Showing posts with label मेरे शहर में. Show all posts
Showing posts with label मेरे शहर में. Show all posts

Wednesday, February 5, 2014

फिल्मबाज़ों के बिना सिनेमा का सौ साला सफ़र अधूरा !

वीर विनोद छाबड़ा
भारतीय सिनेमा सौ साल का हो चुका है। गुज़रे साल खूब बातें हुईं। धूल की मोटी परतें झाड़ कर इतिहास के ढेर सफ़े खंगाले और पलटे गये। छोटे-बड़े सभी बहुत याद किये गये। मगर सिनेमा के इस लंबे सफ़र में हर पल साये की तरह चिपके रहने वाले साथियों, यानि दर्शक, को एक बार भी दिल से याद नहीं किया गया। अगर ये साथ नहीं होते तो यकीनन ये सफ़र कभी खुशगवार न हुआ होता, इतनी कामयाबी के साथ कतई अपनी मंज़िले मकसूद को न छू पाया होता। बंदे की मुराद महज़ आम दर्शक से नहीं है, बल्कि इंतेहा पसंद उस दर्शक से है जिसने फ़िल्मों से दीवानावार मोहब्बत की है। इसी को फ़िल्मबाज़ यानि फ़िल्मक्र्रेज़ी कहा जाता था। बंदे ने भी बेसाख्ता मोहब्बत की है फ़िल्मों से। जिंदगी का बेशकीमती हिस्सा इसे अर्पित किया है। बहुत पाया है तो बहुत खोया भी है। कोई शिकायत नहीं। अपनी करनी का ही फ़ल पाया है। बंदे ने अपनी यादों में बहुत गहरा गोता लगा कर कुछ सफे़ तलाश किये हैं जिन्हें बंदा अपने एक सीनीयर फिल्मबाज़ मित्र स्व0 कृष्ण मुरारी सक्सेना उर्फ़ मुरारी भाई को याद करते हुए सौ साल के हो चुके सिनेमा के सफ़र में जोड़ रहा है।
एलफिंस्टन से आनन्द और अब आनन्द सिनेप्लेक्स

बंदे को लखनऊ के फिल्मबाज़ों की फेहरिस्त से गायब हुए एक ज़माना गुज़र चुका है। मगर फिर भी अच्छी तरह याद है कि उसके  ज़माने, यानी साठ-सत्तर का दशक, में ऐसे क्रेजी फिल्मबाज़ साते-जागते, खाते- पीते, हंसते-रोते, गाते-बजाते यानी हर पल सिर्फ़ और सिर्फ़ सिनेमा की बात करते व सोचते थे। हर घटना को विजुएलाईज़ करते होते। बात-बात पर उन्हें फ़िल्म की किसी सिचुएशन की याद आती। रोज़ाना के एजेंडे में सिनेमा पहले नंबर पर होता। पहला दिन, पहला शो देखते थे। ऐसों को नंबर-वन फिल्मबाज़ कहा जाता था। ऐसों के लिये ये भी कहा जाता कि उन्हें फिल्मेरिया/फिल्मोनिया हो गया है। ये रोग पैदाईशी बताया जाता था। बंदा भी इसका एक लंबे अरसे तक इसका शिकार रहा। अच्छी फ़िल्म औसतन चार-पांच दफ़े देखी जाती थी। यों ऐसे भी ज़बरदस्त फिल्मबाज़ होते थे जो किसी खास फिल्म को सौ बार तक देख जाते थे।

Monday, January 27, 2014

बड़ा आदमी, बड़ी कार

वीर विनोद छाबड़ा
वो ज़माना था पचास-साठ के दशक का। अपने शहर लखनऊ के चंद सोशल रसूखदारबहुत बड़े डाक्टरवकीलप्रोफे़सरआला सरकारी अ़फ़़सरमुख्यमंत्री और गवर्नर साहब की ही हैसियत थी कार रखने की। यों भी कहा जा सकता है कि कार का होना ही ‘बड़े आदमी’ की पहचान थीनिशानी थी। वो फियेटस्टेंडर्डप्लाईमाऊथ व अंबेसडर का ज़माना था। शेवरले और इंपाला जैसी लंबी कारें अमीरों के अमीर या फिर सरकारी लाट साहबों की कोठियों की रौनक बढ़ाती थीं। ज्यादातर कारें इंपोर्टेड थीं। दिलजले कहते थे- समंदर के रास्ते से जहाजों पर लद कर हिंदोस्तां की छाती पर मूंग दलने आती हैं।

बंदे को याद है कि सन 1971 में लखनऊ युनिवर्सिटी के वाईस चांसलर के अलावा पोलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट के हेड प्रफेसर पी.एन. मसालदान साहब ही सिर्फ़ कार से चलते थे। बाकी रीडर्स और लेक्चरार रिक्शा या साईकिल के सहारे होते थे। यूनिवर्सिटी के बाकी डिपार्टमेंट्स में भी तकरीबन यही हाल था। यदा-कदा की ही कार वाली हैसियत थी। बंदे की एक क्लासमेट काली अंबेस्डर कार से आती थी। उनके भाई नामी डाक्टर थे। दो-तीन और क्लासमेटनें भी अक्सर उसी में लदी होती थीं। बंदे को उनसे दोस्ती की बड़ी ललक रहती थी। अरसे  बाद ये हसरत पूरी भी हुई। उसकी चमचागिरी में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी। मगर फिर भी उसकी कार की सवारी का सुख कभी नसीब न हुआ। एक बार उनकी कार पंक्चर हो गयी। तब बंदा खूब हंसा था। जब अपने पास न हो और दूसरे के पास हो तो उसे परेशान देखकर सबको मज़ा आता है। इस पर वो सख़्त नाराज हो गयी थी। बमुश्किल मनाया था उसे।

Tuesday, January 14, 2014

पहले आप नहीं पहले मैं !

-वीर विनोद छाबड़ा
पहले आप
उस रोज़ आटो नहीं मिला। लिहाज़ा बंदा सिटी बस में सफ़र के लिए मजबूर हुआ। बस ख़चाख़च भरी थी। सांस तक लेना मुश्किल हो रहा था। बामुश्किल खड़े होने भर की जगह नसीब हुई। क़ाफ़ी देर तक बंदा धक्के खाता रहा। तभी एक साहब ने सीट खाली की। एक स्कूली लड़की और बंदा दोनों एक साथ खाली सीट हथियाने ख़ातिर लपके। बंदा तकरीबन कामयाब होने को ही था कि उसे ख्याल आया कि इस भीड़ में लड़़की ज्यादा परेशान है और लखनऊ की तहजीब़ का भी ये तकाज़ा था कि बड़ों, मजलूमों, औरतों और मासूमों को तरजीह दी जाए। लिहाज़ा सीट की ज़रूरत पहले लड़की को है। बंदे ने लड़की को सीट आफ़र की। मगर लड़की बड़े अदब से बोली-‘‘नहीं अंकल, आप बड़े हैं, लिहाज़ा पहले आप।‘‘ बंदे को बड़ी हैरानी हुई और खुशी भी। खुशी इस बात पर कि इक्कसठ साल के सीनीयर सिटीज़न बंदे को लड़की ने दादा जी नहीं कहा। और हैरत इस बात पर कि एक मुद्दत बाद के बाद ‘पहले आप’ सुनना नसीब हुआ था। लखनऊ की गुम हो रही तमाम पहचानों में एक ’पहले आप’ एक मासूम स्कूली लड़की में ज़िन्दा थी।

Sunday, January 12, 2014

वानर उवाच- हम किसी से कम नहीं!


वीर विनोद छाबड़ा

बंदे के शहर लखनऊ के कई इलाके पिछले कई महीनों से वानर उत्पात की ज़़बरदस्त चपेट में है। इनकी संख्या हजारों में है, जो पचास-साठ के कई झुंडो में बंटी है। इन दिनों तो इनकी धमा-चैकड़ी चरम पर है। जनता बेहाल-परेशान है। परंतु तमाम मोहल्ला सुधार समितियां और प्रशासन खामोश है। दरअसल हनुमानजी की सेना के विरूद्ध डायरेट एक्शन लेने से सभी को भय लगता है, बजरंग बली से भी और उनसे ज्यादा उनके मानव भक्तों से। उस दिन तो हद हो गयी। जब बंदे के मोहल्ले में वानर सेना के सुनामी समान उत्पात ने जनता-जनार्दन को रात भर सोने नहीं दिया। सुबह अधिकतर केबल टी0वी0 की तारें बुरी तरह कटीं-फिटी और डी0टी0एच0 की सारी छतरियां मुड़ी-तुड़ी पायी गयीं। इसके कारण घरों में टीवी देखना संभव नहीं था।  तब बंदे के पशु-प्रेम ने बंदे को बाध्य किया कि वानरों से संपर्क करके बात-चीत करके समझे कि वे इंसानों को क्यों तंग करे है? और फिर समस्या से मुक्ति का मार्ग तलाश करे। लिहाज़ा बंदे ने अनेक वानर समूहों की आदतों व चाहतों की गहन स्टडी की, उनसे संपर्क किया ओर उसके आधार पर एक रिपोर्ट तैयार की। इसके चुनींदा अंश वानर समाज की जुबानी मानव जाति के सम्मुख विचारार्थ प्रस्तुत हैं।

Thursday, January 9, 2014

बिजली वाले की व्यथाकथा

वीर विनोद छाबड़ा

उस दिन भोर में बंदे के घर में ही नहीं आस-पड़ोस में भी हाहाकार मचा था। वजह-बिजली नहीं थी। अरे भाई, इतने परेशान क्यों हो? कोई नयी बात है क्या? ऐसा तो अक्सर होता है। एक-आध घंटे में आ जाएगी। तभी पड़ोसी पांडे जी ने गेट पीटते हुए बंदे को ललकारा-‘‘बाहर निकलिए। सो रहे हैं? मालूम है, ट्रांसफारमर दग गया है। अभी बम फूटने जैसी भयंकर आवाज़ हुई है। सुने नहीं? चैबीस घंटे लगेंगे। नहाना तो दूर पीने तक के लिए पानी नहीं है। नाश्ता-पानी भी नहीं बना है। बच्चे स्कूल नहीं जा पाए है। नहाएंगे नहीं तो हम दफ़्तर कैसे जाएंगे? बताईए। हमारे तो इंनवर्टर की बैटरी भी लो है। बस टा-टा होने ही वाला है। आपका क्या? आप तो ठहरे रिटायर्ड बिजली बाबू। पावरफुल इंनवर्टर है आपके पास।’’ पांडे जी एक सांस में दिल की सारी भड़ास बंदे पर उड़ेल गए। बंदा पांडे जी को कुछ सांत्वना देता कि इस बीच पांच-छह पड़ोसी और आ गए। उनके तेवर देखकर बंदे को डर लगा कि कहीं पिट ना जाऊॅ!

भयाक्रांत बंदे ने ढांढ़स बंधाने की कोशिश की-‘‘भैया, मैंने ख़बर कर दी है सब-स्टेशन पर। एस0डी0ओ0 साहब से भी बात हो गयी है। वो ट्रांसफारमर का बंदोबस्त कर रहे हैं। चार-पांच घंटे में सब नार्मल हो जाएगा। और फिर देखिए, गर्मी भी कितनी भीषण है! घर घर में एसी-कूलर चैबीसों घंटे चलते हैं। ज्यादा लोड बर्दाश्त नहीं कर पाया होगा बेचारा ट्रांसफारमर।’’ वहां जमा हो चुकी छोटी सी भीड़ बंदे के स्पष्टीकरण से कतई संतुष्ट नहीं होती है। बंदे को बेतरह घूरा और बिजली विभाग के लिए चुनींदा अभद्र शब्दों का उवाच करते हुए विसर्जित हो गयी। बंदे के दिल पर साथ ही छुरी भी चली। बंदे के परिवारजन ने भी भीड़ के सुर में सुर मिलाया और बंदे को निशाना बनाते हुए बिजली वालों को जी भर कर कोसा।