Friday, June 30, 2017

ज़न्नाटेदार थप्पड़ ने ज़िंदगी बदल दी ललिता पवार की

-वीर विनोद छाबड़ा
ललिता पवार ने हिंदी सिनेमा में ५० से लेकर ८० तक के दशक में अनगिनित विभिन्न चरित्र भूमिकाएं निभाई हैं। लेकिन याद उनको सिर्फ नेगेटिव चरित्र  के लिए किया गया। वो ३० ४० के दशक की मराठी/हिंदी फिल्मों की मशहूर नायिका रहीं। लेकिन अति सफलता से दौड़ते ललिता के रथ को नज़र लग गई। एक त्रासदी ने उनकी ज़िंदगी की धारा असमय  ही बदल दी। 
हुआ ये कि १९४२ मेंजंगे आज़ादीका सेट लगा है। नायिका ललिता पवार है। एक छोटी सी महत्वपूर्ण भूमिका में हैं नवागंतुक भगवान, जो आगे भगवान दादा के नाम से मशहूर हुये।
शॉट यों है कि उन्हें नायिका ललिता को थप्पड़ मारना है। भगवान का कैरियर में अभी तक दो-तीन फिल्में ही हैं। कोई विशेष प्रभाव नही छोड़ा है। सोचा, मौका बढ़िया है एक्टिंग की धाक जमाने का, थोड़ा रीयल्टी पैदा करने का।
इधर जैसे ही डायरेक्टर ने टेक के लिये 'एक्शन' बोला, भगवान ने पूरी ताकत और तेज़ी से  हाथ घुमाया। इस ताक़त और तेज़ी के संबंध में ललिता को आगाह नहीं किया गया है।
परिणाम - ललिता सामंजस्य नहीं बैठा पायी। थप्पड़ के सामने से ससमय चेहरा नहीं हटा। और ज़न्नाटेदार थप्पड़ ललिता के बाएं गाल से थोड़ा ऊपर आंख के पास जा चिपका। तड़ाक....ललिता की आंख के सामने अंधेरा छा गया।
जोरदार थप्पड़ के प्रभाव से ललिता की बायीं आंख सूज गयी। शुरू में सूजन मामूली दिखी। दो-चार दिन में ठीक हो जाएगी। मगर जल्दी ही साफ हो गया कि यह सूजन मामूली नहीं है। बायीं आंख वाला वो हिस्सा आंशिक पैरालाइज़्ड है। डाक्टर ने लंबा ईलाज बताया। यह कभी ठीक भी होगी, इसमें भी संदेह है। तीन साल ईलाज चला। इस दौरान ललिता पल पल नारकीय यातना से गुज़री। ठीक होने के इंतज़ार में करोड़ों करवटें बदली।
जैसे तैसे ललिता ठीक हुई। मगर आईने ने डॉक्टर का संदेह पुख्ता कर दिया। बायीं आंख हमेशा के लिये थोड़ी छोटी हो गई। अब वो नायिका नहीं बन सकती। जार-जार रोयी, कल्पी। अभिनेता भगवान को लाख-लाख गालियां सुनाई। और ऊपर भगवान से पूछा कि उसकी क्या गलती है? भगवान के हर घर की दर पर दस्तक दी। मगरनियतिके विरूद्ध कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई।
जहां चाह, वहां राह। एक हमदर्द ने ललिता को सलाह दी कि चरित्र भूमिकाएं स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है। प्रतिभा का लोहा तो कैसी भी भूमिका में मनवाया जा सकता है। बात जंच गयी। अब एक आंख छोटी होने के कारण ललिता का लुक शातिराना हो गया। इस सच को भी पचाने में कड़ा परिश्रम किया।

Thursday, June 29, 2017

करे कोई और भरे कोई

-वीर विनोद छाबड़ा
अगर आप सरकारी नौकरी में पूरी लगन और ईमानदारी से काम में जुटे हैं तो यकीन मानिए कि मुसीबतों से भी सबसे ज्यादा साबका आपही को पड़ेगा। कामचोर और निकम्मे मौज उड़ाते हैं। न काम करो और न मुसीबत झेलो।
ये १९९७ की बात है। यों तो बिजली बोर्ड ज्वाइन किये मुझे चौब्बीस साल हो चुके थेसहायक अभियंता इस्टैब्लिशमेंट में तैनात हुए हफ्ता भर ही हुआ था। अभी काम के सिस्टम और तौर-तरीकों को समझ रहा था। पेंडिंग केस भी बहुत थे।
एक दिन डिप्टी सेक्रेटरी दीक्षितजी ने तलब किया और गोरखपुर से प्राप्त एक चार्ज सर्टिफिकेट दिखाया - मेरी याददाश्त के मुताबिक ये सहायक अभियंता दो साल पहले रिटायर हो चुका है। फिर ये दो सप्ताह पहले की डेट का चार्ज सर्टिफिकेट कैसे? चेक करो इस नाम के दो आदमी तो नहीं हैं।
मैंने फौरन रिकॉर्ड चेक किये। दीक्षितजी बिलकुल सही थे। ये आदमी दो साल पहले रिटायर हो चुका था। 
यों दीक्षितजी की याददाश्त अच्छी मानी जाती थी। दरअसल वो फील्ड में लंबे अरसे तक तैनात भी रहे थे। घाट-घाट का पानी पिए थे।
फिर क्या था? तुरंत-फुरंत नोट तैयार किया गया। चेयरमैन से आदेश लेकर संबंधित एरिया चीफ को हुकम दिया गया कि फौरन उस सहायक अभियंता की सेवाएं खत्म करें। साथ ही इन्क्वायरी के आदेश भी हो गए। तमाम आला अधिकारियों ने दीक्षितजी की और दीक्षितजी ने मेरी पीठ थपथपाई। लेकिन असली हीरो दीक्षितजी ही थे। मैं तो उस सेक्शन में नया ही था। अभी हालात और फाइलों की स्टडी ही कर रहा था।
खैर, विजिलेंस इन्क्वायरी शुरू हुई। एक इंस्पेक्टर मेरा बयान दर्ज करके ले गए।
उन्हीं दिनों अंडर सेक्रेटरी के पद पर मेरा प्रमोशन ड्यू था। लेकिन,मेरे विरुद्ध कई ढाई लाख रूपए का मिसलेनियस एडवांस पड़ा होने के कारण मेरा प्रमोशन रुक गया। पता चला कि ये एडवांस इसलिए डाला गया था कि उस दो साल ज्यादा नौकरी करने वाले सहायक अभियंता के विरुद्ध इन्क्वायरी चल रही है। और यदि इन्क्वायरी में मैं दोषी पाया गया तो दो साल ज्यादा नौकरी करने वाले के वेतन आदि के मद में भुगतान की गई रकम की वसूली की जा सके। ये एडवांस दीक्षितजी सहित अन्य कई अधिकारीयों के विरुद्ध भी डाला गया था।

Wednesday, June 28, 2017

सबसे पहले संस्कृत इन्हें पढ़ाओ

- वीर विनोद छाबड़ा
विवाह आदि संस्कार संपन्न कराने के लिए पंडित की ज़रूरत पड़ती है। यह पंडित अपने को ब्राह्मण कहते हैं। ब्राह्मण न भी हो तो भी चलता है। हम तस्दीक तो कर नहीं सकते। सदियों से चलता खानदानी व्यापार हैं इनका।
तमाम संस्कार संस्कृत के श्लोकों के उच्चारण के साथ संपन्न किये जाते हैं। यह भी ठीक है।
लेकिन अगर आप ध्यान सुनिए तो उच्चारण सही नहीं होता है। और श्लोक भी सही नहीं होते। यह भी समझ में नहीं आता कि संस्कृत पढ़ रहा है या इटेलियन या जर्मन। यह संदेह भी बना रहता है कि पंडित जी जन्मदिन पर मरण दिन का श्लोक तो नहीं पढ़ रहे होते हैं।
यह बात मुझे एक ऐसे पंडितजी ने कही जो शीशे के सामने खड़े होकर टीका लगाते हैं। सर्दियों में हफ़्तों नहाते नहीं हैं। कहते खुद को शुद्द ब्राह्मण हैं। एक बार स्वास्तिक का निशान उल्टा लगते हुए पकड़े भी जा चुके हैं। जजमान ने उन्हें पीटा नहीं क्योंकि वो भी कथित ब्राह्मण था।
मेरे विचार से संस्कृत पूजा-पाठ वाले पंडितों को सर्वप्रथम पढ़ानी चाहिए, जिससे कि मंत्रोचारण सही हो ताकि जजमान को अच्छे संस्कार मिलें। अच्छे संस्कार मिलेंगे तभी तो अच्छी सरकार चुनी जायेगी और धरती से भ्रष्टाचार का समूल नाश होगा।

Tuesday, June 27, 2017

जूता चोर चोरनी और इक हसीं ख्वाब

- वीर विनोद छाबड़ा
कल दोपहर खाना खाने के बाद जो नींद आयी तो शाम को ही टूटी। टूटी नहीं बल्कि तोड़ी गयी। मेमसाब 'चाय चाय' करती हुईं आयीं और एक झटके में नींद तहस-नहस कर गयीं। मैं उस समय कोई हसीन ख्वाब देख रहा था। यूं तो पचहत्तर फ़ीसदी ख्वाब मेमोरी से गायब हो जाते हैं और बचे हुए दो घंटे बाद वाश आउट। लेकिन अपवाद स्वरूप कुछ मष्तिष्क पटल पर टिके रह जाते हैं। कल वाला ख़्वाब भी कुछ ऐसा ही था।
हुआ यों कि मंदिर से हमारा नया नया स्पोर्ट्स शू चोरी हो गया था। हे भगवान, तेरे दर पर ये कैसा अंधरे? भक्त भी चोर होने लगे। मैंने पुलिस थाने में रपट लिखाई। अभी मैं थाने से बाहर निकला ही था कि पुलिस ने चोर को पकड़ लिया। मुझे हैरानी हुई कि लाखों-करोड़ों की चोरी का मामला तो पुलिस हल कर नहीं पाती और हमारे साढ़े छह सौ वाले जूता चोर को कैसे पुलिस ने कैसे आधे घंटे में धर दबोचा? इतना इंटरेस्ट लेने की वजह भी समझ में नहीं आयी। हैरानी तो और भी बढ़ी जब देखा कि वो जूता चोर चोरनी है।

दरोगा जी बड़े जोश में जोर जोर से ज़मीन पर डंडा और पैर फटका रहे थे - लड़की होकर जूते पहनती है और वो चुरा कर? जूता तो पकड़ में आ गया, अब जल्दी से यह भी बता कि कल कप्तान साहब की मेमसाब के जो सैंडिल चुराये थे वो कहां हैं?
अब मेरी समझ में आया कि जूता चोरी के मामले में दरोगा जी का बढ़-चढ़ कर के इंटरेस्ट लेने का कारण क्या है। वस्तुतः तलाश तो किसी सैंडिल की थी और हाथ में आया हमारा जूता।
वो लड़की बार बार कह रही थी - मैंने जूता चोरी नहीं किया है, यह जूते मेरे ही हैं। आजकल लेडीज़ भी जेंट्स जैसे जूते पहनती हैं। चाहो तो मेरे पापा से पूछ लो। मेरा मोबाईल वापस करो। मैं उनसे बात करा देते हैं। या आप खुद बात कर लें। उनका मोबाईल नंबर है.....।

Sunday, June 25, 2017

फ्लाई ओवर

- वीर विनोद छाबड़ा
मित्रों लखनऊ के गोमती नगर इलाके के जिस फ्लाईओवर पर मैं खड़ा हूं इसके नीचे सिंगल रेलवे लाइन है जो लखनऊ से वाया बाराबंकी गोंडा और गोरखपुर जाती है।
मुझे 1984 के वो दिन याद आ रहे हैं जब यहाँ सिर्फ़ रेलवे लाइन थी। क्रासिंग भी नहीं थी। दो लेन की सड़क थी। मैं अपनी मोपेड रेलवे लाइन पर से किसी तरह फंदा कर इंदिरा नगर से गोमती बैराज और डालीबाग़ होते हुए अशोक मार्ग स्थिति अपने ऑफिस आया जाया करता था।
गोमती नगर का इलाका आबाद हो गया, जो आज वीआईपी हो गया है। जल्दी ही रेलवे क्रासिंग बन गयी। यहां पर सड़क संकरी हो गयी। दो लेन से सिंगल लेन हो गयी। भीड़ होने लगी। अक्सर जाम लगने लगा। फाटक बंद होने का मतलब होता था कम से कम आधे घंटे का इंतज़ार। गर्मी और उमस के दिनों में हालत ख़राब हो जाती थी। मुझे याद है 2001 तक यही हालत रही।

यहां कार वाले स्क्रेच से बचने के लिए देर तक खड़े भीड़ छंटने का इंतज़ार करते मिलते। फिर फ्लाईओवर बन गया। एक साल से भी कम रिकॉर्ड समय में। आज तो इससे जुड़े दो फ्लाई ओवर बन गए हैं। शुरुआत में इरादा इसे साईकिल और स्कूटर के लिए बनाना था। लेकिन सरकार बदल गयी। इसका डिज़ाइन बदल गया इसे चौड़ा कर दिया गया। आज इन पर हैवी ट्रैफिक दौड़ता है। वीवीआईपी मूवमेंट के मौकों को छोड़ कर ट्रैफिक जाम का नामो-निशान नहीं रहा। अभी कुछ महीने पहले फैज़ाबाद रोड हाई कोर्ट की नई बिल्डिंग बन जाने के परिणाम स्वरूप ट्रैफिक बढ़ गया है। एक और फ्लाई ओवर बनाना पड़ बन गया है। लोहिया चौराहे से आने वाले वाहन सीधा हाई कोर्ट के क़रीब उतरते हैं। 

Saturday, June 24, 2017

तजुर्बे को सम्मान दो

- वीर विनोद छाबड़ा
अपने मुल्क में पढ़े-लिखे लोगों की कमी नहीं है। लेकिन हर आईएएस, आईपीएस, डॉक्टर, इंजीनियर, जज, शिक्षक, मास्टर या डिग्रीधारी विद्वान नहीं होता। अगर ऐसा होता तो हम आज जहां हैं, वहां बहुत पहले पहुंच गए होते। और आज की तारीख़ में अमेरिका, जापान, रूस और और चीन जैसे विकसित मुल्कों से कहीं आगे निकल गए होते। मुल्क में सकून होता। सोने की चिड़ियाँ चहचहा रही होतीं।
यों कई बार ऐसा भी होता है कि बिना डिग्री वाले डिग्री वालों से ज्यादा होशियार होते हैं।
एक बार हमने देखा कि एक सरकारी अस्पताल में बुढऊ कंपाउंडर अपने बॉस डॉक्टर को डांट रहा था - इतने छोटे बच्चे को इतनी स्ट्रांग एंटीबॉयटिक टेबलेट दी जाती है भला? पहले दवा टैस्ट कराइए, तब आगे बढ़िए। एमडी क्या कर लिए हैं कि जैसे तोप हो गए।
राज मिस्त्रियों को ही लीजिये। कई राजमिस्त्री बड़े बड़े आर्टिटेक्ट और सिविल इंजीनियर से भी ज्यादा जानते हैं। एक बड़े आदमी का घर बन रहा था। छोटी सी जगह से जीना निकालना था। आर्किटेक्ट की समझ में नहीं आ रहा था। सिविल इंजीनियर उनके दोस्त थे। वो भी फेल हो गए। उन दिनों हमारा मकान बन रहा था। हमारे मिस्त्री को बुला ले गये। उसने जुगाड़ निकाल लिया। आमतौर पर आम आदमी मकान-दुकान बनाते वक़्त राज-मिस्त्री के तजुर्बे का ही सहारा लेता है।
हम बिजली विभाग से रिटायर हुए हैं। संविदा पर काम करने वाले बिजली मज़दूर और मकैनिक अपने दम पर खुद ही फूंका हुआ ट्रांसफार्मर बदल लेते हैं। ऐसे ही लोगों के तजुर्बे के दम पर ही टिका है यह विभाग। डिप्लोमा या डिग्रीधारक इंजीनियर तो अंत में मुआयाना करने आते हैं।