Thursday, December 31, 2015

हादसा देख कर रुकना ज़रूर।

- वीर विनोद छाबड़ा 
हम जब भी मुकेश को देखते हैं तो हमें छह-सात बरस पुराना वाक्या याद आता है और शर्मिंदा भी होते हैं।

उस दिन फन मॉल के सामने एक भयानक एक्सीडेंट हुआ था। बहुत भीड़ लगी थी। पता चला कि स्कूटर पर थे पति-पत्नी। एक बस उनके ऊपर से गुज़र गयी। शायद कोई बचा नहीं। कौन थे वो? पता नहीं। आते-जाते लोग अपने वाहन किनारे खड़ी करके भीड़ में घुस रहे थे। तभी पुलिस आ गयी।
हमने एक गहरी सांस ली - पुलिस अस्पताल ले जायेगी उन्हें। किस्मत अच्छी होगी तो बच जाएंगे। 
हमें ऑफिस की देर हो रही थी। हम निकल लिए वहां से। हम ऑफिस जाकर बैठे ही थे कि पता चला कि हमारी एक सहकर्मी और उनके पति का फन मॉल के सामने ज़बरदस्त एक्सीडेंट हुआ है। लोहिया हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया है। दोनों की स्थिति गंभीर है। हम फ़ौरन भागे हॉस्पिटल। किस्मत के बहुत धनी थे दोनों कि उनके ऊपर से बस निकल जाने के बावजूद बच गए। सिर्फ़ हाथ-पैर टूट ही टूटे थे। स्कूटर का कचूमर ज़रूर निकल गया।
ऐसा ही एक वाक्या  हुआ था हमारे एक और मित्र के साथ। उनका स्कूटर किसी कार से भिड़ गया। भीड़ जुट गयी। उधर से उनका छोटा भाई गुज़रा। उसने सोचा न जाने कौन है? यहां तो तमाशा देखने के लिए भीड़ जुटती है। वो आगे निकल लिया। वो मोबाईल का ज़माना नहीं था। शाम को घर पहुंचा तो पता चला कि उसके बड़े भाई का एक्सीडेंट हो गया है। टांग टूट गयी है। और यह वही एक्सीडेंट था जिसे वो अनदेखा कर चलता बना था।
इसलिए अब कोई एक्सीडेंट होता है तो हम भीड़ में घुस कर देख ज़रूर लेते हैं कि कोई अपना या अपना अड़ोसी-पडोसी तो नहीं है या कोई ऐसा तो नहीं जिसे हमारी मदद की ज़रूरत हो।

Wednesday, December 30, 2015

चौंसठ प्लस पर भी लोहा-लाट है यह स्टूल।

- वीर विनोद छाबड़ा
आज दोपहर च्यास लगी। आठ किलोमीटर का रास्ता तय किया। अपने प्रिय मित्र राजन प्रसाद का दरवाज़ा नॉक किया। वो छत पर बैठे विटामिन-डी का फ्री सेवन कर रहे थे। हमें भी वहीं बुला लिया। इधर-उधर की थोड़ी गप-शप हुई कि चाय आ गयी।

अंधे को क्या चाहिए दो आंखें। हम धन्य हुए। जोश भी आ गया। सोचा कि आज च्यास पर डिसकस किया जाए।


इस बीच हमने चाय थामी और राजन जी मुम्टी से ने स्टूल खिसका लाये। हमने चाय उस पर रख दी। इससे पहले कि हम च्यास का टॉपिक छेड़ते कि राजन जी के स्टूल खिसकाने का दृश्य स्लो मोशन में हमारे सामने आ गया। ज़रूरत से ज्यादा ही ज़ोर लग रहा था। निसंदेह स्टूल का वज़न अन्य स्टूल के मुक़ाबले कुछ ज्यादा था। 

हमसे रहा न गया। स्टूल को तनिक अपनी और खिसका कर जायज़ा लिया। लेकिन स्टूल खिसका नहीं। थोड़ा ज्यादा बल देना पड़ा। ख़ानदानी है क्या?

राजनजी मुस्कुराये  - हां, पिताजी के ज़माने का है।
बस फिर क्या था। हम दोनों ही नॉस्टॅल्जिक हो गए। मेरे तक़रीबन हम उम्र हैं राजन। हम पैंसठ के तो वो चौंसठ के। मेरी ही तरह सरहद पार वाले पंजाबी खानदान से हैं। हम मियांवाली से तो वो पेशावर से। एक ही बोली बोलने वाले।


राजन बताने लगे - घुटने चलते हुए इसी स्टूल का सहारा लेकर खड़ा होना सीखा था। मेरे दोनों बच्चे भी इसी स्टूल से सहारे खड़े हुए हैं। अमृतसर और जालंधर के बीच करतारपुर है। वहां की लकड़ी का फर्नीचर बहुत मशहूर है। पिताजी वहीं से दो स्टूल खरीद कर लाये थे। तब पिताजी बिड़ला की रूबी जनरल इंश्योरेंस कंपनी में मुलाज़िम थे। बाद में यह कंपनी नेशनल इंश्योरेंस में मर्ज हो गयी। अमृतसर से जयपुर ट्रांसफर हुआ और फिर दिल्ली। और फिर लखनऊ के नरही की गली की इस उप-गली में। इस दौरान स्टूल साथ-साथ ही रहे। एक स्टूल बहन ले गयी - पिताजी की निशानी। यह मेरे पास। बीच से उठाने के लिए डिज़ाईनदार कट भी है। आज तक दूसरी कील नहीं ठुकी है। हां, बीच-बीच में पेंट ज़रूर हुआ है। आज भी उतना ही मज़बूत और भारी, लोहा-लाट। छत की मुम्टी में हिफाज़त से रखा हुआ है। 

Tuesday, December 29, 2015

क्यों न दिखे यूसुफ साहब और काका एक संग?

- वीर विनोद छाबड़ा 
दिलीप कुमार साहब पक्के परफेक्शनिस्ट थे। उन्हें एक-दो रिटेक में कभी आनंद नहीं मिला। रिटेक पर रिटेक। वो बात दूसरी है कि अक्सर पहला वाला ही फ़ाईनल रहा। नतीजा - छह महीने में तैयार होने वाली फिल्म दो साल में बनी और बजट भी बढ़ता चला गया।

कुछ-कुछ ऐसे ही थे हमारे काका उर्फ़ राजेश खन्ना। खासतौर पर तब जब अमरदीप (१९७९) से वो एक नए रूप में दिखे। उनके कैरियर में परफॉरमेंस के नज़रिये से ये यह एक शानदार फिल्म थी और साथ ही बॉक्स ऑफिस पर सफलता की वापसी भी। और 'अवतार' (१९८३) इस परफॉरमेंस की पराकाष्ठा थी।
दिलीप साब की धरोहर राजेश खन्ना में ही दिखती थी। दोनों पक्के स्टाइलिश और परफेक्शनिस्ट। ख़बर थी कि दिलीप कुमार और राजेश खन्ना में बहुत पटरी खाती थी। अक़्सर शामें साथ गुज़रती थीं। जाम के साथ राजनीति, फिल्म इंडस्ट्री और पारिवारिक मुद्दों पर लंबे डिस्कशन भी चले।
लेकिन हैरानी होती है कि अदाकारी की दुनिया में 'मील के पत्थर' इन दो लीजेंड को एक-साथ लाने की कोशिश क्यों नहीं की गई?
दिलीप कुमार-राजकपूर (अंदाज़), दिलीप कुमार-देवानंद (इंसानियत), दिलीप कुमार-संजीव कुमार (संघर्ष, विधाता)दिलीप कुमार-अमिताभ बच्चन (शक्ति), दिलीप कुमार-शम्मी कपूर (विधाता), दिलीप कुमार-नसीरुद्दीन शाह (कर्मा) और दिलीप कुमार-राजकुमार (पैगाम, सौदागर) जब एक साथ आये तो अदाकारी की दुनिया में  नए गुल खिले। परफॉरमेंस की शौकीनों के कलेजों पर ठंड पड़ी और तमाम एक्टर्स के इल्म में इज़ाफ़ा भी हुआ।

Monday, December 28, 2015

जीना इसी का नाम है।

-वीर विनोद छाबड़ा
कोई कह रहा है - वो खुशकिस्मत हैं जिनकी पत्नी नहीं है। अगर होती तो दम हो गया होता आपकी नाक में।

यह सुन कर हमें पच्चीस साल पहले सुहागरात का सीन याद आता है। पत्नी ने घूंघट उठाते ही ऐलान कर दिया था कि दूसरों की शादियों में भालू-बंदर नहीं बनोगे। बर्तन साफ नहीं करोगे। ये समाज सेवा बंद। घर में काम क्या कम है.तबसे तानाशाही निर्बाध कायम है।
दो राय नहीं ये कर्फ्यू लगता बहुत ख़राब तो है, लेकिन सच कहूं दोस्त, अच्छे पहलू भी बहुत हैं। कोई तो है जिसे हमारे विलंब से आने पर चिंता होती है। कहती है, दफ़्तर में फलानी से दूरी बना के रहना। सूरत से चिकनी-चुपड़ी मगर अंदर से निरी चुड़ैल है। बातें धर्म-कर्म की, मगर फैशन हेमा मालिनी जैसे। 
पार्टी में जाने से पहले मीनू तय कर देती है। क्या खाना है और क्या नहीं। लौट कर आने पर पूछती है क्या-क्या खाया? और कौन था वहां? क्या बातें हुईं? वो दफ़्तर वाली चुड़ैल तो नहीं थी?
इसके अलावा फ्री में वो ढेर सवाल जो एक मनोचिकित्सक मोटी फीस लेकर पूछता है।
हमें ज़रा सी छींक आती है तो परेशान खुद भी होती है, हमें भी करती है। यहां नहीं, वहां बैठो। थोड़ी-थोड़ी देर पर माथा और गर्दन छूती है - कहीं बुखार तो नहीं। चलो डॉक्टर के पास। दवा दिला देती हूं। एक डोज़ में भले-चंगे हो जाओगे।
सच, मां की याद आती है। वो भी ऐसा ही ख्याल रखती थी। हमें लगता है ज़िंदगी के एक खास पड़ाव के बाद पत्नी बिल्कुल मां जैसी दिखनी शुरू हो जाती हैं।
सच वो दिन कितना ख़राब होता है जब पत्नी अस्वस्थ होती है। मरघटा सा सन्नाटा है। उसे खाना अच्छा नहीं लगता तो हम भी नहीं खा पाते। मरियल सी वाणी में कहती रहती है - कितनी बार कहा थोड़ा चौका-बर्तन सीख लो। वक्त ज़रूरत काम आएगा...खैर अब थोड़ा-बहुत जैसे-तैसे बना दिया है। खा लेना। नहीं तो कमजोर हो जाओगे। तुम्हें सुबह-शाम बीपी और हाइपरटेंशन की दवा भी खानी है। ये सख़्त सर्दी का सीज़न बड़ा ख़तरनाक़ होता है। तुम ताक़तवर नहीं होगे तो मेरा ख्याल कैसे रखोगे? मेरी चिंता मत करो। मैं जाने वाली नहीं। दवा खा ली है। देखना कल तक ठीक हो जाऊंगी। बच्चे बड़े हो गए हैं। मगर तुम्हारे जैसे नालायक हैं। ध्यान रखना इनका, कहीं उल्टा-सीधा खाकर बीमार न पड़ जायें।

Sunday, December 27, 2015

बिन वीज़ा मुझे भी भिजवा दो पाकिस्तान।

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे पीएम मोदी जी लाहोर हो आये। कोई खुश है और कोई नाराज़। सबके अपने अपने कारण हैं और निहितार्थ भी। मोदी जी को कोई फेल कर रहा है तो कोई पास।
 
लेकिन मेरे लिए अच्छी ख़बर यह है कि अगर हमारे प्रधानमंत्री जी ने बिना वीज़ा के लाहोर का चक्कर लगा सकते हैं तो आम आदमी भी लगा सकता है। अगर ऐसा मुमकिन हुआ तो बिना वीज़ा पाकिस्तान जाने वालों की लाईन में मैं भी लगा मिलूंगा।

मेरे पुरखे पाकिस्तान के मियांवाली ख़ास के रहने थे। मेरे माता-पिता और तमाम दीग़र रिश्तेदारों को पार्टीशन की बाध्यता के कारण १९४७ में घरद्वार छोड़ कर भारत आना पड़ा। रास्ते में हो रहे दंगे-फसादों से भी दो-चार होना पड़ा। उन्हें उम्मीद थी कि हालात नार्मल होंगे और वो अपने घरों को, अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे। ज़मीन से उनके बेतहाशा इश्क के कारण  इस्लामिक स्टेट होने के बावजूद भी पाकिस्तान उन्हें कबूल था।


लेकिन हालात बद से बदतर हो गए। उन्हें अपनी ज़मीन और मकान से महरूम होना पड़ा। दोबारा से कुटिया बनानी पड़ी, हाड़ मेहनत करके सरमाया खड़ा करना पड़ा। 

हमारा परिवार रोज़ी-रोटी की तलाश में इधर-उधर बिखर गया। लेकिन घर और ज़मीन की याद दिलों से नहीं गयी। मेरे पिता राम लाल उर्दू के सुप्रसिद्ध लेखक रहे हैं। उन्हें १९८० में पाकिस्तान जाने का मौका मिला। 
वो लाहोर के उस घर में गए जहां से उन्होंने आख़िरी मरतबे पाकिस्तान को देखा था और मियांवाली के उस स्कूल में गए जहां से उन्होंने हाई-स्कूल पास किया था। उस पेड़ के नीचे भी जाकर कुछ देर खड़े हुए जहां मेरी मां अपनी सखियों संग किकली और गीटे खेलती थी। पिताजी उस घर में भी गए जहां वो पैदा हुए थे। उन्होंने अपने घर की दीवारों से मुख़ातिब होकर अपने पुरखों से कहा था - मैं इस ख़ानदान का आख़िरी आदमी हूं जो यहां आया हूं, मेरे बाद यहां कोई नहीं आयेगा।


मैं अपने मरहूम पिता को बहुत चाहता हूं, उनकी बेइंतहा इज़्ज़त करता हूं। यूं तो मैं बहुत शांत आदमी हूं, खून चूसने वाले मच्छर तक को मारने से परहेज़ करता हूं, लेकिन पिताजी को कोई अपशब्द कहता हैं तो मरने-मारने पर उतारू हो जाता हूं। मगर इस सबके बावजूद मैं अपने पिता को झुठलाना चाहता हूं।

मैं भी उन दरो-दीवारों से मुख़ातिब होकर अपने पुरखों को बताना चाहता हूं - आपका एक और वारिस भी यहां आया है।

Saturday, December 26, 2015

रे मन! गीत लिखूं मैं कैसे?

रिपोर्ट - वीर विनोद छाबड़ा
दिनांक २४ दिसंबर २०१५ - लखनऊ पुस्तक मेला स्थल। चार कथा, काव्य व निबंध पुस्तकों की रचियता तथा सुप्रसिद्ध लेखिका शीला पांडे के पहला गीत संग्रह 'रे मन गीत लिखूं मैं कैसे?' का विमोचन।  कार्यक्रम की अध्यक्षता हिंदी संस्थान के अध्यक्ष एवं सुप्रसिद्ध कवि उदय प्रताप सिंह ने की और विशिष्ट अथिति थे सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार गोपाल चतुर्वेदी। 
Sheela Pandey

शीला पांडे ने अपने लेखकीय वक्तव्य में बताया कि जीवन ही कविता है। प्रकृति का जीवन से गहरा रिश्ता है। प्रकृति की सजीव मूक अभिव्यक्ति मानव भावनाओं को सींचती है, संवर्धन करती है। प्रकृति हमसे संवाद करती है और हममें कोमल व उदार भाव पोषित करती है। यदि मानव जीवन का सिर्फ यथार्थ लिखा जाये तो सूखेपन और आक्रोश का जन्म होता है। संघर्ष मानव जीवन की तरलता और चहक को सोख कर जीवन को नीरस बनाता है। छंदबद्ध कवितायें मानव जीवन को संजोती हैं। मानव जब अपने अंतर्मन की यात्रा करता है और उसका बोध करता है तो उसके भीतर से प्रकाश प्रस्फुटित होता है। सामाजिक सरोकारों के साथ प्रकृति और कविता के प्रति दृष्टिकोण विकसित करना आज की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। इसी के दृष्टिगत 'रे मन गीत लिखूं मैं कैसे' लिखा गया है। 


प्रसिद्ध कवि डॉ मधुकर अष्ठाना के अनुसार साहित्य मानवता की पाठशाला है। गीत सर्वश्रेष्ठ  है। गीत संवेदना को प्रभावित करता है। प्रत्येक गीत नवगीत नहीं होता। गीत में प्रगतिशीलता के कारण नवगीत बना। शीलाजी की कवितायें नारी जीवन के संघर्ष का बोध कराती हैं। इनमें मौलिकता है। प्रगतिशीलता दूर तक ले जाती है। प्रकृति से बेहद प्रभावित हैं। नए प्रयोग करती हैं। चित्रकार की भांति चित्र खींचती हैं। ऋतुओं को जीवंत करती हैं और उपमाओं से मन की बात करती हैं। मन की पीड़ा की अभिव्यक्ति है। नवीनता दिखती है। व्यक्तिगत पीड़ा सामाजिक पीड़ा में प्रकट होती है। अपार संभावनाएं हैं शीलाजी में।

सुप्रसिद्ध कवि और दार्शनिक डॉ अनिल मिश्र ने बताया कि संपूर्ण साहित्यिक वातावरण और सोच में अस्पष्टता की स्थिति है। कवित्व में जब लयबद्धता आ गयी तो वही कविता बन गयी। सृष्टि में ही लयबद्धता है। शीलाजी और उनके जैसे इसे आगे बढ़ाते रहेंगे। बहुआयामी है उनकी यह पुस्तक। भाव और भाषा को ढोने के लिए शब्द स्वयं आने लगते हैं। गीत में अनुशासन है।

Gopal Chaturvedi
सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार गोपाल चतुर्वेदी ने बताया कि शीलाजी कविताएं बहुत अच्छी हैं। मानवीय संवेदनाओं का मानवीय चेहरा छंद में है। पुरवाई की शीतलता की तरह है यह कविता संग्रह। जीवन में अगर सुख चैन है तो बहुत अच्छा है। जीवन और कविता में अनुशासन ज़रूरी है और शीलाजी में ये बात है। भंवर में डूब जाने का भाव बताता है कि कवि कितना साहसी है।

Friday, December 25, 2015

साधना - जो हमने दास्तां अपनी सुनाई...

- वीर विनोद छाबड़ा
ख़बर आई है, साधना को कैंसर लील गया। हम डाउन मेमोरी लेन में चले गए। बाल्यावस्था थी जब हमने साधना की फ़िल्म देखी थी- हम दोनों। अभी न जाओ छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं...। हमारे दिल में समा गयी।

उनकी पहली फ़िल्म लव इन शिमला को हमने बाद में हाफ रेट पर देखा। पहली ही फिल्म से वो फैशन का आइकॉन बन गयी। माथे पर फैले हुए तराशे बाल। साधना कट के नाम से बहुत मशहूर हुए। मेरे महबूब में साधना की बुर्के से झांकती नशीली आंखों ने कहर ढा दिया। वाह, सिर्फ़ आंखें ही काफ़ी हैं खूबसूरती का ज़रूरी इफ़ेक्ट डालने के लिए। इसी फ़िल्म में उनका चूड़ीदार कुरता-पायजामा भी घर-घर में चर्चा पा गया।

एचएस रवैल ने साधना की आंखों में नशीलापन देखा तो राजखोसला को उन आंखों में एक उसमें रहस्यमई किरदार दिखा - नैना बरसे रिम-झिम....ट्राइलॉजी ही बना डाली - वो कौन थी, मेरा साया और अनीता।

साधना ने एक एक्स्ट्रा के तौर पर कैरियर शुरू किया था। मुड़ मुड़ के न देख मुड़ के....नादिरा और राज कपूर पर फ़िल्माये 'श्री ४२०' इस गाने में उनकी कुछ झलक दिखी थीं। बरसों बाद 'दूल्हा-दुल्हन में वो राजकपूर की नायिका बनीं।

राजेंद्र कुमार के साथ मेरे महबूब के बाद आरज़ू ने भी ज़बरदस्त तहलका मचाया था। साधना के ग्लैमर को भुनाया बीआर चोपड़ा ने वक़्त में....कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी... सुनील दत्त उनके नायक थे। सुनील के साथ आगे चल साधना ने ग़बन और गीता मेरा नाम की। गीता... को साधना ने डाइरेक्ट भी किया था।

साधना के पति आरके नैयर खुद कामयाब डायरेक्टर थे। उन्होंने साधना की पहली फ़िल्म लव... डायरेक्ट की थी। बाद में साधना को नैयर ने इंतकाम में डाइरेक्ट किया।

साधना अपने दौर में अगर युवकों के दिल की रानी थी तो युवतियों के दिल में देवानंद। हम दोनों के अलावा साधना ने देव के साथ हृषिकेश की 'असली नकली' की। पहली बार जाना कि साधना सिर्फ़ फैशन का नाम नहीं, बेहतरीन अदाकारा भी है। एक फूल दो माली और इंतकाम में साधना को बतौर एक्ट्रेस याद करने में कोई बुराई नहीं।

Thursday, December 24, 2015

गुरुदत्त - जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.…


-वीर विनोद छाबड़ा
सन १९५७ में रिलीज़ हुई थी मुंबई के मिनर्वा थिएटर में गुरुदत्त की 'प्यासा'
व्यवस्था और सत्ता, समाज के अलमदारों और ठेकेदारों, नेताओं और अफ़सरशाही पर ज़बरदस्त सीधा प्रहार और तंज़ कसती थी ये फ़िल्म।

इसमें साहिर का एक गाना था - जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.
जब ये गाना स्क्रीन पर प्ले हुआ तो सारे दर्शक उठ कर खड़े हो गए। उन्होंने खूब तालियां बजाईं और जम कर 'वन्समोर' के नारे लगाये।
सिनेमा हाल के प्रबंधक परेशान कि क्या करें। आख़िरकार दर्शकों के बेतरह शोर-गुल और मांग के दबाव में उन्हें यह गाना दुबारा प्ले करना पड़ा। इतने पर भी दर्शकों का दिल नहीं भरा। तीसरी बार प्ले करना पड़ा।
याद नहीं पड़ता कि भारतीय सिनेमा के इतिहास में ऐसी घटना पहले और बाद में कभी हुई हो।
'प्यासा' की गिनती सदी की पांच श्रेष्ठ फिल्मों में होती है। सुना है इस गाने को सुन कर शीर्ष नेताओं में बहुत खलबली मची थी। इसे प्रतिबंधित किये जाने की मांग भी हुई। लेकिन अंततः सच्चाई को स्वीकार कर लिया गया।
पेश है गाना -
ये कूचे, ये नीलामघर दिलकशी के
ये लुटते हए कारवां ज़िंदगी के
कहां हैं, कहां हैं मुहाफ़िज़ खुदी के
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.
ये पुरपेच गलियां, ये बदनाम बाज़ार
ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झंकार
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पर तकरार
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.
ये सदियों से बेख्वाब, सहमी सी गलियां
ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियां
ये बिकती हुई खोखली रंग-रलियाँ
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.
ये उजले दरीचों में पायल की छन छन
थकी-हारी सांसों पे तबले की धन धन
ये बेरहम कमरों में खांसी की ठन ठन
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.
ये फूलों के गज़रे, ये पीकों के छींटे
ये बेबाक नज़रें, ये गुस्ताख़ फ़िकरे
ये ढलके बदन, ये बीमार चेहरे
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.
यहां पीर भी आ चुके, जवां भी
तनोमंद बेटे भी, अब्बा, मियां भी
ये बीवी भी है, और बहन भी है, मां भी
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.

Wednesday, December 23, 2015

आप भी अंकल...

- वीर विनोद छाबड़ा
आज हम अपनी नई स्कूटी सुंदरी को टहलाने बाहर निकले। देर शाम का वक़्त था। चिराग़ जल चुके थे।

हमने भूतनाथ मार्किट पर एक दुकान के सामने स्कूटी रोकी। कायदे से लॉक किया। बार बार पीछे मुड़ कर देखा। डर लग रहा था, नई-नई है। पहली बार बाहर निकली है और वो भी बिना नंबर की। चोरी हो गयी तो कसूरवार हमीं होंगे कि बिना नंबर की गाड़ी लेकर सड़क पर निकले ही क्यों? और फिर सामने अधिकृत पार्किंग पर क्यों नहीं खड़ी की?
बहरहाल, जल्दी से सामान लेकर बाहर निकले। चाबी लगाई। लेकिन हैंडिल लॉक नहीं खुला। दायें-बायें कई यत्न किये। मगर सब निष्फल साबित हुए। शायद है लॉक ख़राब हो गया है। अभी परसों ही तो खरीदी है।
थोड़ी दूर दो लड़के खड़े थे। उन्हें इशारे से बुलाया। कृपया हेल्प करो। वो भी बहुत देर तक दायें-बायें चाबी घुमाते रहे। मगर कोई फ़ायदा नहीं हुए। यह कह कर निकल लिए कि कंपनी वालों को फोन करो।
हमने जेब में हाथ डाला। मोबाईल भी नहीं था। घर भूल भूल आये थे। तभी एक लड़की बगल में आकर रुकी। ठीक मेरी वाली ही स्कूटी। मोबाईल पर किसी से बात करने लगी।
हमने उसे टोका - बेटी, तुम्हारी जैसी प्लेज़र मेरी भी है। लॉक नहीं खुल रहा। प्लीज़ हेल्प। उसने फ़ौरन मोबाईल बंद किया। हमने उसे चाबी दी।
लड़की ने स्कूटी का निरीक्षण किया। फिर बिगड़ गयी - यह प्लेज़र नहीं एक्टिवा है।

Tuesday, December 22, 2015

ये त्रिवेदाईन तो मिसराईन निकलीं।

- वीर विनोद छाबड़ा
ब्राह्मण लोग मीठा खाने के ही नहीं, खिलाने के भी शौक़ीन होते हैं। कम से कम हमारा तो यही अनुभव है।
ब्राह्मणों में हम ज्यादातर मिश्रा लोगों से घिरे रहे हैं। उनकी मिसराईनें न सिर्फ़ बहुत स्वादिष्ट व्यंजन बनाती ही हैं, बल्कि मात्रा भी भरपूर रखती हैं, ताकि हर कोई पूर्णतया तृप्त होये और जय जयकार करता हुआ बाहर निकले।

हमारे घर के ठीक पीछे कमल त्रिवेदी उर्फ़ पंडित जी का घर है। हमारे बहुत की घनिष्ट मित्र रहे। अफ़सोस कि वो अब इस दुनिया में नहीं हैं। जब तक वो जीवित रहे, हमारा उनके घर तक़रीबन रोज़ाना जाना रहा। उनकी त्रिवेदाईन बहुत ही लज़ीज़ व्यंजन बनाती थीं। उन्होंने जब भी कुछ नया बनाया, सबसे पहला एक्सपेरीमेंट हमारे पर ही किया। और हमने भी उन्हें कभी फेल नहीं किया। गुलाब जामुन तो अक्सर बनते ही थे, जलेबी-इमरती तक घर में परफेक्टली बनाये। इसके अलावा डोसा-इडली, समोसा आदि भी आये दिन बना करता था। मेहमान भी उनके यहां खूब आया करते थे। इसलिए कुछ न कुछ बनता ही रहता था और हम भी इसी बहाने गंगा में डुबकी लगा लेते।
दरअसल हमारे पंडित जी हर वक़्त कुछ न कुछ स्पेशल खाने-पीने के शौक़ीन रहे। इसलिए उनकी त्रिवेदाईन का ज्यादा वक़्त किचेन में गुज़रता था। नाना प्रकार के व्यंजन बनाने की दक्षता वो अपने मायके से ही लेकर आयीं थीं। हमें इतना मालूम था कि उनका मायका जिला कन्नौज के तिर्वा में था। तिर्वा से आये लल्लू के पेड़े और कन्नौज के गट्टे हमें कई बार खाने को मिले। त्रिवेदन जी सास के प्यार से पहले ही दिन से महरूम रहीं।

Monday, December 21, 2015

जिन्हें नाज़ था हिंद पे, वो कहां हैं?

- वीर विनोद छाबड़ा
कुछ लोग होते हैं, लकीर के फ़क़ीर। जैसे प्रेमबाबू, हमेशा अतीत में खोये और वर्तमान को गरियाते हुए।
कल ही की तो बात है। बंदे को देखते ही भड़क उठे - क्या ज़माना आ गया है? तेरवीं भी भ्रष्ट हो गयी। सोचा था ज़मीन पर बैठ कर पत्तल में कद्दू-पूड़ी मिलेगी। इसी बहाने भारतीय संस्कृति के दर्शन होंगे। मगर अब यहां भी सब उल्टा-पुल्टा हो गया।
नासपीटों ने गिद्ध भोज खिलाया। कहते हैं, यह बुफ़े है। अंग्रेज़ों की औलाद कहीं के। मरने वाला क ख ग वाला मास्टर था। बेशर्मी की हद कि पूछ रहे थे, वेज या नान-वेज। बेटा खींसें निपोर रहा था, बाबूजी बिरयानी खाते हुए गए। कह गए थे कि मुंह में गंगाजल की जगह दो बूंद मदिरा टपका देना और मुर्गा सबको ज़रूर खिलाना। तुर्रा यह कि सब नान-वेज भकोस रहे थे। हमारा तो खून खौल गया। सीता होते तो समा जाते ज़मीं में। मिनरल वाटर पीकर चले आये।
बंदा समझाने की कोशिश करता है कि तेरवीं में बुफ़े अब आम है।
मगर प्रेमबाबू बेअसर, वही 'एक हमारा ज़माना' की टेर। बिछौना और पीतल के बर्तनों में दाल-चावल। घड़े का ठंडा पानी और आत्मा तृप्त। अब डाईनिंग टेबुल है। अनब्रेकेबुल सिरेमिक क्राकरी में पिज़्ज़ा, नूडल-चाऊमीन, मंचूरियन और सैंडविच खा रहे हैं। चीन, जापान, कोरिया, इटली किसी को न छोड़ा। अंगीठी, चूल्हा, किरोसिन स्टोव इतिहास बन गए। ये मोबाईल, डिजिटल कैमरे, टीवी, कम्प्यूटर वगैरह देखिये। अपना तो कुछ भी तो नही दिखता यहां। कभी विदेशी आईटम अमीरों की बपौती थे। अमीर भी खुश और औकात नहीं होने के कारण हम ग़रीब भी खुश। अब घर-घर में फारेन का माल। मेड इन फारेन की मिट्टी पलीद कर दी। हमारे वक़्त में सिर्फ़ लाट साहबों और अमीरों की औलादें ही फॉरन जाती थीं। अब एैरा-गैरा, नत्थू-खैरा जा रहा है। मानों बाज़ार शापिंग करने जा रहे हैं। मज़ाक हो गया है विलायत जाना।

Sunday, December 20, 2015

और हम हो गए ६५ के!

- वीर विनोद छाबड़ा
यक़ीन नहीं आता कि हमने ६५ साल पार कर लिए।
अभी कल ही की तो बात है हम दरवाज़े पर बैठे हम तीन भाई-बहन पिताजी के ड्यूटी से लौटने का इंतज़ार कर रहे थे। शाम का धुंधलका गहरा हो चुका है। तभी सीढ़ी कंधे पर रखे एक आदमी आया। उसने लैंप पोस्ट से सीढ़ी टिकाई। कंधे से लटकी बोतल से मट्टी का तेल उसमें डाला और दियासलाई दिखा दी। रोशन हो लैंप पोस्ट और आस-पास का नज़ारा भी।

ये पहली-पहली याद है। उस समय हमारी उम्र छह बरस की रही होगी। उसके बाद से कितनी ही यादें हैं। तपती गर्मी और आलमबाग के रेलवे क्वार्टरों में खड़े विशाल जंगल जलेबी के पेड़। सिंगार नगर की नहर में नंगे हो कर नहाना। पटाखे चोरी करने पर पकड़े जाना। घर आये मेहमान को जुमे की नमाज़ के लिए मस्जिद की बजाये मंदिर के सामने खड़ा कर दिया। साईकिल चलाना सीखते हुए कई बार बुरी तरह चोटिल हुए। पढाई की बजाये खेल कूद में ज्यादा मन लगना। गिरते-पड़ते हाई स्कूल तक पहुंचे। पिक्चरबाज़ी का शौक चढ़ना। नतीजा, फेल हो गए। अगली बार संभल गए। लेकिन पिक्चरबाज़ी न छूटी। इंटर में फिर फेल हुए। गहरा धक्का लगा। मां ने सपना देखा था बेटा डॉक्टर बने और पिताजी इंजीनियर बनाना चाहते थे। हमसे न पूछा गया, बेटा तू क्या बनेगा?
वक़्त पीछे छूट रहा था। हमने रेस लगानी शुरू की। बहुत की चाह कभी नहीं रही। जितना चाहा मिलता गया। बहुत संघर्ष नहीं करना पड़ा। किसी ने मदद नहीं की। दोस्तों ने रास्ता ज़रूर दिखाया। अपने पिता जैसा महान नहीं बन पाया लेकिन उनकी तरह सेल्फ़मेड ज़रूर बन गया। अपनी नौकरी खुद तलाशी। उन्हें छह महीने बाद पता चला कि हम इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में मामूली असिस्टेंट की नौकरी कर रहे हैं। बहुत नाराज़ हुए। बहुत ऊंचे सपने देखे थे। लेकिन जब दो साल बाद अपर डिवीज़न का टफ़ एग्जाम पास कर लिया तो उनको कुछ तसल्ली हुई।
शादी हुई। हमने सोचा था हम पढ़े-लिखे हैं, साहित्यिक माहौल है हमारे घर का। लिहाज़ा हम औरों से अलग हैं। लेकिन यहां भी कहानी घर-घर जैसी निकली। हमें बहुत अफ़सोस हुआ। हम यायावर बन चाहते थे। उड़ना चाहते थे। लेकिन पारिवारिक उत्तरदायित्वों के बोझ तले हम दबते चले गए। इसके लिए हम दोष किसी को नहीं देते। इन्हें हमने खुद स्वीकार किया।
ऑफिस में भी हमने ज़रूरत से ज्यादा दायित्वों को निभाया। कई बार व्हिसल ब्लोअर का काम किया तो अपने ही हाथ जला बैठे। एक बार चार्जशीट तक मिल गयी। लेकिन हमारे यक़ीन ने साथ नहीं छोड़ा कभी। हर बार हम बाईज़्ज़त बरी हुए।