Sunday, August 31, 2014

अथ श्री धार्मिक और पौराणिक सिनेमा!

--वीर विनोद छाबड़ा

एक ज़माने में धार्मिक और पौराणिक फिल्मों का भी एक बड़ा बाज़ार था। साहू मोदक, महिपाल, बी एम व्यास, जीवन, निरंजन शर्मा, अनीता गुहा, अंजना, निशि, मारुती, शेख आदि कलाकारों की तूती बोलती थी।

लेकिन कभी-कभी पृथ्वीराज कपूर जैसे दिग्गज को 'हरिश्चंद्र तारामती' में देख कर सुखद अहसास होता
था कि इंडस्ट्री का ये पक्ष इतना उपेक्षित नहीं है। अभिभटाचार्य भी कभी दिख जाते थे। ए ग्रेड फिल्मों के पॉपुलर विलेन जीवन स्थाई नारद थे। बिस्वजीत और मौसमी चटर्जी को राम और सीता के रूप में जय बजरंग बली में देखा था। उन दिनों रामायण पर आधारित जो भी फिल्म बनती थी हनुमान जी की भूमिका दारा सिंह के लिए पक्की होती थी। दूरदर्शन के लिए रामानंद सागर द्वारा बनाये सीरियल - रामायण- में भी दारा सिंह थे। हनुमान जी का पर्याय बन गए थे।दूरदर्शन पर रामायण जहाँ हर खासोआम देखता था। सीरियल के चलते सड़कें सूनी हो जाती थी। वहीं सिने संसार में धार्मिक फिल्मों की गिनती सी-ग्रेड की श्रेणी में होती थीं। रिलीज़ के लिए थिएटर भी घटिया श्रेणी के ही मिलते थे। कभी कभी ही अच्छे मिलते थे।


ज्यादातर धार्मिक फ़िल्में कास्ट्यूम ड्रामा होती थीं। दर्शकों की कैटेगरी भोली-भाली धर्मपरायण और गुबरा-फुकरा किस्म की जनता थी। 

अब चूंकि मैं धाकड़ फिल्मबाज़ था, इसलिए हर किस्म की फिल्म देखना फ़र्ज़ था। लेकिन सच कहूं तो मैंने इनका भरपूर परमांनंद लिया। पूरी श्रद्धा और जोश से देखीं। उसमे कला पक्ष भी तलाशने की जुस्तजू रहती थी। कभी धार्मिक और पौराणिक फिल्मो पर कई लेख भी लिखे। भक्त पप्रह्लाद, बालक ध्रुव, तीर्थ यात्रा, वीर हनुमान, संपूर्ण रामायण, जय बजरंगबली आदि पचासों फ़िल्में देखी। 

Thursday, August 28, 2014

तीन दिलचस्प ख़बरें!

-वीर विनोद छाबड़ा

--- ननद-भौजाई के झगड़े में बुज़ुर्ग की मौत।

शादी के बाद अगर सास-बहु या ननद-भौजाई में पटरी नहीं खाती तो सबसे ज्यादा फज़ीहत पति की होती है।

किसका पक्ष ले? उस पत्नी का पक्ष ले जो उसके भरोसे अपने मां बाप भाई बहन को हमेशा के लिए छोड़ कर आई है या उनका पक्ष ले या उस मां का पक्ष ले जिसने उसे छाती का दूध ही नहीं पिलाया बल्कि जाने कितनी रातें जाग जाग कर लोरियां सुनाई हैं। उस बहन का पक्ष ले जिसके आंख मिचौली खेल कर बड़ा हुआ है।
किसी भी तरफ झुका नहीं कि शामत आई।
लेकिन हमारे शहर लखनऊ में कल ऐसा नहीं हुआ। नवभारत टाइम्स लखनऊ दिनांक २८ अगस्त २०१४ में छपी ख़बर के अनुसार ननद-भौजाई  के झगडे में पति भाग निकला कि कहीं दोनों मिल कर उसे न पीट दें।
बाकी सदस्यों को कर मुक्त मनोरंजन की सामग्री मिल रही थी। वो भला क्यों बीच में पड़ कर अपना सर फुड़वाते।
मगर पति के पिता से ये बर्दाश्त नहीं हुआ कि घर में झगड़ा हो और बाहर के लोग तमाशा देखें।
वो उन दोनों के बीच चल रही हाथापाई को छुड़ाने की गर्ज़ से बीच में कूद गया।
धक्का लगा। वो गिरा। ऐसा गिरा कि फिर नहीं उठा।

--- तेरहीं बदली जश्न में!

ज़िंदगी एक तमाशा है। आदमी कुछ सोचता है और ऊपर वाला कुछ और सोच कर ही बैठा होता है जिसे न कोई कोई जान पाता और न ही अंदाज़ा लगा पाता है।
इस सिलसिले में टाइम्स ऑफ़ इंडिया लखनऊ दिनांक २८ अगस्त २०१४ में दिलचस्प ख़बर छपी है 
अब देखिये न। श्यामले का शिद्दत से इंतज़ार था। नहीं आया। एक दिन गुज़रा। दूसरा भी और फिर
तीसरा भी। अंखियां थक गयीं। पुलिस में रपट लिखी गयी।
पुलिस श्यामले की तलाश करने निकली। वो न मिला। एक क्षत-विक्षप्त लाश देखी। पत्थर दिल पुलिस उठा लाई।
श्यामले के पिता ने तस्दीक की। हां, ये तो वही है अपना श्यामले। घरवाले दहाड़ें मार मार रोये। फिर थक गए। जाने वाला कभी वापस आया क्या?
पुलिस में रपट लिखाई गई श्यामले के ससुराल पक्ष के ख़िलाफ़। पुलिस ने दो बंदे पकड़ कर सलाखों के पीछे कर दिए।
इधर श्यामले का भारी मन से अंतिम संस्कार कर दिया गया।
तेरवीं की तैयारी थी उस दिन। मगर जाने कहां से श्यामले आ टपका। नहीं वो कोई भूत वूत नहीं था। जीता जागता बंदा अपना श्यामले ही था। अच्छी तरह छू कर टटोल कर तसल्ली कर ली गयी।
मातम की बजाय खुशियां मनाई गई। इस ख़ुशी में सब भूल गए कि वो लाश किसकी फूंकी गयी थी। जिसकी भी थी उसको सम्मान तो मिल गया। नहीं तो लावारिस घोषित करके बिना किसी विधि विधान के दफ़न हो जाता या नदी में बहा दिया जाता जहां उसे मछलियां नोच नोच कर खा जातीं। और वो नाहक बंद किये गए बंदे! उन्हें छोड़ दिया गया। 
इसी को कहते हैं दुनिया रंग रंगीली रे, बाबा दुनिया रंग रंगीली।

--- बहन से ठगी।

कैसे कैसे निकृष्ट लोग होते हैं।
बहन बहनोई को भी ठगने से बाज़ नहीं आते।
रकम भी छोटी मोटी नहीं है। पूरे तरह लाख है।
ऐसे भाई को तो छोड़ना ही नहीं चाहिए।
नवभारत टाइम्स लखनऊ दिनांक २८ अगस्त २०१४ के अंक में ये ख़बर पढ़ कर मज़ा आ गया कि बहन ने भाई के ख़िलाफ़ रपट लिखा दी है।
अब पुलिस को चाहिए कि उस नाशुक्रे भाई के ख़िलाफ़ जल्दी से तहकीकात करके कोर्ट में मुक़दमा दायर करे और ऐसी सख्त सजा दिलाये कि बाकी भाई लोगों को इबरत हासिल हो।  

--- वीर विनोद छाबड़ा 28-08-2014 mob.7505663626 


Wednesday, August 27, 2014

हिंदी मीडियम में अंग्रेज़ी ज्ञान!

-वीर विनोद छाबड़ा

मित्रों। दसवें तक अंग्रेजी में हाथ थोड़ा कम रहा ।
घर में उर्दू माहौल था। पिताजी अंग्रेज़ों के ज़माने के दसवां पास थे मगर उर्दू और हिंदी के साथ अंग्रेज़ी के नावेल फर्राटे से पढ़ लेते थे।
कुछ पिताजी ने, कुछ क्रिकेट की कमेंटरी, स्कोर बोर्ड और सिनेमा के विज्ञापन पढ़ने के शौक ने और कुछ एस एल शर्मा की न्यू लाइट इन जनरल इंग्लिश की मदद से अंग्रेज़ी ज्ञान अर्जित किया। इंटरमीडिएट तक अंग्रेज़ी सब्जेक्ट भी रहा। बीए में एशियन कल्चर और एम ए में पोलिटिकल साइंस की अधिकतर पुस्तकें अंग्रेज़ी की ही पढ़ी। इंटरनेशनल आर्गेनाईजेशन और इंटरनेशनल रिलेशंस में रूचि ज्यादा रही।
इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में नौकरी की। १९९० में जनता दल की  सरकार आने से पहले तक सारा काम अंग्रेज़ी में होता रहा।
मक़सद ये बताना है कि काम चलाऊ से थोड़ा बेहतर अंग्रेज़ी का ज्ञान रहा है हमें।
जब डबल एमए पास पत्नी के अंग्रेज़ी ज्ञान का हमें ज्ञान हुआ तो थोड़ी राहत मिली। वो मेट पर रैट, कैट आफ्टर रैट, सिट ऑन चेयर, टेबुल पे डिनर रेडी टाइप की अंग्रेज़ी में प्रवीण थीं। कभी कभी एज़ ए मैटर ऑफ़ फैक्ट भी बोल देती थी। कम से कम  ससुराल में तो इज़्ज़त बची ही रही।
ये बात नब्बे के दशक के मध्य की है। बेटा एक अंग्रेजी स्कूल में था। सातवें या आठवें में रहा होगा। पता नहीं कैसी अंग्रेज़ी पढाई जाती थी कि अंग्रेज़ी का एक सेंटेंस भी ढंग से न बोल सकने वाली हमारी मेमसाब को बच्चे को पढ़ाने में ज़रा भी दिक्कत नहीं होती थी।
एक दिन स्कूल से बेटे को 'पेट्रियटस ऑफ़ इंडियन फ्रीडम स्ट्रगल' पर निबंध लिखने को कहा गया।
मेमसाब बोली, पापा की अंग्रेज़ी अच्छी है उनसे हेल्प ले लो।

Saturday, August 23, 2014

नलिनी जयवंत - ठंडी हवाएं, लहरा के आएं...!

सिनेमा
- वीर विनोद छाबड़ा

उसने विद्रोह कर दिया। बाप-भाईयों ने बहुत समझाया- ‘‘फिल्मी दुनिया बहुत बुरी जगह है...यहां इसंान का नैतिक पतन होता है....यह जगह हमारे जैसे शरीफ़ खानदान के लोगों के लिए नहीं...बदनामी ही बदनामी है यहां...बच्चों की शादी में अड़चन अलग से... छोटे भाई-बहन हैं... अपना नहीं तो उनका ख्याल करो।’’ लेकिन वो अड़ी रहती है। उदाहरण देती है, अपनी मौसेरी बहन शोभना समर्थ (सुप्रसिद्ध अभिनेत्री
नूतन और तनूजा की मां) का। लेकिन उससे कहा जाता है - ‘‘उनसे तुलना मत कर। वो लोग ऐसे-वैसे हैं।’’ वो तब भी अडिग रहती है। उसकी बुरी तरह पटाई हुई। बाप ने पीटा और फिर भाईयों ने। मगर ये सब जुल्म-ओ-सितम उसका फ़ौलादी इरादा नहीं बदल सके। परिवार समाज की परवाह न करते हुए उसने बाबुल का आंगन छोड़ दिया। जहां उसके नसीब में खुशियां न हों वहां क्यों रहूं? वो अपने लिये जीती थी। उसके अपने सपने थे। दूसरों के सपने पूरे करने के लिये अपनी कुर्बानी क्यूं? उसे इमोशनल अपील से बेवकूफ नहीं बनाया जा सका। इसका नाम था नलिनी, नलिनी जयवंत। जन्म 18 फरवरी 1926 को बंबई में।

नलिनी की पहली फिल्म ‘बहन’ (1941) थी। भाई का बहन के प्रति अगाध प्रेम। उसे सफलता मिली। पहली ही फिल्म से  पहचान बन गयी। बड़ी बात थी। लेकिन उस वक़्त उम्र बहुत कम थी। बामुश्किल 15 साल। परिपक्व भूमिकाओं के लिये अभी वक़्त नहीं आया था। वो 1948 में एक बार फिर से रोशनी में आयी। हालांकि तब तक आंख मिचौली, आदाब अर्ज सहित पांच फिल्में कर चुकी थी। लेकिन ‘अनोखा प्यार’ में दिलीप कुमार और नरगिस के साथ उसने तहलका मचाया। प्रेम त्रिकोण की इस फिल्म में कुर्बानी का हिस्सा नलिनी के नसीब में आया। उस युग में त्रासदी फिल्म के अंत में दर्शकों के आंसूओं और तालियों का सबसे ज्यादा हिस्सा त्रासदी के शिकार को ही मिलता था। ‘अनोखा प्यार’ ने यह तथ्य पुख्ता किया था कि नलिनी फिल्मों में लंबे अरसे के लिये ठहरने जा रही है। इस बीच 1946 में नलिनी ने सामाजिक सुरक्षा के मद्देनज़र प्रोड्यूसर वीरेंद्र देसाई से शादी कर चुकी थी। मगर उनका दांपत्य जीवन सुखी नहीं था। इसके साथ ही नलिनी त्रासदी का पर्याय बनने की राह पर चल पड़ी।

Tuesday, August 19, 2014

केश्टो मुखर्जी - बिन पिये पियक्कड़!

सिनेमा

- वीर विनोद छाबड़ा

सर्वमान्य सत्य भले न सही, लेकिन अर्द्धसत्य तो है ही कि जो शराब नहीं पीते हैं उन्हें शराबियों की महफ़िल में शराबियों की तुलना में ज्यादा नशा चढ़ता है। वो मज़ा भी ज्यादा लेते हैं। ऐसी ही मिसाल थे
साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में फक्कड़ और बिंदास किस्म के शराबी के बेशुमार किरदार अदा करने वाले केश्टो मुखर्जी। पेट के लिये सब करना पड़ता है। जिंदगी में खुद कभी शराब नहीं पी। शराब गटकने के लिये इतनी आमदनी ही नहीं थी।

अब ये मुकद्दर की ही बात है कि भरपूर काबलियत के बावजूद केश्टो को लोकप्रियता बतौर पियक्कड़ ही मिली। यही उनकी पहचान भी थी। इसकी शुरूआत होती है 1970 में रिलीज़ ‘मां और ममता’ से। डायरेटर असित सेन को एक पियक्कड़ की ज़रूरत थी। केश्टो मुखर्जी काम की तलाश में वहीं मंडरा रहे थे। हालांकि तब तक वो कई फिल्में कर चुके थे। तमाम प्रोड्यूसर-डायरेक्टर उन्हें एक ऐसे टेलेंटड एक्टर के रूप में जानते थे जो कामेडी भी अच्छी करता है। असित दा भी जानते थे। लेकिन सपनों के संसार में सिर्फ सपने देख कर पेट नहीं भरता। साल में तीन-चार छोटी छोटी भमिकाओं से काम नहीं चलता। अब असित दा तो बंगाल के थे। अपने मुलुक के लोगों को काम नहीं देंगे क्या? इस ख्याल और आस से केश्टो आये थे असित दा से मिलने। असित दा ने केश्टो से पूछा- ‘‘शराबी की एक्टिंग करेगा?’’

ना करने की स्थिति में नहीं थे केश्टो। फिर वो एक्टर ही क्या जो जिंदगी के आस-पास मंडराते-डोलते किरदारों को आत्मसात न कर सके। केश्टो ने खुद को धमकाया - ‘‘अगर जिंदा रहना है तो हां कर दे।’’ उन्होंने हामी भर दी। बेमिसाल कामयाबी मिली। बस, फिर क्या था? लाईन लग गयी, पियक्कड़ की भूमिकाओं की। केश्टो बार-बार बताते और समझाते- ‘‘भाई मैं दारूबाज़ नहीं।’’ मगर उनकी बात कोई मानने-सुनने के लिये तैयार ही नहीं था। भले ही फिल्म में नशे में धुत्त रहने का किरदार दो ही मिनट
का क्यों न रहा हो। किसी को भी केश्टो के सिवाय दूसरा कोई नज़र नहीं आया।

दारू पीना कोई बड़ी बात नहीं। हर आदमी पीने के बाद नौटंकी करता है भले ही वो कामेडी न हो। कुछ बिगड़ते हैं, कुछ मचलते हैं और कुछ खूंखार होकर हंगामा करते हैं। कुछ चुपचाप बिस्तर पर गिर कर सोते हैं। और बाज़ किसी गुज़रे मुद्दे पर विलाप करने बैठ जाते हैं। और कुछ वाकई ऐसी हरकतें करते हैं जिससे जनता-जनार्दन को टैक्स फ्री मुफ़्त मनोरंजक सामग्री प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती है। केश्टो ने यह आखिर वाला विकल्प चुना। शायद असित दा को भी नहीं पता रहा होगा कि वो शराबी में जिस हल्के-फुल्के हास्य के एलिमेंट की तलाश में थे यह वो नहीं था जो केश्टो कर रहे थे, बल्कि केश्टो ने बहुत आगे निकल कर एक ऐसी अविश्वसनीय परफारमेंस दे रहे थे जो शराबी की विशिष्ट पहचान बन गयी। आगे चल कर केश्टो ने इसे इतना ज्यादा पारिमार्जित किया कि हर शराबी मनोरंजन का पात्र बन गया। केश्टो और शराबी एक दूसरे के पूरक बन गये। लोग ये भी समझने लगे कि केश्टो वाकई हर वक्त टुन्न रहते हैं तभी तो शराबी की इतनी परफेक्ट एक्टिंग कर पाते हैं। केश्टो की पतंग उड़ चली। तमाम पटकथा लेखकों को कह दिया गया कि शराबी का किरदार लिखते वक़्त सिर्फ़ और सिर्फ़ केश्टो ही दिमाग में हो और जिस स्क्रिप्ट में शराबी का किरदार नहीं है उसमें किसी न किसी तरह इसे डालें। केश्टो की मौजूदगी एक शुभंकर है।

Thursday, August 14, 2014

राधा किश्न- कामेडी की एक और ट्रेजडी!

सिनेमा

- वीर विनोद छाबड़ा

हीरो या हीरोइन ही नहीं बाकी तमाम अदाकार भी चाहते हैं कि फिल्म के हर सीन में उनकी एंट्री धमाकेदार हो। दर्शक दहशतगर्द होकर सन्न रह जायें। हंसते-हंसते लोट-पोट हो जायें। जवान लड़के-लड़कियां मोहित हो जाये। ऐसा करूणामई नज़ारा बने कि तमाशबीन ज़ार-ज़ार रोने लगें। परदे पर सिक्के उछाले जायें। ये बात आज ही की नहीं है। ऐसी चाहत बरसों से रही है। सिनेमा की शुरूआत से ही यह धमाचौकड़ी चलनी शुरू हो गयी थी। अहम किरदारों ने कभी नहीं चाहा कि दूसरे अदने अदाकारों की एंट्री उनके मुकाबले जोरदार हो। उन्हें डर था कि अगर अगले की एंट्री उसके मुकाबले बीस हुई तो वो सारी ताली बटोर ले जायेगा।


इस भीड़ में एक अदाकार ऐसा भी हुआ है कि दर्शक सीन में उसकी एंट्री से पहले ही चैकन्ने और सावधान हो गये, और फिर बेतरह हंसे भी। इनका नाम था राधा किश्न। हुआ यों कि 1947 में एक फिल्म आयी थी - शहनाई। इसमें राधा किश्न के किरदार का नाम था लालाजी। सेठ के मुंशी। हर समस्या के हल का निदान उनकी जेब में था। सेठ जी को जब-तब इनकी ज़रूरत रहती। वो जब-तब उन्हें आवाज़ देते - लालाजी। अब चाहिए तो यह था कि लालाजी सीन में दाखिल हों और पूछें- कहिए जनाब क्यों याद किया? मगर होता यह कि नेपथ्य से आवाज़ आती थी- आया जी। इसके कुछ क्षणों बाद लाला जी सशरीर नुमांया होते। तब तक दर्शक उनके इंतजार में हंस चुके होते थे। उनको सशरीर देखकर एक बार फिर हंसते, इस प्रत्याशा में कि अब लाला जी कोई चुटीला डायलाग बोलेंगे। ऐसा फिल्म में कई बार रिपीट होता और हर बार दर्शक को कुछ नयेपन का आभास होता। उनकी आवाज़ उनकी आमाद का सूचक बन गया। उनकी यह स्टाईल इतनी पापुलर हुई कि आगे की फिल्मों में भी इसे रिपीट किया गया और हर बार सफलता मिली। यही नहीं गंभीर दृश्यों में भी  आमाद से पहले उनकी आवाज़ सुनाई देती थी। उन्हें चापलूस टाईप के कामिक विलेन के कई किरदार करने का मौका मिला। इस स्टाईल के वे महारथी बन गये। बरसों बाद हरफ़नमौला अनुपम खेर ने ‘बेटा’ और ‘चालबाज़’ फिल्मों में इस स्टाईल को रिपीट करके राधा किश्न की याद ताज़ा करायी। इन फिल्मों में अनुपम ने दांतों तले होंट दबा कर किरदार को हंसोड़ विलेनी लुक दिया था।

Saturday, August 9, 2014

एक था अलबेला भगवान, भगवान दादा!

- वीर विनोद छाबड़ा

यों तो हर कलाकार का संघर्ष से भरा अतीत एक शानदार फिल्म के लिये अच्छा खासा मसाला है। मगर भगवान दादा के जीवन का संघर्ष, उसमें तरह-तरह के उफान, सिफर से शिखर और फिर सिफर पर लौट कर औंधे मुंह गिरना एक जीवंत और रोंगटे खड़े करने वाली कहानी है जिस पर बनी फिल्म सुपर-डुपर हिट होने की गारंटी है। भगवान द्वारा अपने अच्छे दिनों में खराब दिनों को याद करते हुए कहे इन
शब्दों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो किस किस्म के इंसान थे और उन्होंने किस किस्म का संघर्ष किया है - फारेस रोड से लैमिंग्टन रोड तक का सफर यों तो महज़ पंद्रह-बीस मिनट का है, मगर मुझे यह फासला तय करने में पूरे बारह साल खर्च करने पड़े।

मंुबई की एक चाल में 01 अगस्त, 1913 का जन्मे भगवान आभाजी पालव के पिता कपड़ा मिल में मामूली मजदूर थे। मगर उनके बेटे भगवान ने चाल में रह कर महलों के ख्वाब देखने का गुनाह बार-बार किया। मोटा थुलथुल जिस्म, चौड़ा चौखटा और ऊपर से छोटा कद। चाल में रहने वालों को उनके महलों के ख्वाब देखने पर हंसी आई। बोले - पहलवान दिखते हो एक्टर नहीं।

भगवान दादा कुश्ती के भी बेहद शौकीन थे। इसीलिये सब उन्हें प्यार से भगवान दादा कहते। और इसी नाम से मशहूर हुए। फिल्म स्टूडियो के चक्कर लगाते हुए कई जोड़ी जूता घिसा। कभी-कभी तो खाना भी नसीब नहीं हुआ। हलक के नीचे पानी के दो घूंट उतार कर गुजर की। मगर संघर्ष जारी रहा। सपनों की नगरी बंबई में जिसने सपना देखना छोड़ा, समझो वो मरा। आखिर किस्मत खुली। क्या हुआ एक स्टंट फिल्म में छोटी सी भूमिका मिली। नाम था उसका-क्राईम। 1938 में बनी थी यह। साईलेंट फिल्म थी वो। भाव की अभिव्यक्ति संवाद बोल कर नहीं बल्कि चेहरे की जंबिश और हाथ-पैर बेतरह हिला कर करनी पड़ी थी।

शौक और जुनून क्या कुछ नहीं कराता। भगवान दादा ने छोटे-छोटे स्टंट और मजाकिया रोल करके इतना पैसा कमा लिया कि चेंबूर में एक छोटा-मोटा स्टूडियो खोल लिया। जागृति स्टूडियो। एक फिल्म बना
डाली - बहादुर किसान। लागत आयी-सिर्फ 65000 रुपये मात्र। स्पाट ब्याय से लेकर प्रोड्यूसर डायरेक्टर का काम खुद किया। 1938 से लेकर 1951 तक भगवान दादा ने अनेक लो बजट फिल्में बनायीं। स्टंट व एक्शन- मिक्सड विद थोड़ा सा कामिक -फिल्में चाल और झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाले कामगारों-मजदूरों के मध्य खासी लोकप्रिय होती थीं। यही कारण था कि भगवान दादा बंबई की चालों और झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वालों की पहली पसंद थे। 1951 तक भगवान दादा ने पैंसठ स्टंट और एक्शन फिल्में बनायी। इसी दौरान 1941 में तमिल फिल्म ‘वानी माहिनी’ भी बनायी। इसमें तमिल के मशहुर एक्टर एम0आर0 राधा के अलावा श्रीलंकाई एक्ट्रेस थावामनी देवी ने भी काम किया था। ये एक सफल और लेंडमार्क फिल्म थी। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इन पैंसठ फिल्मों में एक भी सुरक्षित नहीं है। वक्त की मार इन्हें खत्म कर गयी। इस दौर के भगवान दादा सिर्फ़ किस्सों में जिंदा हैं।

Tuesday, August 5, 2014

....और चिंपू खुद ही चला गया (बाल कहानी)

-वीर विनोद छाबड़ा

ग्यारह साल का रिंकू पढ़ाई और खेलकूद में बेहद होशियार होने के साथ-साथ बेहद सुशील भी था। इसी वजह से स्कूल में उसकी बहुत तारीफ़ होती थी। कालोनी में तो सभी मम्मी-पापा अपने बच्चों को रिंकू की तरह नेक बनने की सलाह देते थे। बाल होशियार सुशील शान शैतान शर्त

मगर पिछले दो महीनों में सब कुछ बदल गया था। रिंकू को ज़बरदस्त खांसी-जुकाम व बुखार ने घेर रखा था। इससे रिंकू की पढ़ाई चौपट तो हुई ही, वो बहुत चिड़़चिड़ा़ भी हो गया । स्कूल वालों ने भी कह दिया कि जब तक रिंकू पूरी तरह से ठीक न हो जाए उसे स्कूल भेजने की ज़रूरत नहीं। क्योंकि उन्हें डर था कि उसके संपर्क में आकर दूसरे बच्चे बीमार हो सकते हैं। अब रिंकू पार्क में दूसरे बच्चों के साथ खेलने भी नहीं जाता था। अब उसका एक ही साथी था उसका प्यारा सा छोटा सा पेमेरियन कुत्ता- चिंपू। उसके मम्मी-पापा ने रिंकू के ईलाज में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। कई बड़े डाक्टरों को दिखा चुके थे। एलोपैथी के अलावा अच्छे होम्योपैथ डाक्टरों को भी दिखाया। बड़े-बड़े हकीम-वैद्यों से भी ईलाज कराया। उसे शायद किसी की नज़र लग थी। इसलिए बड़े-बुजु़गों के कहने पर बाबा-ओझा तक से नज़र उतरवायी। मगर कोई लाभ नहीं हुआ। बल्कि खांसी-जुकाम और भी तेज हो गया। बुखार से बदन भी कभी-कभी बुरी कांपने लगता था। फिर एक मित्र की सलाह पर एक नामी चेस्ट रोग विशेषज्ञ को दिखाया। उन्होंने रिंकू की भली-भांति जांच की। कई तरह के टेस्ट किए। फिर बोले- ‘‘घबराने की कोई बात नहीं। फेफड़ों में मामूली इंफेक्षन है। दवा लिख रहा हूं। आपका रिंकू जल्दी चंगा हो जाएगा।’’

और सचमुच चमत्कार हो गया। कुछ ही दिनों में रिंकू का खांसी-जुकाम बंद हो गया। बुखार भी चला गया। रिंकू अब स्कूल भी जाने लगा। पार्क में दूसरे बच्चे उससे खेलने भी लगे। सब कुछ पहले जैसा हो गया। मम्मी-पापा को रिंकू को ठीक करने वाले डाक्टर के रूप में मानों भगवान मिल गया हो। वो सब दुखद वक़्त को भूल ही गए थे कि एक दिन अचानक रिंकू को फिर से खांसी-जुकाम ने आ घेरा। थोड़ा-थोड़ा बुखार भी रहने लगा।