Saturday, April 29, 2017

साहित्य पढ़िये, रक्तचाप नियंत्रित होगा

- वीर विनोद छाबड़ा 
मेरे पढ़े-लिखे मित्र मुझसे अक्सर पूछते हैं कि तुम्हें इन साहित्यिक गोष्ठियों में कवियों की कविताओं में क्या दिखता है और क्या मिलता? रात-रात भर उल्लू की तरह जाग-जाग कर रिपोर्ट तैयार करते हो। कुछ पैसा-वैसा भी नहीं मिलता। इसलिये घरवाली चाय बना कर भी तुम्हें नहीं देती । खुद ही बना-बना कर पीते हो। 
मैं उसे बताना चाहता हूं कि मुझे आत्मिक सुख मिलता है। लेकिन बताता नहीं हूं। कौन दीवार पर सर फोड़े? क्योंकि मुझे मालूम है कि उसका अगला सवाल होगा कि यह आत्मिक सुख क्या होता है?
उसे समझ में नहीं आयेगा अगर मैं उसे बताऊं कि जो आत्मिक सुख उसे मंदिर में घंटी बजाने पर मिलता है वही सुख मुझे रिपोर्ट तैयार करने में मिलता है। 
मैंने साहित्य ज्यादा पढ़ा नहीं है। लेकिन सौभग्यशाली हूं कि एक से बढ़ कर एक साहित्यकारों को बहुत क़रीब से देखा है। गोष्ठियों में भी उन्हें देखता हूं। उनकी बातें सुनता हूं । आमजन की पीढ़ा पर उनके विचार सुनें हैं और उनको ठहाका लगाते भी देखा है। उनके विमर्श बड़े मयार पर फैले होते हैं। उनकी कही पंक्तियों के बीच में कुछ ऐसा होता है जिसको पढ़ने और समझने में बेहद मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन परमानंद की प्राप्ति होती है।
मैं रिपोर्ट को फेस बुक पर लगाता हूं, उन्हें ब्लॉग में भी प्रकाशित करता हूं। एक साप्ताहिक अख़बार में प्रेषित करता हूं। अपनी ओर से और अपनी तरह से, साहित्य को समुंद्र में एक छोटी सी बूंद समान एक छोटी सी सेवा है यह मेरी।
अख़बार में तो वक्ता के वक्तव्य को एक-दो पंक्तियों में समेट दिया जाता यही। मैं प्रयास करता हूँ लेखक का वक्तव्य ख़बर की तरह न लगे अपितु बाक़ायदा वक्तव्य लगे। दस्तावेज़ लगे।

Friday, April 28, 2017

अलविदा 'दयावान'

- वीर विनोद छाबड़ा
नई पीढ़ी ने शायद विनोद खन्ना की फ़िल्में नहीं देखी होंगी। यों फिल्मों में उनका दाखिला सुनील दत्त की 'मन का मीत' से हुआ था। दत्त साहब अपने भाई सोम दत्त को हीरो लांच करना चाह रहे थे। विलेन की तलाश में थे। कई नवागंतुकों का स्क्रीन टेस्ट लिया। विनोद खन्ना उनके दिल में बैठ गए। लेकिन मन में डर भी था कि डैशिंग और हैंडसम विनोद कहीं हीरो को हड़प न ले। और वही हुआ। फिल्म फ्लॉप, हीरो फ्लॉप। लेकिन विलेन चल निकला। यहां यह बताना ज़रूरी है कि आगे चल कर सुनील दत्त के बहुत करीबी रहे वो। दिक्कत के दौर में मुफ़्त काम करने के लिए भी तैयार रहे।

बहुत कम लोगों को मालूम है कि विनोद की पहली फ़िल्म 'नतीजा' थी। इस ब्लैक एंड व्हाईट फिल्म में वो नायक थे और बिंदु नायिका। वस्तुतः यह फ्लॉप फिल्म 'मन का मीत' से पहले बननी शुरू हुई थी। लेकिन रिलीज़ बाद में हुई। किसी ने इसे नोटिस भी नहीं किया। बहरहाल, विनोद पर विलेन का ठप्पा लग गया। आन मिलो सजना, सच्चा-झूठा, जाने-अंजाने, प्रीतम, रेशमा और शेरा, रखवाला, मेरा गांव मेरा देश, पत्थर और पायल, अनोखी अदा आदि अनेक फिल्मों में वो खलनायक दिखे। लेकिन इन फिल्मों के बीच पूरब और पश्चिम, मस्ताना, हंगामा, सौदा, गद्दार, हम तुम और वो आदि दर्जन भर से ऊपर फिल्मों में वो नायक या सह-नायक की भूमिकायें करते भी दिखे। यह ऐलान था कि खलनायक नहीं नायक हूं मैं।
यह सोलह आने सच है कि जब कलाकार गुणी निर्देशक के हत्थे चढ़ता है तभी वो मंझता है। विनोद खन्ना को गुलज़ार ने 'मेरे अपने' और फिर 'अचानक' से नई इमेज दी। सिर्फ नायक की नहीं बल्कि एक संजीदा कलाकार की। 'मेरे अपने' में वो कुंठित युवा किरदार में जान फूंक रहे थे और  'अचानक' में वो एक भगोड़े आर्मी अफसर थे, जिसने अपनी पत्नी और उसके बॉयफ्रैंड का खून कर दिया और फिर खुद को कानून के हवाले कर दिया। यह फिल्म साठ के दशक के प्रसिद्ध नानावती-प्रेम आहूजा केस पर आधारित थी और सुनील दत्त इस पर एक हिट फिल्म 'यह रास्ते हैं प्यार के' बना चुके थे।
विनोद खन्ना को विलेन के चोले से अंततः मुक्ति दिलाई 'इम्तिहान' के शिक्षक ने। उन्हें पीछे मुड़ कर देखने की ज़रूरत नहीं रही। कच्चे धागे, हाथ की सफाई, शक़, मैं तुलसी तेरे आंगन की, लहु के दो रंग, कुर्बानी, दि बर्निंग ट्रेन, कुदरत, राजपूत, दयावान, चांदनी आदि फिल्मों की लंबी सूची है, जिसमें विनोद खन्ना को अपने समकालीन नायकों से ज्यादा पैसा मिला और शोहरत भी।

विनोद खन्ना की यह ख़ासियत थी कि उन फिल्मों में वो ज्यादा बेहतर परफॉर्म करते थे जिसमें 'मुक़ाबला' हो और वो भी अमिताभ बच्चन जैसे सुपर स्टार से - हेरा-फेरी, खून-पसीना, अमर अकबर अंथोनी, परवरिश और मुकद्दर का सिकंदर। स्क्रिप्ट भले अमिताभ के साथ हुआ करती थी, लेकिन विनोद खन्ना उससे ऊपर उठ कर परफॉर्म कर रहे होते थे। इसका सबूत सिनेमाहाल में विनोद खन्ना के हक़ में बज रही तालियों की गूंज होती थी।
उन्होंने एक से बढ़ कर एक बढ़िया परफॉरमेंस दी, रील में अपने को-स्टार्स पर भारी पड़ते दिखे, लेकिन रीयल लाईफ़ में वो लो-प्रोफ़ाईल अपनाते रहे। नेकी कर और दरिया में डाल। इसीलिए उन्हें उनके हिस्से का वाजिब सम्मान नहीं मिला। सिर्फ एक बार 'हाथ की सफाई' के लिए श्रेष्ठ सह-अभिनेता का फिल्मफेयर अवार्ड मिला। और छोटे-मोटे कुछ और अवार्ड्स। फिर कैरियर के आखिर में लाइफ़टाईम अचीवमेंट अवार्ड।

Thursday, April 27, 2017

काली फ़िल्म के मायने।

-वीर विनोद छाबड़ा
एक सिपाही ने फलां रसूखदार को मशविरा दिया - शीशों पर चढ़ी काली फ़िल्म उतरवा दें। यह जुर्म है। 
रसूखदार ने बिगड़ कर वज़नदार धमकी दी - देख लूंगा....वर्दी उतरवा दूंगा... 
मगर कानून के रखवाले जांबाज़ सिपाही ने काली फिल्म उखाड़ फेंकी।  
खब़र पढ़ कर बंदे का सीना गर्व से फूल गया कि आखिर क़ानून का राज क़ायम हो ही गया।
मगर दूसरे ही दिन उस सिपाही का तबादला हो गया। सब्जबाग़ तो सिर्फ ख़्वाबों में आते हैं। काली फ़िल्म चढ़ी तमाम छोटी-बड़ी कारें व बसें शहर की तमाम सड़कों पर पुलिस को मुंह चिढ़ाती, ठेंगा दिखाती बदस्तूर सरपट दौड़ती फिरती हैं। लेकिन ट्रैफ़िक सिपाही को दिन में भी रतौंधी का दौरा पड़ जाता है।

शहर के कार सजावट बाज़ारों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। जब चाहें लगवा लीजिये। जब कभी प्रशासन का मूड कुछ खराब हुआ नहीं कि कोई खबरची कार बाजार को ख़बर कर देता है। उस दिन काली फिल्म, हूटर-हार्न और लाल-नीली बत्तियां किसी कोठरी में खुद को छुपा लेती लेती हैं।
काली फ़िल्म की दीवानगी के प्रति हमने पर्सनल सर्वे किया। पता चला कि काली फ़िल्म वाली गाड़ियों के मालिकान आमतौर पर असामान्य जीव हैं, इनकी सोच बीमार व काली है। इसमें खासी तादाद तो जनता के लिए और जनता द्वारा चुने लीडरों की है। काली फ़िल्म की आड़ में जनता से इसलिए मुंह छिपाए घूमते हैं कि जनता ये न पूछे- क्या हुआ तेरा वादा, वो क़सम वो इरादा?
लीडरों के चमचों की फौज है। जितनी मोटी और काली फ़िल्म सत्ता के गलियारों में उतनी ही ज़ोरदार धमक व ऊंची पहुंच। गाड़ियों की बोनेट पर राजनैतिक पार्टियों के झंडे भी। माहौल के हिसाब से झंडा बदल दिया। एक सिपाही से इस बावत पूछा तो उसका जवाब कुछ यों मिला- ये तो हमें भी मालूम है कि इसमें किस खाल में भेड़िया है? लेकिन क्या पता, कौन और कब वर्दी उतरवा दे
काली फ़िल्म के मायने ये भी हैं गाड़ी मालिक की सियासी के अलावा प्रशासन व पुलिस के वजनी महकमों में भी गहरी पैठ है।
काली फ़िल्म अमीरों की अमीरी के नशे के अहंकार की निशानी भी है।
कुछ निहायत भोले व मासूम बने मिले। भई, हमें तो इल्म नहीं था कि काली फ़िल्म लगाना गुनाह है। कार सजावटवालों ने फ्री में लगा दी तो भला क्यों मना करते? किसे फ्री का माल काटता है? ये तो दुकानदार को ही सोचना चाहिए था।
एक साहब ने काली फ़िल्म की ज़रूरत की हिमायत फैमिली प्राईवेसी के नाम पर की। चौराहे पर गाड़ी रुकी नहीं कि मनचले शोहदों का झंड ताक-झांक में जुट जाता है। ये बदतमीजी कैसे बर्दाश्त  करें?

Wednesday, April 26, 2017

न्यौता एक को, जाएंगे ढाई दर्जन!

-वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक सहकर्मी हुआ करते थे - ओमबाबू। निहायत विचित्र किस्म के।
जब भी किसी भी समारोह में मिलते परिवार के ढाई दर्जन सदस्यों के साथ। गिफ़्ट का लिफ़ाफ़ा १०१ या १५१ से अधिक कभी नहीं रहा। जाएंगे ज़रूर। चाहे बर्थडे पार्टी हो या मुंडन संस्कार। तिलक हो या लेडीज़ संगीत। यहां तक कि सत्यनारायण की कथा और अखंड रामायण को भी नहीं छोड़ा। हर समारोह के हर कार्यक्रम में पूरी श्रद्धा के साथ उपस्थित हुए।
न्यौता अकेले का हो या 'श्रीमती और श्री' का हो या विद फैमली का उनके साथ ढाई से पौने तीन या चार दर्जन तो हो सकती है मगर एक भी कम नहीं।
बरसों पहले किसी ने पूछा भी था - बुलाये अकेले जाते हो और पहुंचते ढाई.
वो बात काटते हुए काटने को दौड़े थे - सात फेरे लिए हैं पत्नी के साथ। हर दुःख-सुख में साथ रहने की कसम खाई है। कैसे भूल जाऊं उसे? जन्मजन्मांतर तक न सही, सात जन्मों तक तो मिनिमम साथ रहना ही है.और पांच पांच छोटे छोटे बच्चों को कुएं में धकेल दूं क्या? बुलाने वालों को शर्म नहीं आती सिर्फ पति पत्नी को न्यौता देते हुए।
और फिर घर आये मेहमानों से क्या कहूं आप घर बैठ कर बनाओ और खाओ हम तो पार्टी में डिनर उड़ाने जा रहे हैं।
अब जा ही रहे होते हैं तो पडोसी के उस बच्चे को छोड़ना इंसाफ नहीं है जो दिन भर हमारे घर में बच्चों के साथ लूडो खेलता है।
जब पडोसी का बच्चा ले जा सकता हूं तो भाई के बच्चे पराये तो हो नहीं सकते। बहन के बच्चे भी पड़ोस में रहते हैं। थोड़ा गरीबी में पले हैं। उनका भी तो दिल करता है पार्टी-शार्टी खाने का।
एक बात ये बताईगा, पूरी ईमानदारी से। इनविटेशन कार्ड के ऊपर आपने श्री ओमजी लिखा, अंदर मगर छपवाया - सपरिवार पधार कर वर-वधु को आशीर्वाद देने का कष्ट अवश्य करें। क्यों?

Tuesday, April 25, 2017

हाय मेरा पर्स घर में छूट गया!

-वीर विनोद छाबड़ा
घर से निकलने से पहले मैं सब चेक कर लेता हूं कि जेब में सब व्यवस्थित है।
चश्मा, रुमाल, मोबाइल, पर्स और कंघी।
एटीएम कार्ड नहीं रखता। बहुत कम इस्तेमाल करता हूं। डर लगता है कि कोई हैकर पीछे न लगा हो।
बहरहाल, कभी-कभी ध्यान हटने पर जाता है तो कुछ न कुछ भूल जाता हूं। सबसे ज्यादा गाज़ तो पर्स पर ही गिरी।

पत्नी साथ होती है तो चल जाता है। उस वक़्त वो जो 'सुनाती' है, सुन लेता हूं। गलती की है झेलना तो पड़ेगा ही न। चाहे हंस कर झेलो या गुस्सा होकर। हंस कर झेलना बेहतर है। सेहत भी बनी रहती है। महीनों ये टॉपिक अड़ोस-पड़ोस में और घर आये मित्र/मेहमान के समक्ष ऑटोमोड में रहता है। 
सबसे ज्यादा फजीहत पेट्रोल पंप पर होती है। पेट्रोल भरवा लिया। जेब में हाथ डाला तो पर्स गायब। घर पर छूट गया। उस वक़्त एटीएम कार्ड की कमी बड़ी शिद्दत से महसूस होती है। ऐसे में किसी दोस्त को फ़ोन करके पैसे मंगवा लेता हूं। जब कभी नंबर नहीं लगता तो गुस्सा आता है। एक बार मित्र बोला आगरा में हूं। एक घंटे बाद गोलगप्पे खाता दिखा। खिसिया कर बोला - मेरा मतलब आगरा मिष्ठान भंडार था। मैंने उसे अमित्र कर दिया। फिर से सुलह-सफाई के लिए पांच लीटर पेट्रोल भरा कनस्तर गिफ्ट कर गया। जहां से रेगुलर पेट्रोल लेता हूं। वो पहचानता है। ठीक है शाम तक दे दें। गाड़ी और मोबाइल नंबर नोट करवा दें।
एक बार ऑटो से ऑफिस जाना हुआ। आधे रास्ते ख्याल आया कि पर्स जेब में नहीं है। जल्दी से ऑफिस के एक दोस्त को फ़ोन किया। वो गेट पर आ गया। फज़ीहत होने से बच गयी।
कल तो गज़ब हो गया। ऑटो में बैठा। हज़रतगंज जा रहा था। एलआईसी के दफ्तर। एक मित्र से मिलने और काम भी था वहीं। उतरा तो पर्स नहीं। ऑटो वाले को सच बता दिया। एलआईसी ऑफिस करीब आधा किलोमीटर दूर था। अगर इंतज़ार कर सको तो दोस्त को बुलाता हूं। लेकिन ऑटो चालक को ऑटो में बैठी बाकी सवारी छोड़ने आगे जाना था। आमतौर पर ऑटो चालक बदतमीज़ माने जाते हैं। लेकिन इत्तेफ़ाक़ से मुसीबत के समय मुझे हमेशा अच्छे ऑटो चालक ही मिले।
ऑटो चालक मान गया - कोई नही जी। कल दे देना। मुंशीपुलिया से चारबाग़ रुट है मेरा। दिनेश कहते हैं मुझे।

Monday, April 24, 2017

आजा मेरी गाड़ी पे बैठ जा

- वीर विनोद छाबड़ा
सत्तर के दशक का शुरुआती दौर हमारे यूनिवर्सिटी दिन थे। पढाई कम, सपनों में टहलना और लफंटगिरी ज्यादा।

आवागमन के तीन ही साधन, बस, रिक्शा या साईकिल। स्कूटर और मोटरसाइकिल वाले और कारों वाले बहुत कम थे।   मगर पौ-बारह रहती थी इनकी। लड़कियों खूब लिफ्ट लेती थीं।   
हम जल-भुन कर राख हो जाते। लेकिन निराशावादी हम कभी नहीं रहे। अपनी साईकिल को देखते और कल्पना करते कि कभी न कभी तुझे पंख लगेंगे। हवा में उड़ेगी तू। तब हम शान से कहेंगे - ओ ख़ूबसूरत हसीना, आजा मेरी स्कूटर पे बैठ जा। बल्कि यह भी नहीं कहना पड़ेगा। लड़की खुद-ब-खुद बैठ जायेगी।
खैर, वो दिन भी आया। नौकरी लगी। शादी हुई। दहेज़ में स्कूटर लेना हमारी शान के विरुद्ध था। सच तो यह भी है कि वो तो हमसे भी कहीं ज्यादा फटीचर थे। बहरहाल, हमें ऑफिस से स्कूटर क्रय हेतु एडवांस मिला। लेकिन रक़म इतनी कम थी कि एक अदद मोपेड ही खरीद सके। यह पूरे नौ साल रही हमारे पास। इस बीच में हमारे आस-पास के माहौल में लड़कियों का दख़ल ख़त्म हो चुका था। महिलायें ही अपने को लड़की समझ कर इधर से उधर इतराती घूमती-फिरती थीं। चलिए, हमें यह भी मंज़ूर था। लेकिन इसके बावजूद किसी महिला ने लिफ़्ट नहीं मांगी। हम अपने दो बच्चों और एक अदद पत्नी को बैठा कर लखनऊ की सैर कराते रहे।
एक हमदर्द ने समझाया - अबे चूतिये, मोपेड वाले से भला कभी किसी लड़की या महिला को लिफ्ट मांगते हुए तूने देखा या सुना?

हमने माथा ठोंका - सही बात। यह तो हमने कभी सोचा ही नहीं।
संयोग से उन दिनों हमारे दफ़्तर में फिर स्कूटर एडवांस बंट रहा था। नंबर लग गया हमारा भी। सड़क पर नई-नई उतरी काईनेटिक होंडा ले ली। सुर्ख़ लाल रंग चुना, यह सोच कर कि ये रंग बहुत पसंद करती हैं महिलायें।
लेकिन हम फिर भी बदकिस्मत रहे। महिलाएं आजू-बाजू से निकल जातीं। नज़दीक एक भी न फटकी। किस्मत में पत्नी ही लिखी थी। उसी को लिफ्टवाली समझ कर टहलाते रहे।
एक अपवाद ज़रूर रहा। एक महिला ने लिफ़्ट मांगी थी। मगर उसने बीच में फाईल बोर्ड रख लिया। कहीं करंट न लग जाये। लेकिन आशा ने हमारा साथ कभी नहीं छोड़ा। हम होंगे कामयाब एक दिन, मन में हो विश्वास
जहां चाह, वहां राह। संयोग हम पर फिर मेहरबान हुआ। दफ़्तर में कार एडवांस बंटा। हमारा भी नंबर लग गया। हम कार वाले हो गए। फीनिक्स रेड मारूति ८०० हमारे दरवाज़े पर खड़ी हो गयी।
लेकिन सपना, सपना ही रहा। हम कार का दरवाज़ा खोल कर बैठे रहे। जैसी भी हो, आ जाओ। परंतु पत्नी के सिवा कोई महिला नहीं आई। हां मोहल्ले की दो-तीन महिलाओं को प्रसूति कराने ज़रूर ले गए। अब अगर इसे लिफ़्ट की श्रेणी में सम्मिलित किया जाए तो कुछ हद तक हम ज़रूर अपने उद्देश्य में सफल हुए।

दिलीप कुमार ने जुरमाना भरा

  - वीर विनोद छाबड़ा
Devika Rani
दिलीप कुमार ने अपना कैरियर 1944 में बॉम्बे टॉकीज़ से शुरू किया था। उन दिनों उन्हें बारह सौ रूपये महीना पगार मिलती थी। बढ़िया नौकरी थी। काम सिर्फ़ एक्टिंग करना था। शुरुआती दो महीने तो उन्हें काम ही नहीं दिया गया। मुफ़्त की खाते रहे। कहा गया, बस देखते रहो कौन कैसे काम करता है। स्टूडियो के मौहाल के मुताबिक ढालो खुद को।
उनकी मालकिन थीं देविका रानी। फिल्म इंडस्ट्री में उनकी तूती बोलती थी। बहुत कड़क और अनुशासन प्रिय। वो खुद भी बहुत अच्छी एक्ट्रेस थीं। बॉम्बे टॉकीज़ की ज्यादातर फ़िल्मों की नायिका वही होती थीं। दिलीप कुमार को उन्होंने ने ही पसंद किया था।
राजकपूर भी बॉम्बे टॉकीज़ में थे। दिलीप और राज दोनों का ताल्लुक पेशावर से था और उनके पारिवारिक संबंध भी थे। लिहाज़ा उनमें दोस्ती भी थी। जब भी मौका मिलता था तो फ़िल्म देखने निकल लिए। लेकिन एक ही थिएटर में कभी नहीं बैठे। जायका अलग अलग था। एक दिन राजकपूर फ़िल्म देखते पकड़े गए। सौ रूपए जुरमाना लग गया। दिलीप कुमार खुश कि वो बच गए।
Dilip Kumar
लेकिन दहशत तारी रही। लिहाज़ा कुछ दिन तक फ़िल्म देखना बंद रहा। महीना गुज़र गए। दिलीप कुमार ने सोचा कि अब तो बहुत दिन हो गए। देविका जी के ज़हन से अब तक सब कुछ निकल चुका होगा। यानी रात गई, बात गई। एक दिन मौका मिला और जा बैठे सिनेमा हाल में। शो ख़त्म हुआ। बड़े खुश खुश बाहर निकले। मगर सामने के नज़ारे ने उनके होश उड़ा दिए। देखा देविका रानी अपने कुछ मेहमानों के साथ खड़ी हैं, फिल्म का अगला शो देखने आयीं थीं। हक्का-बक्का दिलीप कुमार से उन्होंने कुछ नहीं कहा, अपितु बहुत खुश होकर अपने मेहमानों से मिलाया - ये खूबसूरत नौजवान हैं यूसुफ़ खान उर्फ़ दिलीप कुमार, हमारी अगली फ़िल्म के हीरो।
फिर उन्होंने अपने ड्राईवर से कहा - साहब को स्टूडियो छोड़ कर लौटो।
दिलीप कुमार ने सोचा कि जान बची, लाखों पाए। लेकिन जब उन्हें महीने के आख़िर में पगार मिली तो उसमें सौ रूपए कम थे।
बॉम्बे टॉकीज़ में एक्टर्स को बहुत सलीके से रहना पड़ता था, चाहे वो हीरो हो या हीरोइन या किसी भी स्तर का एक्टर। इसीलिए सब ढंग के कपड़े पहन कर आते थे। देखने में जेंटल दिखें। ओवर मेकअप की इज़ाज़त कतई नहीं थी। दिलीप कुमार को इसकी जानकारी नहीं थी। हालांकि वो सफ़ेद कपड़ों के शौक़ीन थे और आमतौर पर इसी ड्रेस में रहते थे। लेकिन उस दिन उन्हें जाने क्या सूझी कि रंगीन फूलदार शर्ट पहन कर स्टूडियो पहुंच गए। फ़ौरन सौ रुपया जुरमाना लग गया।

Saturday, April 22, 2017

चाची की बहु

- वीर विनोद छाबड़ा
ट्रेन छूट जाने के कारण हम अपने चाचा के बेटे राजीव की शादी में नहीं जा पाये थे।
अगली बार छह-सात महीने बाद दिल्ली जाना हुआ। पहुंचते ही चाची ने बतियाना शुरू कर दिया। घर-बाहर, अड़ोस-पड़ोस और अपने-पराये सब का हाल पूछ डाला। काफ़ी वक़्त गुज़र गया बतियाते। इस बीच एक लड़की आई। ठंडा ठंडा कूल कूल रूह-अफ़ज़ाह शरबत रखा। पांव छुए और चली गई। थोड़ा वक़्त और गुज़रा।
चाची ने पूछा - कैसी लगी हमारी बहु अल्का?
हमने कहा - अभी तक दर्शन ही नहीं हुए।
चाची ने थोड़े शिकायती लहज़े में कहा - वाह! क्यों मज़ाक करते हो? अभी आई तो थी। तुम्हारे पैर भी छुए थे उसने।
हमें हैरानी हुई - वो बहु थी? हमने तो ध्यान ही नहीं दिया। और आपने इंट्रोडक्शन भी नहीं कराया। हम तो सोच रहे थे कि बहु होगी, नई-नवेली सी दुल्हन की ड्रेस में, मेकअप की मोटी परत में और पायल बांधे, छम छम नचदी फिरां के मोड में।
दरअसल हम अपने यूपी वाली सोच के मोड में थे, जहां नव-ब्याहता साल-दो साल तक तो दुल्हन के मोड में रहती है। हमें तो ख्याल ही नहीं रहा कि हम दिल्ली में बैठे थे। वहां लड़कियां काम-काजी होती हैं। हाथ पे हाथ रखे नहीं बैठतीं।

Friday, April 21, 2017

हमारा बेस्ट क्रिटिक फ्रेंड

-वीर विनोद छाबड़ा
जब कभी दफ्तर के दो-चार पुराने यार मिल कर बैठते हैं तो महेश चंद्र सिन्हा की याद ज़रूर आती है। यारों के यार थे वो।
ऑफिस के ज्ञानी-ध्यानी ऑफिसर्स में गिनती थी उनकी। कई मामलों में वो हमारे आदर्श थे। सीनियर होने के नाते किसी खास मुद्दे पर उनसे सलाह लेना हमेशा फायदेमंद रहा। कई बरस तक हमने ऑफिस में एक ही रूम शेयर किया। लंच पार्टनर भी रहे। घर-बाहर, देश-विदेश हर टॉपिक पर गर्मागर्म बहस होती थी उनसे। हम मानते थे हम एक-दूसरे के बेस्ट क्रिटिक हैं।
वो धुआंधार सिगरेट पीते और पिलाते थे। एक निजी काम से वो अमृतसर गए। वहां स्वर्ण मंदिर भी गए। पांच-छह घंटे वहां बिताये। वहां के पवित्र वातावरण ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। सोचा सिखों के इतने बड़े तीर्थ आया हूं तो एक-आध बुराई छोड़ कर ही जाऊंगा। ख्याल आया कि सिख भाई सिगरेट से सख्त घृणा करते हैं। छत्तीस साल पुरानी बुराई एक झटके में छोड़ दी। उनके इस त्याग से मेरे हमको भी सिगरेट छोड़ने की प्रेरणा मिली। 
हमने अक्सर नोटिस किया है कि ये ज्ञानी-ध्यानी लोग ज्ञान बांटने के चक्कर में अपने शरीर को जाने-अंजाने तक़लीफ़ देते रहते हैं। एक दिन सिन्हा जी के दांत में दर्द उठा हुआ। फुटपाथिए दन्त चिकित्सक के पास पहुंच गए जहां से हम बामुश्किल उन्हें खींच कर लाये। लेकिन भाई माने नहीं। किसी झोलाछाप डॉक्टर से दवा ले आये। वही हुआ। दर्द बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की। आख़िरकार स्पेशलिस्ट की शरण में जाना। तब तक दो दांत जवाब दे चुके थे। उन्होंने जानवरों के डॉक्टर के पास जाने में भी परहेज़ नहीं किया। जबकि पत्नी उनकी एक सरकारी अस्पताल में स्टाफ़ सुपरिंटेंडेंट थी। इस नाते तमाम नामी डॉक्टर उनसे परिचित थे।
सिन्हा जी हमसे तीन बरस बड़े थे। पहले रिटायर हुए। अक्सर भेंट होती रहती थी। एक कार्य विशेष के लिए उन्हें ऑफिस ने छह महीने कॉन्ट्रेक्ट दिया। कुछ दिन वो नहीं आये। चिंता हुई। फ़ोन किया तो पता चला कि अस्वस्थ हैं। खैर, करीब पंद्रह दिन बाद वो आये।
बताने लगे - पेट में थोड़ा दर्द था। इधर-उधर के घरेलु नुस्खे और अपनी डॉक्टरी आजमाई। जब दर्द बढ़ा तो भागे डॉक्टर के पास। जॉन्डिस शक़ किया गया। दवा दी और कुछ टेस्ट बताये। दवा तो उन्होंने ले ली। लेकिन टेस्ट नहीं कराये। कहने लगे सब धंधा है डॉक्टरों का। कमीशन के चक्कर में ये टेस्ट वो टेस्ट और महंगी-महंगी दवायें। अब सब ठीक-ठाक हो गया है।
दूसरे दिन पता चला कि भाई के पेट में फिर दर्द उठा है। एमआरआई में लीवर प्रॉब्लम दिखी है। इलाज़ चला। कुछ दिन बाद ठीक हो गए।

परवरिश में कमी रह गयी

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक साथी हैं, साधुराम जी। जैसा नाम, वैसा ही स्वभाव और दिल भी। कहते है, ज़िंदगी में हंसी और शांति से बड़ी कोई नेमत नहीं।
बावजूद इसके कि साधुराम की एक छोटी सी परचून की दुकान थी, ज़िंदगी में जो चाहा उन्होंने पाया। अच्छी पत्नी उर्मिला। एक नन्ही प्यारी बेटी हर्षा। और एक छोटा सा मकान। कुल मिला कर अच्छी कमाई। लेकिन जितना पाया उतना गंवाया भी। उर्मिला एक एक्सीडेंट में चल बसी। जाते-जाते तीन साल की हर्षा को झोली में डालते हुए कह गयी - पहाड़ सी ज़िंदगी अकेले नहीं बिता पाओगे। दूसरी शादी कर लेना। लेकिन हर्षा का ध्यान रखना तुम्हारी पहली ज़िम्मेदारी है।
लेकिन साधुराम ने उर्मिला की याद को बनाये रखने खातिर ताउम्र दूसरी शादी नहीं की। मां बन कर हर्षा को पाला। उसे डॉक्टर बनाया। उसका सहपाठी था, डॉ अरविंद। उसे वो बहुत पसंद करती थी। दोनों की बड़ी धूमधाम से शादी भी की। धन्य हो गए साधुराम जी। जैसा चाहा था उससे भी बढ़कर निकला दामाद। बिलकुल देवता समान। शादी के बाद दोनों हैदराबाद चले गए। बहुत बड़े अस्पताल में जॉब मिल गयी।
बेटी-दामाद ने आग्रह किया - पापा, हमारे साथ रहिये।
लेकिन साधुराम ने मना कर दिया। तुम दोनों की ज़िंदगी में मेरा क्या काम? मैं यहां लखनऊ में ठीक हूं। अच्छे मित्र हैं, पड़ोसी और एक बेहद फ़िक्र रखने वाला किरायेदार भी। और नाते-रिश्तेदार भी तो सब यहीं हैं।
समय बहुत अच्छा गुज़रता रहा। साधुराम करीब पचहत्तर साल के होने को आ गए। उन्हें लगा कि उम्र का यह वो पड़ाव है, जब उन्हें बेटी-दामाद के पास रहना चाहिए। सब कुछ तो वही है। बाकी बचा प्यार उस पर लुटा देना चाहिए। ऊपर जाकर उर्मिला को हिसाब भी तो देना होगा। उन्होंने वसीयतनामा तैयार किया, सारी संपत्ति बेटी-दामाद के नाम, चल और अचल दोनों ही।
और पहुंच गए हैदराबाद। बेटी-दामाद और उनके दो बच्चे - एक बेटा और एक बेटी - उन्हें रिसीव करने एयरपोर्ट आये। बहुत खुश हुए वो सब। तीन बेडरूम का फ्लैट था उनका। एक में बेटी-दामाद, एक में बच्चे और एक में साधुराम एडजस्ट हो गए। कुछ दिन सब कुछ बहुत अच्छा चला।
एक दिन साधुराम ने हर्षा को अपनी मंशा बताई कि सोचता हूं ज़िंदगी के बाकी दिन तुम लोगों के साथ ही बिता दूं। इस पर बेटी-दामाद ने बहुत ख़ुशी ज़ाहिर की।
कुछ दिन और गुज़रे। बेटी और दामाद दोनों को अमेरिका में जॉब मिल गयी, एक बहुत बड़े हॉस्पिटल में। बच्चों के अच्छे स्कूल में एडमिशन का मिलना भी तय हो गया। लेकिन जब वीज़ा के लिए आवेदन का वक़्त आया तो बेटी ने कहा - सॉरी पापा। आप हमारे साथ नहीं चल सकते। अभी तो हॉस्पिटल ने छोटा सा दो कमरे का फ्लैट प्रोवाईड किया है। इतने में प्राईवेसी मैंटेन करना बहुत मुश्किल है। और फिर हॉस्पिटल ने सर्विस कॉन्ट्रैक्ट में मां-बाप को शामिल नहीं किया है। मजबूरी है। आपको बाद में बुला लेंगे, जब हम अपने बड़े से घर में शिफ्ट होंगे। तब आप को हम एक ओल्ड ऐज रिसोर्ट में शिफ्ट किये देते हैं। वहां आप जैसे बहुत लोग हैं। मन लगा रहेगा।

Wednesday, April 19, 2017

मेमसाब का बंदरों से है रिश्ता पुराना

- वीर विनोद छाबड़ा
मेमसाब उस दिन शाम वो बाजार करके लौट रही थीं। कंधे पर लटके झोले में भरे सामान से लदी-फंदी। कुछ सामान हाथों में भी था। इसमें एक पोलीथीन बैग में दर्जन भर केले और दूसरे हाथ में मिठाई का डिब्बा।
अचानक पीछे से एक बंदर आया और उसने केले वाला बैग उनके हाथ से छीना और भाग खड़ा हुआ। 
मेमसाब कुछ समझ ही नहीं पायीं। उन्हें ऐसा लगा जैसे कोई बच्चा है, जो शरारत कर रहा है।
आस-पास खड़ी कुछ महिलायें ये तमाशा देख रहीं थीं। वो बंदर को केले का बैग छीन कर भागते हुए देख ज़ोर से हंसी।
तब मेमसाब को अहसास हुआ कि कहानी कुछ और ही है। वो पलटीं। देखा, एक बंदर केले का बैग लेकर भाग रहा है।
देखते ही देखते बंदर एक मकान की ऊंची बॉउंड्री वाल पर जा बैठा और केले छील कर खाने लगा।
मेमसाब 'हट हट' करती रहीं। अब फुदक कर दीवार पर तो चढ़ नहीं सकती थीं।
इधर बंदर कहां मानने वाला। इतने में तीन-चार बंदर और आ गए। आपस में छीना-झपटी शुरू हो गयी।
मेमसाब के सामने घुटने टेकने के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं रहा - मंगल का दिन है। चलो माफ़ किया। समझेंगे कि हनुमान जी को चढ़ावा हो गया। 
यों हमारी मेमसाब बहुत हल्की-फुल्की हैं। शुक्र है कि बंदर उन्हें उठाकर नहीं ले गया।
वैसे हमारी मेमसाब का बंदरों से पुराना रिश्ता है। उनके मायके में भी बंदरों का आना-जाना लगा रहता था। एक बार हम उनके घर में बैठे चाय सुड़क रहे थे। एक प्लेट में कुछ बिस्कुट भी सामने रखे थे। बंदर आये और बिस्कुट उड़ा कर ले गए थे। बिस्कुट चुंकि घटिया क्वालिटी के थे, इसलिए हमें कतई अफ़सोस नहीं हुआ था। बल्कि बचे हुए दो बिस्कुट भी हमने उनके हवाले कर दिए थे।
बहरहाल, विवाह पूर्व मेमसाब को कितनी बार बंदरों ने काटा, यह ब्यौरा ससुरालवालों ने तो हमारी तमाम कोशिशों के बावजूद नहीं दिया। दरअसल, इस रिकॉर्ड की ज़रूरत हमें तब पड़ी जब विवाह के उपरांत एक बदंर ने उन्हें बेवज़ह काटा। तीन या चार महंगे वाले इंजेक्शन लगे थे। यह घटना करीब सोलह साल पहले की है।
तब डॉक्टर ने हमारे कान में धीरे से कहा था - ध्यान रखियेगा। एक बार जिसे बंदर काटता है, वो कभी भी बंदरों जैसी उछल-फांद शुरू कर सकता है। और एक बार बंदर जिसे काट ले बंदर उसे काटने को बार-बार भी आ सकते हैं।

Tuesday, April 18, 2017

और चोर पकड़ा गया

- वीर विनोद छाबड़ा
उन दोनों का प्रेम विवाह था। लेकिन पहले ही दिन से दोनों में झगड़ा शुरू हो गया।
दरअसल पत्नी को शक़ था कि उसके पति के संबंध कई लड़कियों से हैं। 
तीस साल गुज़र गए। मगर झगड़ा करने और शक़ करने की बीमारी गयी नहीं। उनके झगडे से परेशान होकर उनका एकमात्र बेटा अपनी पत्नी और बच्चों के साथ घर छोड़ कर चला गया और पड़ोस में ही किराये पर रहने लगा।
पति को नींद नहीं आती थी। वो रातों को उठ कर टहलने के लिए छत पर चला जाता था। लेकिन पत्नी को शक़ था कि उसके पति के जवान नौकरानी से संबंध हैं और रातों को टहलने के बहाने उसके कमरे में जाता है।
उस दिन पत्नी ने जासूसी करने की ठानी। बच्चू को रंगे हाथ पकड़ूंगी।
पत्नी ने उसने चालाकी की। नौकरानी को चुपचाप छुट्टी दे दी। पति को इसकी भनक तक न लगने दी।
रोज़ की तरह रात नींद न आने की समस्या से ग्रस्त पति उठा। फ्रिज खोल कर पानी पिया और छत की ओर बढ़ गया।
इधर पत्नी बड़ी फुर्ती से नौकरानी के कमरे में घुसी। और उसके पलंग पर मुंह तक चादर ओड़ कर सो गयी।