Saturday, April 30, 2016

छोटा कद, बड़ा मुकाम

-वीर विनोद छाबड़ा
ऋषिकेश मुकर्जी की अनाड़ी में राजकपूर को मुकरी बड़े भोलेपन से समझाते हैं कि मालिक को आते हुए सलाम करो और जाते हुए भी सलाम करो। बस हो गयी नौकरी। मैं तो सुबह बीवी को भी सलाम करके निकलता हूं। 

मसखरी की आदत ताउम्र उनका स्थायी भाव रहा। अवसादग्रस्त भी उनका चेहरा देख बरबस मुस्कुरा देता था। परदे के सामने और पीछे उनके नाम पर कई नज़ारे जुड़े हैं। प्रकाश मेहरा की शराबी के नत्थूलाल की याद तो सभी को ताज़ा है। उनकी बड़ी-बड़ी मूंछो पर अमिताभ बच्चन ने बार-बार जुमला कसा। मूंछें हो तो नत्थूलाल जैसी वरना न हों। इसने अमिताभ के किरदार को एक्स्ट्रा लिफ्ट दी। याद करें अमर अकबर अंथोनी का गाना - तैयब अली प्यार का दुश्मन, हाय हाय.इसके पीछे भी मुकरी ही थे।  
१९४५ के दिनों में बॉम्बे टाकिज़ स्टूडियो के मामूली मुलाज़िम थे मुकरी। गोल-मटोल और छोटे कद के मुकरी। चेहरे पर चौड़ी मुस्कान। स्टूडियो की मालकिन देविका रानी की नज़र उन पर पड़ी। अरे वो आदमी परदे के पीछे क्या कर रहा है? इसे सामने लाओ।
और लगभग ६०० फिल्मों में छाए रहे वो। यह संकेत है कि छोटे कद मुकरी का दरअसल कद कितना ऊंचा और अहम था। पचास, साठ और सत्तर के दशक की हर दूसरी-तीसरी फिल्म में उनकी जगह पक्की रही, भले ही कहानी में उनकी गंजाईश नहीं थी। काम चाहे छोटा रहा हो या बड़ा, निर्वाह उन्होंने पूरे दिल, लगन और विनम्रता से किया। अपनी मौजूदगी का अहसास कराया। दिलीप कुमार की लगभग सभी फिल्मों में वो दिखे। उनके अच्छे निज़ी मित्र भी रहे। तक़रीबन हर छोटे-बड़े एक्टर के साथ काम किया। कोई विवाद नहीं जुड़ा। उस दौर में जन्मे अनेक छोटे कद वाले मुकरी कहलाए। 
Mukri with Sanjeev Kumar
मुकरी परदे से बाहर की दुनिया में भी बहुत मज़ेदार आदमी थे। आन फिल्म की शूटिंग के दौरान गधे की ज़रूरत पड़ी। खोज-बीन हुई। लेकिन गधा नहीं मिला। निर्देशक महबूब खान झल्ला गए। क्या वाकई दुनिया में गधों का अकाल है? या फिर मेरे नसीब में गधा नहीं। वहीं खड़े मुकरी बेसाख्ता बोल उठे - इस बंदे में गधा बनने की सारी खूबियां मौजूद हैं।
नासिर खान बागी बना रहे थे। अचानक हल्ला हुआ कि पानी में किसी ने गंदगी मिला दी है। तब मुकरी सबसे पूछते फिरे कि इरीगेटेड वाटर सप्लाई कहां से मिलेगी। साथी उनसे महीनों चुहल करते रहे- भाई, इरीगेटेड वाटर मिला कि नहीं।
उनका हाथ अंग्रेजी में काफी तंग रहा। लेकिन अपने इस अज्ञान पर लुत्फ उठाने की पहल खुद ही करते रहे। फन्नी किस्म की इंग्लिश बोल कर सबको हंसाते रहते। अमिताभ बच्चन ने नमक हराम में इंग्लिश इज ए फन्नी लैंग्वेज...आई कैन टाक इंग्लिश, आई कैन वाक इंग्लिश... बोल कर खूब वाहवाही लूटी। इसकी कुछ प्रेरणा उन्हें शायद मुकरी से भी मिली थी।

Friday, April 29, 2016

कुत्ता संवाद।

- वीर विनोद छाबड़ा
एक कुत्ता दूसरे कुत्ते से बात कर रहा है।

पहला कुत्ता - हम खाने-पीने के लिये एक गली से दूसरी गली भटकते हैं। हर एैरे-गैरे की दुत्कार अलग से सुननी पड़ती है।
दूसरा कुत्ता - कई बार आंसू भी आ जाते हैं। मेरी मां बताया करती थी कि किसी ज़माने में हर घर में कुत्ते के लिए डेली एक रोटी रिज़र्व रहती थी।
पहला - हां, सुना तो मैंने भी है। लेकिन अब महंगाई इतनी है कि बचत के नाम पर कुत्ते का हिस्सा बंद हो गया है।
दूसरा - लेकिंन हम अपनी ड्यूटी नहीं भूले। हम दिन-रात फ्री में इनकी रखवाली करते हैं। मेमसाब जब बाज़ार जाती हैं तो दूर तक पीछे-पीछे जाता हूं।
पहला मज़ाक करता है - दिल है कि मानता नहीं।
दूसरा - उधर मीट मार्किट है। वहां दूसरे कुत्तों के गैंग का कब्ज़ा है।
पहला - फिर सात गली के बाद एक बड़ा पूजा घर है। वहां बड़ा कुत्ता गैंग है। वो तो बहुत ही खतरनाक है। हमें पास भी नही फटखने देते। कहते हैं तुम दूसरी  पूजा गली के हो।
दूसरा -  हमने सुना है हमारी गली में कभी अच्छे लोग रहते थे। खूब गोश्त लगी हड्डियां फेंकते थे।
पहला - लेकिन अब तो साहब लोग हड्डी पर कुछ भी लगा नहीं छोड़ते। मक्खीचूस कहीं के।
दूसरा - चूसने वाला हमारा काम अब ये लोग खुद ही करने लगे हैं।
पहला - आजकल इंसान भी....अरे जिसका काम है उसी को करने दो।
दूसरा - सोचता हूं, आज नहीं छोडूंगा। काट लूंगा। जब चार मोटे-मोटे इंजेक्शन लगेंगे तब पता चलेगा बच्चू को कि दूसरे का हिस्सा हड़पने का मतलब क्या होता है।  
अगले दिन साहब को एक कुत्ते ने काट लिया। साहब कोई मामूली नहीं, साहबों का साहब था। हड़कंप मच गया। प्रेस कांफ्रेंस हुई। असेंबली क्वेश्चन हुआ। वीवीआईपी की सुरक्षा नहीं तो आम आदमी की क्या गारंटी। चैनल मीडिया ने भी खोज-खबर ली।
हमारे अख़बार में छपी ख़बर का असर.... नहीं 'सबसे पहले' चैनल की मुहीम का असर। 

Thursday, April 28, 2016

पगड़ी कहां है?

- वीर विनोद छाबड़ा
न जाने क्यों मुझे पुरानी फ़िल्म जंगली (१९६१) की याद आ रही है। इस घर में मुस्कुराना तक मना है, हंसना तो बहुत दूर की बात है। घर में नौकर-चाकर हैं लेकिन कड़े अनुशासन से बंधे हुए।

एक सीन है। डिनर चल रहा है। शम्मी कपूर, ललिता पवार और शशिकला टेबुल मौजूद हैं। नौकर-चाकर बाक़ायदा बैरे की ड्रेस में हैं। सबके सिर पर पगड़ी भी है।
कुछ नौकर हाथ बांधे पीछे खड़े हैं। इनमें से कुछ अपनी बारी का और कुछ हुकुम का इंतज़ार कर रहे हैं। और कुछ भोजन परोस रहे हैं।
शम्मी कपूर मां ललिता पवार से कुछ बात कर रहे हैं। अचानक वो गौर करते हैं कि उन्हें भोजन परोस रहे नौकर के सर पर पगड़ी नहीं है। वो आगबबूला होकर टेबुल पर जोर का मुक्का मारते हैं। गिलास से पानी छलक कर उनके मुंह पर पड़ता है। कुछ नाक में चला जाता है। वो छींकने लगते हैं। फ्रेंजी हो जाते हैं। मानो हिस्टीरिया का दौरा पड़ा हो। नौकर के सिर की और ईशारा करते हैं। उनका मकसद यह है कि पगड़ी कहां है?

यह सब देखकर नौकर इतना घबड़ा जाता है कि उसकी समझ में कुछ नहीं आता है।
तब शशिकला नौकर को पगड़ी का ईशारा करती है।
नौकर फ़ौरन पगड़ी लेकर आता है और शम्मी कपूर के सामने रख देता है।
शम्मी कपूर को मानो आग ही लग जाती है। उनके बदन का हर अंग गुस्से से फड़फड़ाने लगता है। मुंह से ठीक से शब्द भी नहीं निकल पाते हैं। वो सिर को ओर बार-बार ईशारा करते हुए कहते हैं - सर...सर....
घबड़ाया हुआ नौकर और भी नर्वस हो जाता है और पगड़ी उठा अपने सिर पर रखने की बजाये शम्मी कपूर के सिर पर रख देता है।
अब शम्मी कपूर और बर्दाश्त नहीं कर पाते और तेज क़दमों से पैर पटकते हुए बाहर चले जाते हैं।

Wednesday, April 27, 2016

तुझे मेरे गीत बुलाते हैं...

-वीर विनोद छाबड़ा
एक थे पंडित भरत व्यास। राजस्थान के चुरू इलाके से १९४३ में पहले पूना आये और फिर बंबई। बहुत संघर्ष किया। बेशुमार सुपर हिट गीत लिखे। हिंदी सिनेमा को उनकी देन का कोई मुक़ाबला नहीं। एक से बढ़ कर एक बढ़िया गीत।

आधा है चंद्रमा रात आधी.तू छुपी है कहां मैं तपड़ता यहां(नवरंग)निर्बल की लड़ाई भगवान से, यह कहानी है दिए और तूफ़ान की.… (तूफ़ान और दिया).सारंगा तेरी याद में (सारंगा)तुम गगन के चंद्रमा हो मैं धरा की धूल हूं.… (सती सावित्री)ज्योत से ज्योत जलाते चलो.…(संत ज्ञानेश्वर)हरी भरी वसुंधरा पे नीला नीला यह गगन, यह कौन चित्रकार है.…(बूँद जो बन गई मोती)ऐ मालिक तेरे बंदे हम.सैयां झूठों का बड़ा सरताज़ निकला(दो आंखें बारह हाथ)दीप जल रहा मगर रोशनी कहां(अंधेर नगरी चौपट राजा)दिल का खिलौना हाय टूट गया.कह दो कोई न करे यहां प्यार तेरे सुर और मेरे गीत.…(गूँज उठी शहनाई)क़ैद में है बुलबुल, सैय्याद मुस्कुराये(बेदर्द ज़माना क्या जाने?) आदि। यह अमर नग्मे आज भी गुनगुनाए जाते हैं। गोल्डन इरा के शौकीनों के अल्बम इन गानों के बिना अधूरे हैं। 
व्यास जी का यह गीत - ऐ मालिक तेरे बंदे हम.महाराष्ट्र के कई स्कूलों में सालों तक सुबह की प्रार्थना सभाओं का गीत बना रहा।
पचास का दशक भरत व्यास के फ़िल्मी जीवन का सर्वश्रेष्ठ दौर था। लेकिन इस दौर में उनके साथ एक ऐसा वाक्या हुआ जो ट्रेजेडी बनने से बच गया।
हुआ यों कि भरत व्यास का बेटा बहुत संवेदनशील था। उनसे किसी बात पर नाराज़ हुआ और घर छोड़ कर चला गया।
उन्होंने उसे लाख ढूंढा। रेडियो और अख़बार में विज्ञापन दिया। गली गली दीवारों पर पोस्टर चिपकाए। धरती, आकाश और पाताल सब एक कर दिया।ज्योतिषियों, नजूमियों से पूछा।  मज़ारों, गुरद्वारे, चर्च और मंदिरों में मत्था टेका। लेकिन वो नही मिला। ज़मीन खा गई या आसमां निगल गया। आख़िर हो कहां पुत्र? तेरी सारी इच्छाएं और हसरतें सर आंखों पर। तू लौट तो आ। बहुत निराश हो गए भरत व्यास।

Tuesday, April 26, 2016

पैसा फेंको तमाशा देखो।

- वीर विनोद छाबड़ा
बात १९९४ की है। एक दिन ज़बरदस्त तूफ़ान आया। बारिश भी हुई। बिजली तो गुल होनी ही थी। कोढ़ में खाज यह कि पोल से तार टूट गया।

नतीजा यह कि घंटो बाद बिजली आई तो हमारा घर रोशन नहीं हुआ। सौभाग्य से फोन डेड नहीं हुआ।
पत्नी ने फोन किया कि आते हुए एचएएल से बिजली लेते आना।
उन दिनों हमें एचएएल के सब-स्टेशन से बिजली सप्लाई होती थी। मैं दफ्तर से छुट्टी लेकर सीधा एचएएल पहुंचा। संयोग से जेई साहब मिल गए।
वो बोले कल जुड़ पाएगा तार। मैंने उन्हें प्रभावित करने के लिए बताया कि मैं हैडक्वार्टर में काम करता हूं। फलां पोस्ट पर हूं। फलां सेक्शन में हूं।
लेकिन जेई साहब पर कोई असर नहीं हुआ। उलटे अकड़ गए। मेरे पर ही बरस पड़े। मैं क्या करूं? जाइये चेयरमैन से कहिये खंबे पर चढ़ कर जायें। बिजली आ जाएगी।
मैंने इंसानियत का हवाला दिया। मगर वो जेई पट्ठा ही निकला। कतई न पिघला। स्कूटर स्टार्ट करके निकल लिया।
इन्वर्टर का ज़माना नहीं था। उमस और गर्मी से बेहाल कैंसर पीड़ित पिता, पैरलाइज़ माता, छोटे-छोटे दो बच्चे और रसोई में पसीने से तर-बतर लालटेन की रोशनी में रोटी सेंकती पत्नी। देखा नहीं गया।

Monday, April 25, 2016

ज़िंदगी रामभरोसे है!

-वीर विनोद छाबड़ा
शाम ढल चुकी है। चिराग़ जल उठे हैं। टूटी-फूटी सड़कें। हर गली, हर सड़क पर बेशुमार कारें, बाइक्स -स्कूटर्स, आटो-टेम्पो की रेल-पेल और चिल्ल-पौं है। फुल बीम पर हेडलाईट्स। आंखें चौंधियां रही हैं। कुछ दिखता नहीं है। बंदा कई बार लुढ़कता-पुढ़कता है। तभी कोई उसे उठाता है। अबे देख कर चला कर। बेवड़ा कहीं का? बंदा बड़बड़ाता है। मेरी जगह कोई महिला होती तो यह भले लोग बड़े एहतियात से उसे घर तक छोड़ आते। 

खैर, बंदा राम-राम करते हुए किसी तरह घर पहुंचा। टूटा-फूटा पति देख कर पत्नी सर्वप्रथम विलाप करती है। लेकिन एक पीस में पाकर फटकारती है। देख कर चला करो। तुम्हारा ध्यान हमेशा लड़कियों की तरफ क्यों होता है? ज़रूरी मरहम-पट्टी होती है। गर्मागर्म चाय की प्याली। जान वापस आई। बंदा जिस्म और दिल पर लगे ज़ख्मों को सहलाता है। पलकें बंद होने लगती हैं। इसके साथ ही दस साल पहले का एक फ्लैशबैक ज़िंदा होकर सामने तैरने लगता है.....
बंदा भूमि मार्ग से एक बड़े शहर से लौट रहा है। ड्राईवर के बगल वाली सीट पर बैठना उसे सदैव सुखद लगा है। लेकिन आज दिन का समय नहीं है। घुप्प अंधेरा है। मजबूरी भी है। कहीं और सीट खाली नहीं है। दो लेन की सड़क है। बीच में डिवाइडर नहीं है। सामने से आ रहे वाहनों की हैडलाईटों से आंखें चौंधिया रही हैं। कुछ भी नहीं दिखता है। बंदा डर के मारे आंख बंद कर लेता है और रामजी को स्मरण करता है।
लेकिन बस का ड्राईवर बेअसर है। वो आड़ा-तिरछा होकर बस सुरक्षित निकाल लेता है।
एक ढाबे पर बस रुकती है। बंदे की मानों सांस वापस आई।
बंदा ड्राईवर को देखता है। किसी भगवांन से कम नहीं है वो। हैरान-परेशान होकर जिज्ञासा प्रकट करी। हैडलाइट्स के विरूद्ध हमें तो कुछ नहीं दिखता है। आप कैसे देखते हो भैयाकैसे बस चलाते हो?’’
ड्राइवर साहब मुस्कुराते हैं। फिर बीड़ी सुलगा के ऊपर देखा। सब रामभरोसे है जी। सुन कर कलेजा मुंह पर आ गया। यानी सारे यात्रियों की ज़िंदगी राम भरोसे चलती है?
ड्राइवर साहब हंसते हैं। तजुर्बा भी कोई चीज होती है जी। रोज का आना-जाना है। कहां गड्ढा, कहां खाई? सड़क कहां चौड़ी, कहां संकरी? हमें सब मालूम रहता है रामजी की कृपा से। जिस दिन उनकी कृपा हटी ज़िंदगी खत्म! अब किताब में जो लिखा है वही तो होना है। बंदा कराह उठाता है। मगर आपके साथ हमारी ज़िंदगी लेकर रामजी क्या करेंगे? हमारा क्या कसूर है?
ड्राईवर साहब जोरदार ठहाका लगाते हैं। बंदे को यमराज जी वो किरदार याद आ गया जो उसने कुछ दिन पहले सत्यवान-सावित्री फिल्म में देखा था। वो बड़बड़ाता है। मगर अपनी पत्नी तो सावित्री नहीं है।

Sunday, April 24, 2016

सचिन तेंदुलकर - महान बनने का मौका गवां बैठे।

- वीर विनोद छाबड़ा
आज सचिन ने ज़िंदगी के ४३ साल पूरे कर लिए हैं। बधाई हो।
हम खुशकिस्मत हैं कि सचिन को किशोरावस्था से जवान होते देखा है। उसका संपूर्ण कैरियर देखा है। एक एक रन बनते हुए देखा है और मैदान में उसे रोकने के लिए झूझते-हांफते हुए फील्डरों को भी देखा है।

उन दिनों वो किशोर थे। इंग्लैंड के विरुद्ध एक दिनी मैच में जब वो छत्तीस रन की आंधी समान एक छोटी सी पारी खेल कर लौट रहे थे तो एक अंग्रेज़ कमेंटटर कह रहा था कि उसने भविष्य का ब्रैडमैन देख लिया है।
१९९१ में ऑस्ट्रेलिया के मैदान पर एक टेस्ट मैच के दौरान जब वो विकेट के चारों ओर बेतरह प्रहार कर रहे थे तो क्रिकेट के 'डॉन' डॉन ब्रैडमैन ने अपनी पत्नी को आवाज़ दी - यह देखो, ये लड़का बिलकुल मेरी तरह ही परफॉर्म कर रहा है।
हमें उन दिनों की याद भी है जब सचिन का सस्ते में आउट होने का मतलब होता था मैच का बेमज़ा होना। टीवी के स्विच ऑफ। अगले दिन अख़बार में पढ़ लेंगे कि टीम इंडिया हार गई। पूरी टीम का बोझ कंधों उठा कर चलते थे सचिन। शारजाह के रेतीले तूफान में भी सेंचुरी बनाते हुए देखा है।

सचिन का दूजा नाम है रेकॉर्डों का बेताज बादशाह। लेकिन हमने उन्हें बड़े फाईनल मैचों में, जब उसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत होती थी, में अक़्सर खराब प्रदर्शन करते हुए भी देखा है। उनकी ज्यादातर पारियों का अंत एक बेहूदा गेंद ही होती थी जिस पर वो बोल्ड होते या साधारण कैच थमा बैठते। बस यहीं पर सचिन तेंदुलकर 'महान' होने से वंचित हो गए।
क्रिकेटर सिर्फ मैदान में रन बनाने से महान नहीं बनता। मैदान के बाहर भी उसकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। जावेद मियांदाद बहुत उम्दा बल्लेबाज़ थे लेकिन महान नहीं बन पाये, क्योंकि उन्होंने कोई आदर्श स्थापित नहीं किये। सचिन ने भी मैदान से बाहर महान आदर्श स्थापित नहीं किये। सुनील गावसकर की तरह स्टेट्समैन क्रिकेटर नहीं बन पाये। बेहतरीन फॉर्म में रिटायरमेंट नहीं लिया। उनसे कहा गया कि दूसरों को चांस दीजिये। सचिन ने अपने कैरियर का आगाज़ पाकिस्तान में किया था। अगर समापन भी विदेशी धरती पर करते तो बात कुछ और होती। उन्होंने समापन के लिए टीम भी कमजोर वेस्ट इंडीज ही चुनी। जबकि साउथ अफ्रीका का दौरा तय था। वो कॉरपोरेट के चक्कर में फंस गए। इवेंट बना दिया गया उनका रिटायरमेंट।

Saturday, April 23, 2016

कानों में रस घोलती बुलबुल जैसी आवाज़।

- वीर विनोद छाबड़ा  
शमशाद बेग़म का नाम जुबां पर आया नहीं कि गीत-संगीत की महफ़िल जवां हो उठती है। कान में बुलबुल जैसी कोई मधुर मधुर आवाज़ रस घोलने लगती है। मंदिर में जैसे घंटियां सी बजने लगती हैं। 

१४ अप्रैल १९१९ में लाहोर के जिस ऑर्थोडॉक्स विचारों वाले पंजाबी मुस्लिम परिवार में शमशाद बेग़म जन्मी थीं, उसमें गीत-संगीत को दूर से ही सलाम था। लेकिन जाने कहां से शमशाद को ये रोग पकड़ गया। घर में सख्त मनाही थी। लिहाज़ा स्कूल की प्रार्थना सभा में गाकर अपना शौक पूरा किया। सबसे मुखर और अलग आवाज़ की वज़ह से जल्द ही वो हेड सिंगर बना दी गई।
थोड़ा हौंसला मिला तो शमशाद ने सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी यदा-कदा गाया। ऐसे ही एक प्रोग्राम में उस दौर की मशहूर रिकॉर्डिंग कंपनी जेनोफ़ोन के संगीतकार मास्टर गुलाम हैदर ने उन्हें एक बार सुना।
गुलाम हैदर के दिल को छू गई शमशाद की आवाज़। फ़ौरन ही रुपया १५ प्रति गाने की दर से १२ गानों का कॉन्ट्रैक्ट ऑफर किया। मगर शमशाद के पुरातनपंथी अब्बा मियां हुसैन बक्श को महिलाओं की आज़ादी और गाने-बजाने पर सख्त ऐतराज़ था। वो बामुश्किल इस शर्त पर तैयार हुए कि शमशाद हर वक़्त परदे में रहेंगी और तस्वीर भी नहीं खिंचवाएंगी। लोग सिर्फ उनकी आवाज़ सुन पाएंगे। यही वजह रही कि १९७० तक बहुत कम लोगों ने उनके चेहरे को देखा।
इधर निर्देशक दलसुख पंचोली ने बेगम की आवाज़ लाहोर रेडियो पर सुनी तो दीवाने हो गए। उन्होंने बेगम को गाने के साथ-साथ अभिनय के लिए भी मना लिया। लेकिन अब्बा हुज़ूर फिर बीच में दीवार बन कर खड़े हो गए।
१९३४ में शमशाद बेग़म पेशे से एक वकील गणपत लाल बट्टो को दिल दे बैठीं। दोनों तरफ़ के परिवारों में भारी बखेड़ा खड़ा हो गया। वो ज़माना तो बहुत ही कंज़र्वेटिव था। ऐसा सोचना तक गुनाह था। शमशाद की उम्र ही क्या थी? बस १५ साल। लेकिन मोहब्बत के सामने सबको झुकना पड़ा। शमशाद पूर्व की शर्तों पर परदे में ही गाती रहीं।
  
१९४० में महबूब खान ने शमशाद के पति गणपत लाल को समझाया। यार तुमने यहां लाहोर में अपनी बेग़म कुएं में बंद कर रखी है। वहां बंबई का विशाल समुंद्र कबसे उसका इंतज़ार कर रहा है। गणपत बड़ी मुश्किल से छह बंदो के फ्लैट और मुफ़्त कार के ऑफर पर तैयार हुए।
बेगम के शुरूआती गाने पंजाबी में रहे - चीची विच पाके छल्लामेरा हाल वेख के.कंकण दी फसलां(यमला जट्ट -१९४०)
यूनीक मखमली आवाज़ की वजह से बेगम को बंबई में स्थापित होने में कतई वक़्त नहीं लगा। उन्होंने यमला जट्ट, खजांची, शिकार, शहंशाह, बहार, मशाल, मिस इंडिया, मिस्टर एंड मिसेस ५५, हावड़ा ब्रिज, १२ओ क्लॉक, मुसाफ़िरखाना, पतंगा, मुगल-ए-आज़म, सीआईडी आदि अनेक फिल्मों के लिए गाया। शमशाद के जलवे का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि तमाम फ़िल्मकार लता और आशा को भी लंबे समय तक शमशाद की स्टाइल में गवाते रहे।
बेगम का व्यस्तम समय १९४०-५५ के बीच रहा। १९५५ में पति की मृत्यु ने उन्हें तोड़ दिया। वो अपनी पुत्री उषा रात्रा और दामाद ले.कर्नल योगेश रात्रा के घर चली गईं। 

Friday, April 22, 2016

ताक़त का प्रतीक घोड़ा!

- वीर विनोद छाबड़ा
हम किसी भी बेज़ुबान जानवर के मरने पर दुखी होते हैं। चाहे वो घोड़ा हो या कुत्ता। हमारे एक मित्र हुआ करते थे। उनके लिए से इंसान और घोड़ा ही दोनों बराबर थे। जिस गाड़ी को इंसान खींचें या घोड़ा, उस पर नहीं बैठते थे। इसीलिए अपने होशोहवास में सारी ज़िंदगी न रिक्शा पर बैठे और न ही तांगे पर। पैदल चले या साईकिल पर। स्कूटर खरीदने भर का कभी पैसा नहीं जुटा पाये।

इंसान के सबसे पुराने साथी हैं। घोड़ा और कुत्ता। यों बंदर, गाय, भैंस, बैल, बकरी आदि भी हैं। लेकिन घोड़ा और कुत्ता दूर तक दौड़ते चले गए। कुत्ता तो धर्मराज युधिष्ठिर के साथ स्वर्ग तक चला गया।
हमने सुना है जब ट्रेन-बस नहीं थे तो घोड़ा ही शाही सवारी थी। घुड़सवार ही एक शहर से दूसरे शहर संदेसे और पार्सल लेकर जाते थे। युद्ध के मैदान में घोड़े की पीठ पर सवार होकर योद्धा शमशीरों को लहू से लाल करते थे। पुराने काल की दर्शाती पेंटिंग्स देखिये। योद्धा घोड़े पर सवार दिखते हैं। महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, पृथ्वीराज चौहान, महाराजा रणजीत सिंह अगर घोड़े पर सवार न हों तो मज़ा नहीं आता। वीर रस की अनुभूति नहीं होती है। महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक तो हिस्ट्री में मशहूर है. झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई भी घोड़े पर सवार होकर अंग्रेज़ों के कब्जे से भागी थीं.
याद आता है कि सिकंदर ने भी घोड़े पर बैठ कर पोरस से युद्ध किया था। घोड़े को तीर लगा और वो फिर नहीं उठ सका।
हमें एक फिल्म याद आ रही है - नया दौर। तांगे में जुटे घोड़े ने ही बस को को मात दे दी। मैन वर्सेस मशीन की बेहतरीन मिसाल। घोड़े के पैरों की टप टप में संगीत की ध्वनि होती है। पैर थिरकने लगते हैं। मांग के साथ तुम्हारा मैंने मांग लिया संसार...(नया दौर) यूं तो हमने लाख हंसी देखे हैं.... (तुमसा नहीं देखा), ये क्या कर डाला तूने दिल तेरा हो गया...(हावड़ा ब्रिज), बंदा परवर थाम लो जिगर...(फिर वही दिल लाया हूं), ज़रा हौले हौले चलो साजना, हम भी पीछे हैं तुम्हारे...(सावन की घटा), आज उनसे पहली मुलाक़ात होगी...(पराया धन), एक हसीना जब रूठ जाती है तो और भी हसीन हो जाती है....(शोले) आदि अनेक फ़िल्मी नग्मे याद आ रहे हैं, जिसमें घोड़े की टप टप हमें आज भी याद आ रही है। डाकू वाली फिल्में तो बिना घोड़े के कभी बनी ही नहीं।

Thursday, April 21, 2016

कहो तो लिफ़ाफ़ा दे दें!

- वीर विनोद छाबड़ा
आज हमारे एक मित्र की बेटी की शादी है। सुबह से फोन आ रहे हैं। आप जा रहे हैं? कब जायेंगे?

लेकिन हम सबसे मना कर रहे हैं कि हम नहीं जा रहे हैं। दरअसल हमें मालूम है कि पूछने के पीछे मकसद क्या है? पहले भी ऐसा कई बार हो चुका है।
जब हमने हां कहा तो पूछा - अच्छा आप कितना दे रहे हो?
अरे भाई, हम जितना भी दें तुमसे क्या मतलब?
ठीक है। अच्छा एक काम करो - मेरी तरफ से ५०१ भेंट कर देना। 
ऐसे ही कोई २५१ और कोई १००१ के बात करेगा। कोई कहेगा जितना आप दे रहे उतना ही मेरी तरफ से।
हमें यह अच्छी तरह से मालूम है इसमें से एक-आध अपवाद को छोड़ कर कोई पैसा लौटाने वाला नहीं। सब रिटायर हैं। रोज़ रोज़ तो मिलना होता नहीं। जाने कब भेंट हो। महीने बाद या छह महीने बाद। तब तक भूल चुके होते हैं सब। याद दिलाओ तब भी याद नहीं अाता। कोई ६२ पार तो कोई ६५ पार। ७० पार वाले भी होते हैं। सबकी याददाश्त कमजोर हो चुकी है। रीसेंट मेमोरी खासतौर पर टाटा कर चुकी है लेकिन पास्ट मेमोरी तो बिलकुल जैसे कल की घटना है। सविस्तार बता देंगे। सेकंड तक याद हैं।
एक साहब ने यह तक कह दिया कि उसने तो मुझे न्यौता तक तो दिया नहीं। मैं क्यों भिजवाने लगा उसे लिफाफा। 
कुछ बंदे तो इसलिए फ़ोन करते हैं। भई हमें भी लेते चलना। रात ठीक से दिखता नहीं है। कईयों को कार-स्कूटर चलाते हुए चक्कर भी आते हैं। सब नौटंकी है। पेट्रोल बचाना है। गुस्सा आता है। हम क्या जवान हैं? पैंसठ प्लस के हैं और तुम तो अभी बासठ प्लस के। हम बहाना बना देते हैं। पार्किंग नहीं मिलती है। ऑटो से जाऊंगा।

Wednesday, April 20, 2016

'वतन' के पीछे की हिस्ट्री!

- वीर विनोद छाबड़ा
२७ जनवरी १९६३ को दिल्ली का नेशनल स्टेडियम। दर्शकों से खचाखच भरा हुआ। इनमें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी मौजूद थे। लता जी ने गाना शुरू किया - ऐ मेरे वतन के लोगों तो अगले आठ मिनट तक पिन ड्राप साइलेंस रहा। और आखिर में स्टेज के अंधरे कोने से अचानक कोरस उठा 'जय हिंद की सेना...' सब हैरान रह गए। ज़बरदस्त इम्पैक्ट पड़ा इसका। माहौल में बिजली सी कौंधी हो जैसे। तालियों के ज़बरदस्त गड़गड़ाहट। आकाश गूंज उठा। नेहरू जी भी भावुक हो उठे। आंखों में आंसू आ गए।

अमर यादें कभी नहीं मरतीं। हिस्ट्री ही बन गया यह गाना। आज भी वो शब्द, वो आवाज़ और संगीत की कशिश, दिलों में अपनी मूल भावना के साथ ज़िंदा है।
और जैसा कि होता है कि हर मशहूरी के पीछे कुछ विवाद भी होते हैं। इस गाने के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।
इस कार्यक्रम के संयोजक दिलीप कुमार थे। चितलकर दिलीप कुमार की 'आज़ाद' के लिए हिट म्युज़िक दे चुके थे। उन्होंने चितलकर को याद किया।
वक्त कम था। जल्दी से कोई नायाब गाना चाहिए था। चितलकर को कवि प्रदीप की याद आई। दिलीप अभिनीत 'पैगाम' में दोनों का साथ हो चुका था - इंसान का इंसान से हो भाई चारा...।
प्रदीपजी ने माज़रा सुना और मज़ाक किया। फ़ोकट में लिखने की बात होती है तो मेरी याद आती है। खैर शुरू हुई मैराथन क़वायद। सौ से ज्यादा छंद लिखे गए। आखिर में छह ही फाईनल हुए। प्रदीपजी ने पूछा कि गायेगा कौन? चितलकर ने आशा भौंसले का नाम लिया। प्रदीप ने पूछा कि लता क्यों नहीं? दुनिया जानती थी कि चितलकर और लता में बहुत गहरी अनबन है। यों इसके पीछे एक नहीं, कई कहानियां हैं।
Pradeep, Lata & C.Ramchandra
बहरहाल, प्रदीप ने ज़िम्मेदारी ली कि लता को मना लेंगे। लता भड़क गईं, चितलकर का नाम सुनते ही। इधर चितलकर ने आशा के साथ रिहर्सल में दिन-रात एक कर दिए। एक दिन सहसा ही लता को इस प्रोग्राम की अहमियत का अहसास हुआ। वो चितलकर से सुलह करने चल दीं। लताजी बड़ी गायिका थीं। चितलकर से ना कहते नहीं बना। सुना है इसके पीछे दिलीप कुमार का हाथ था, जो अपनी छोटी बहन लता से हर साल राखी बंधवाते थे। इधर चितलकर परेशान  हो गए कि आशा को कैसे मना करें? दिल्ली का टिकट भी आ चुका था। उन्हें एक आईडिया सूझा। लता और आशा दोनों गायेंगी। रिहर्सल भी कराई। लेकिन नियति का अपना खेल है। एकाएक आशा बैक-आउट कर गईं।