लाल सहगल पर फिल्माया व गाया गाना रेडियो पर बज रहा था- हम जी के क्या करेंगे जब दिल ही टूट गया....और मेरे चाचा भावुक होकर गए दीवार पर सिर पटक रहे थे। अपनी
कमीज़ तक फाड़ दी थी। यानि सिनेमा से पागलपन की हद तक बाज़ लोगों का जुड़ाव था। और इसका असर समाज पर भी था। बेहद भावुक था उन दिनों का समाज। बहरहाल, यों सबको अपने युग से ज्यादा प्यार होता है। मुझे भी लगता है कि मेरा युग सोना था और आज की पाढ़ी को भी अपने युग के बारे में यही गुमान है। एक बात काॅमन है कि फिल्में तब भी ढेर बनती थीं और आज भी बनती हैं। दो राय नहीं कि आज तकनीक बहुत बेहतर हुई है कल के मुकाबले। दरअसल मेरे युग में साधन के अलावा पैसा भी ना के बराबर था। शूट के लिए राॅ-स्टाक तक के लिए विदेशी मुद्रा की ज़रूरत होती थी जिस पर सरकारी कंट्रोल था। आज नए नए विषयों पर सोचा जा रहा है और बड़े बोल्ड अंदाज़ में उन पर फ़िल्में भी बन रही हैं। फ़िल्म की लंबाई भी छोटी हुई है। याद आता है साठ-सत्तर के ज़माने में जब विदेशी फ़िल्मों की तर्ज़ पर कोई कम लंबाई की फ़िल्म बनाने की बात करता था तो उसे हिकारत की निगाह से देखा जाता था। आज दावा हैं और जिसमें दम भी है, कि सिनेमा रीअल्टी के ज़्यादा करीब है। पसंद करने वालों की तादाद भी अच्छी-खासी है, मगर कुछ बाक्स आफिस पर बिना शोर-शराबा किए गायब भी होती हैं, जैसे ‘शाहिद’, जो यकीनन लाजवाब है। कुछ मालामाल होती हैं, जैसे पान सिंह तोमर, भाग मिल्खा भाग,
बिल्लू आदि। इन पंक्तियों के लिखते वक़्त खबर है कि राकेश रोशन की ‘कृष-3’, जो उनकी पिछली फ़िल्म का सीक्वेल है, ने तकनीक के मामले में बालीवुड की सुपरमैन टाईप साईंस फिक्शन सिनेमा को चुनौती दी है। शायद ये बाक्स आफिस पर आल टाईम इंडियन रेकार्ड भी बनाए। मगर तकनीक के ज्यादा प्रयोग से भावनाओं का नुक्सान होता है उसका भी कृष-3 नमूना है।

Saturday, March 8, 2014

होमी मास्टर-....और निकाल दी हीरो की हेकड़ी!

-वीर विनोद छाबड़ा
हिंदी सिनेमा का शुरूआती इतिहास मैं जब तब खंगालता हूं तो किसी तिलस्मी दुनिया में खुद को विचरण करता हुआ पाता हूं। उस ज़माने में हर शख्स खासी मेहनत-मशक्कत के बाद ही इस तिलस्मी दुनिया में जगह बना पाता था, जहां सपने सच में तब्दील होते थे, चमत्कार घटित होते दिखते थे। लिहाजा़ हर शख्स की जिंदगी में ढेर रोमांचक व दर्दभरी कहानियां और एक-दो उपन्यास ज़रूर मिलते

थे। उस दिन सफे़ पलट रहा था कि निगाह होमी मास्टर के नाम पर टिक गयी। इनका नाम सुना हुआ लगा। याद आया। बंबई में मेरे दोस्त थे आनंद रोमानी। तुम हंसी मैं जवां, खलीफ़ा, अर्चना आदि कोई दर्जन भर फिल्मों के संवाद लिखे थे। उन्होंने मुझे होमी मास्टर का एक किस्सा सुनाया था। मेरी जिज्ञासा बढ़नी स्वाभाविक थी। समंदर में कई बार गोता लगाया तो कुछ जानकारी हासिल हुई पहले उसे पेश कर रहा हूं। बाद में किस्सा।

होमी मास्टर ने जैसे ही होश संभाला वो बाटीवाला के मशहूर पारसी थियेटर में शामिल हो गये थे। उस वक़्त उनकी उम्र महज़ 13 साल की थी। वो दौर मूक फिल्मों का था। मगर सिनेमा की कशिश दिन दूनी और रात चैगुनी बढ़ रही थी। बहरहाल, होमी थोड़ा और बड़े हुए तो इनकी लियाकत से कायल होकर उनके पास यूरोप जाने का प्रस्ताव आया, जहां उन्हें दादा साहब फाल्के की फिल्मों की मार्किटिंग करनी थी। मार्किटिंग की लाईन उन्हें पसंद नहीं थी। मगर यूरोप जाने की ललक ने उन्हें हां कहने पर मजबूर कर दिया। यूरोप में उन्हें मज़ा नहीं आया। मन फिल्म मेकिंग की ओर लगा हुआ था। जल्दी ही भारत लौट आये। 1921 से 1949 तक फिल्म निर्माण के विभिन्न इदारों में सक्रिय रहे। इस दौरान 65 से ज्यादा हिंदी और गुजराती की मूक और बोलती फिल्में निर्देशित की। चार फिल्मों का लेखन किया और तीन फिल्मों में अभिनय भी किया। इसमें 20 फिल्में सुपर हिट रहीं। इनमें ज़्यादातर ’बी ग्रेड’ थीं। वो बी ग्रेड फिल्मों के बेताज बादशाह थे।

होमी मास्टर फ़िल्मों को ड्रामाई अंदाज़ में पेश करते थे। दरअसल वो दौर ही ऐसा था। फ़िल्मों पर थियेटर का असर बहुत ज्यादा था। फ़िल्मों के आने से पहले मनोरंजन के लिये थियेटर का चलन था। फिर जब फ़िल्मों का वक़्त शुरू हुआ तो थियेटर वालों ने ही फ़िल्में बनानी शुरू कर दी । ज्यादातर डायरेक्टर व आर्टिस्ट भी थियेटर से आते थे। होमी मास्टर ने ज़्यादातर फ़िल्में थियेटर करने वाली कोहिनूर कंपनी के लिये बनायी थीं। मूक फ़िल्म ‘काला नाग’ (1924) में वो हीरो भी बने। यह बेहद कामयाब रही। इनकी फ़िल्में मार-धाड़ के अलावा सामाजिक और धार्मिक विषयों की पृष्ठभूमि में बनती थीं। होमी मास्टर की गिनती बड़े कड़क व सख़्त मिजाज डायरेक्टरों में होती थी। मजाल नहीं थी कि कोई हीरो-हीरोईन ज़रा सी चूं- चपड भी कर दे कि उसके डायलाॅग में फलां लफ़्ज हटा दिया जाये या बढ़ा दिया जाये। एक बार फाईनल कर दिया गया सीन कतई बदलते नहीं थे। उनकी मक़बूल फिल्मों में घरवाली, जय रणछोड़, चमकारी बिजली, घर जमाई पार्ट-एक, घर जमाई पार्ट-दो, समझ की भूल, गुल सनोवर, दो घड़ी की मौज, नया ज़माना, हूरे मिó, जय बजरंग, शाही फ़रमान, शीरीं फरहाद आदि थीं। उनकी कामयाबी में लेखक मोहन लाल दवे और डी.डी. दाबके की बराबरी की हिस्सेदारी थी। मुफ़लिसी से कामयाबी और फिर मुफ़लिसी का दौर देखा। वो ज़िंदगी के आखिरी लम्हे तक काम करते रहे। 1949 में मौत के वक़्त वो कारदार स्टूडियो में प्रोडक्शन मैनेजर थे।

Sunday, March 2, 2014

फिर याद आ गयी वो भूली दास्तां!



-वीर विनोद छाबड़ा
आज़ादी से पहले, पंजाब के मियांवाली शहर में 03 मार्च, 1923 को जन्मा एक बंदा 7 अगस्त, 1947 को पत्नी शकुंतला और आठ महीने की मासूम बेटी शील के साथ लाहौर से जालंधर के लिए रवाना होता है। हिंदुस्तान की आज़ादी और तक़सीम के साथ पाकिस्तान के बनने की तारीख तय हो चुकी थी। हालात बेहद संगीन थे। हर तरफ आगजनी, क़त्लो-ग़ारत व अफ़रा-तफ़री का माहौल था। जान की सलामती के मद्देनज़र उस बंदे ने कुछ ज़रूरी सामान और कागज़ात समेटे। मकान पर ताला लगाया। चाबी अपने मुसलमान पड़ोसी को सौंपी, पूरी-पूरी इस उम्मीद के साथ कि जल्द ही दंगे ख़त्म होंगे, अमन-चैन बहाल होगा और वो अपने शहर, प्यारे शहर लाहौर लौटेगा, ताउम्र रहने के लिए। उस पड़ोसी ने बंदे को रेलवे स्टेशन तक पहुंचने में मदद भी की।

उन दिनों लाहौर से जालंधर और जालंधर से लाहौर की तरफ जाने वाली ज्यादातर ट्रनें लहुलुहान होकर पहुंचती थीं। ऐसे संगीन माहौल में संयोग से बंदा बिना किसी खरोंच के सपरिवार जाालंधर पहुंच गया। नवां शहर द्वाबा के एक रिफ्यूजी कैंप में पनाह मिली।

कुछ ही दिनों में साफ हो गया कि तक़सीम मुक़म्मल है और अब सरहदों के पार अपने घरों को लौटना मुमकिन नहीं हो पाएगा। खबर ये भी मिली कि जैसे सरहद के इधर खास-खास मोहल्लों, इलाकों और शहरों में मुसलमानों के घरों को लूट लिया गया है, जला दिया गया है, सरहद के उस पार हिंदुओं के घरों के साथ भी ठीक ऐसा ही सलूक हुआ है। यानि अब कुछ भी तो नहीं बचा है। जिनकी जानें बच गयीं वो शुक्र मनायें। ऊपर वाले की मेहरबानी है। तब बंदे की शुरू हुई जिंदा रहने के लिए ज़बरदस्त जद्दोज़हद।


खबर मिली थी कि बाप-दादा और तमाम रिश्तेदार मियांवाली से जालंधर के लिए रवाना हुए हैं, मगर यहां जालंधर में उनका कुछ अता-पता नहीं चला। पता नहीं वे ज़िंदा बच भी पाए हैं या नहीं! ऐसे असमंजस्य और टेंशन भरे हालात के बावजूद बंदा पत्नी व बेटी को एक रिफ्यूजी कैंप में छोड़ कर बनारस के लिए निकल पड़ा। दरअसल ऐसा करना मजबूरी थी। क्योंकि ख़बर मिली थी कि रेलवे में रिफ्यूजियों की खास भर्ती हो रही है। बंदा लाहौर की मुगलपुरा वर्कशाप में मुला़िज़म था। इसका सबूत वो रेलवे पास था जो उसने लाहौर छोड़ने वाले दिन लाहौर से जालंधर तक लिये जारी करवाया था। लिहाज़ा नौकरी मिल गई। बंदा पत्नी और बेटी को भी फौरन बनारस ले आया। कुछ अरसे बाद बंदे को अपने मां-बाप, भाई-बहनों और तमाम रिश्तेदारों की सलामती के बावत भी पता चल गया। बहरहाल बंदे के कुछ साल बनारस में गुज़रे।

बंदा महज़ हाई-स्कूल पास था, जो उस ज़माने के लिहाज़ से काफी था। मगर नस-नस में उर्दू इल्मो-अदब स्कूल के दिनों से ही लहू बन के ठाठें मार रहा था। कई नामी-गिरामी रिसालों में अफ़साने छप चुके थे। मगर अफ़सानानिगारी के फ़़न कोे तराशने के लिए बंदे ने इल्मो-अदब व गंगा-ज़मनी तहज़ीब का मरकज़ लखनऊ ज्यादा पसंद आया।