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वीर विनोद छाबड़ा
एक ज़माना था हज़रतगंज हमारे शहर लखनऊ की शान थी। हर शख्स बड़ी इस्त्री किये कपड़ों
में बड़ी नफ़ासत से टहलता था। गुफ्तुगू हौले-हौले हुआ करती थी। हम भी शाम को घंटों शंटिंग किया करते थे। कभी दोस्तों
के साथ और कभी अकेले ही। यह बात १९६५ के है। तब हम हाई स्कूल में हुआ करते थे। मद्रास
मेस में चवन्नी का मसाला डोसा और मेफेयर बिल्डिंग के नुक्कड़ पर चौधरी कूल-कार्नर पर
चवन्नी का लोकल सेवन अप। इससे ज्यादा पैसे नहीं हुआ करते थे। सब कंट्रीब्यूटरी हुआ
करता था। कभी पांच-दस पैसे किसी के पास कम होते तो मिल कर पूरा कर लेते। मिलने के दो
अड्डे थे। प्रिंस-फ़िल्मिस्तान या मेफेयर।
उस ज़माने में मेफेयर के सामने बीच सड़क में कार पार्किंग हुआ करती थी। एक वक्त में
ज्यादा से ज्यादा शायद पंद्रह-बीस कार खड़ी हो पाती थीं। मेफेयर बिल्डिंग में शहर का
एकमात्र एयर कंडीशन सिनेमा, जहां अधिकतर अंग्रेज़ी फिल्मों की स्क्रीनिंग होती थी। उसी बिल्डिंग में क्वालिटी
रेस्तरां और ऊपर ब्रिटिश कौंसिल लाइब्रेरी। यह सब अंग्रेज़ीदां इलीट और अरिस्ट्रोक्रैट
क्लास की पहचान थी। गुरबों, मुफलिसों और फुकरों के नसीब में यह सब नहीं था।
हमारी पांच ख्वाइशें होती थीं। एक,
हम अपनी कार मेफेयर के सामने पार्किंग में खड़ी करें। दो, बॉलकनी का टिकट खरीदें।
तीन, इंटरवल के दौरान कॉरिडोर में क्लिंट ईस्टवुड के विशाल पोस्टर के सामने खड़े हों, सिगरेट होंटों के किनारे
दबी हो, हल्का-हल्का धुआं निकल रहा हो और हम चबा-चबा कर अंग्रेज़ी बोल रहे हों। चार, फ़िल्म ख़त्म होने के
बाद क्वालिटी रेस्तरां में बढ़िया डिनर लें और पांच, ब्रिटिश लायब्रेरी
के मेंबर हों।