वीर विनोद छाबड़ा
वो ज़माना था पचास-साठ के दशक का। अपने शहर लखनऊ के चंद सोशल रसूखदार, बहुत बड़े डाक्टर, वकील, प्रोफे़सर, आला सरकारी अ़फ़़सर, मुख्यमंत्री और गवर्नर साहब की ही हैसियत थी कार रखने की। यों भी कहा जा सकता है कि कार का होना ही ‘बड़े आदमी’ की पहचान थी, निशानी थी। वो फियेट, स्टेंडर्ड, प्लाईमाऊथ व अंबेसडर का ज़माना था। शेवरले और इंपाला जैसी लंबी कारें अमीरों के अमीर या फिर सरकारी लाट साहबों की कोठियों की रौनक बढ़ाती थीं। ज्यादातर कारें इंपोर्टेड थीं। दिलजले कहते थे- समंदर के रास्ते से जहाजों पर लद कर हिंदोस्तां की छाती पर मूंग दलने आती हैं।
बंदे को याद है कि सन 1971 में लखनऊ युनिवर्सिटी के वाईस चांसलर के अलावा पोलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट के हेड प्रफेसर पी.एन. मसालदान साहब ही सिर्फ़ कार से चलते थे। बाकी रीडर्स और लेक्चरार रिक्शा या साईकिल के सहारे होते थे। यूनिवर्सिटी के बाकी डिपार्टमेंट्स में भी तकरीबन यही हाल था। यदा-कदा की ही कार वाली हैसियत थी। बंदे की एक क्लासमेट काली अंबेस्डर कार से आती थी। उनके भाई नामी डाक्टर थे। दो-तीन और क्लासमेटनें भी अक्सर उसी में लदी होती थीं। बंदे को उनसे दोस्ती की बड़ी ललक रहती थी। अरसे बाद ये हसरत पूरी भी हुई। उसकी चमचागिरी में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी। मगर फिर भी उसकी कार की सवारी का सुख कभी नसीब न हुआ। एक बार उनकी कार पंक्चर हो गयी। तब बंदा खूब हंसा था। जब अपने पास न हो और दूसरे के पास हो तो उसे परेशान देखकर सबको मज़ा आता है। इस पर वो सख़्त नाराज हो गयी थी। बमुश्किल मनाया था उसे।