Tuesday, February 28, 2017

बाबू जी मना करते हैं

-वीर विनोद छाबड़ा
सब्जी वाले ने कहा - आंटी जी लौकी ले लो। बहुत बढ़िया है और ये परवल भी।
मेमसाब ने कहा - नहीं भैया, बाबू जी नहीं खाते।
एक और साहब आये - बहनजी हम आ गए हैं। आपने बुलाया था, पुताई के लिए।

मेमसाब - नहीं भैया, अभी सर्दी बहुत है। बाबूजी मना कर रहे हैं।
कल्लू किरयाने वाला - राजमां, अरहर, उड़द, छोले, चने की दाल, चना साबूतसब रख दिया है। मूंग की दाल नही लिखाई थी। दे दूं।
मेमसाब - नहीं नहीं। बिलकुल नहीं। बाबू जी नहीं खाते।
सुबह सुबह गली में भंगार वाला चिल्ला रहा है - रद्दी, रद्दी दे दो, अख़बार, किताब, पुराना टीवी, कुकर, कूलरबहन जी रद्दी है?
मेमसाब ने दरवाज़ा खोला - हां है तो। मगर अभी कुछ दिन बाद आना। बाबूजी मना कर रहे हैं। कहते हैं, अभी थोड़ी और जमा हो जाए।
थोड़ी देर बाद दरवाज़े पर खट खट खट.
मेमसाब - क्या है भैया?
आगंतुक - जी हम प्लम्बर हैं। आपने कल कहा था एक्स्ट्रा टंकी के लिए।
मेमसाब - नहीं भैया, अभी नहीं लगवानी। सर्दी में पानी की क्या ज़रूरत? बाबूजी ने मना किया है।
दोपहर का समय है। दरवाज़े पर खट...खट...खट... होती है। 
मेमसाब - कौन है?
बाहर एक लड़का है। कहता है - आंटी जी हमारी गेंद आई है आपकी छत पर। ले लें?
मेमसाब - नहीं बिलकुल नहीं। रोज़ का धंधा है तुम लोगों का। सोने भी नहीं देते ठीक से। बाबूजी ने मना किया है कि अबकी बार गेंद आये तो मत देना।
आधा घंटा बीता न था कि दरवाज़े पर फिर खट...खट...खट 
मेमसाब बड़बड़ाती हैं - अब कौन आ मरा?…कौन है?
बाहर खड़ा आदमी कहता है -  जी केबल वाला।
मेमसाब - ये लो दो ढाई सौ। भैया क्या बात है?आजकल केबल बहुत जा रहा है? बाबूजी बहुत डांट रहे थे कि बंद करके डीटीएच लगवा लो।
ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग...इस बार मोबाईल की आवाज़ है।
मेमसाब - हेलोअरे सुमन कैसी हो?...क्या बताऊं?....तुम्हारे बाबूजी को टाइम कहां?…मैं तो हर वक़्त तैयार हूं....

Monday, February 27, 2017

ढिबरीवाला नकली भूत

- वीर विनोद छाबड़ा
उस दिन सारा शहर ठिठुर रहा था। ज्यादातर लोग घरों के अंदर रज़ाई में दुबक कर बैठे थे। लेकिन हम कई मित्र शमशान घाट पर थे। अश्रुपूर्ण नेत्रों से अपने एक प्रिय मित्र की अंतिम विदाई को आये थे। सूर्य देवता के सुबह से ही दर्शन नहीं हुए थे। चिरागों के जलने से अहसास हुआ कि सूर्यास्त होने को है। कई चिताएं एक साथ जल रही हैं। आज सुबह से ही मृतकों के आने का सिलसिला जारी है। जब सर्दी या गर्मी ज्यादा होती है तो आमद बढ़ जाती है। कई को अंतिम संस्कार के लिए प्लेटफार्म नहीं मिलता है। संयोग से हमारे मित्र को मिल गया। इसलिए कि दिन ढल चुका था। हिंदू धर्म के अनुयायी सूर्यास्त के बाद नहीं आते। लेकिन हमारे मित्र के परिवारीजन ये सब नहीं मानते थे।
मुखाग्नि के पश्चात ज्यादातर लोग खिसक लिए। लेकिन हम और हमारे मित्र निर्णय लेते हैं कि तब तक रुके रहेंगे जब तक कि चिता पूरी तरह आग न पकड़ ले। अंधेरा पूरी तरह छा चुका था और कोहरा भी घना हो चुका था। हम दोनों वहीं पास में ही एक बिना शट्टर वाली दुकान की सीढ़ी पर बैठ गए। उन दिनों नगर निगम की ओर से कुछ नए प्लेटफार्म बनाये जाने के अतिरिक्त इस स्थान को नया रंग-रूप और समस्त नागरिक सुविधाएं देने की कवायद चल रही थी ताकि ये स्थान थोड़ा रमणीक लगे। ये अर्द्धनिर्मित दुकान भी इसी कवायद का हिस्सा थी।

तभी हमने गौर किया कि हमारे पीछे किसी ने ढिबरी जलाई है। हमने मुड़ कर पीछे देखा। हां वाकई वहां कोई था। बदन में झुरझुर्री सी उठी। पूछा - कौन हो भाई। वो बोला यहीं साइट पर काम करता हूं। रात यहीं सो जाता हूं। ठेकेदार ने कहा है। सामान की रखवाली भी होती रहेगी।
कौतुहलवश हमने पूछा - ये नए प्लेटफॉर्म कब तक तैयार हो जायेंगे?
उसने पलट कर पूछा - आपको कब लेटना है?
हमें उसका जवाब कुछ अजीब सा लगा। कोई बेवकूफ है। हमने कोई जवाब नहीं दिया। सामने देखने लगे। तभी टार्च लिए एक सज्जन आये। वो मृतक के रिश्तेदार थे। बोले, देर हो रही है। आप जाओ। हम भी चल रहे हैं। हम उठे। अचानक हमारी निगाह पीछे की और गयी। ढिबरी नहीं जल रही थी। हमें कुछ संदेह हुआ। उन सज्जन के हाथ से  टार्च लेकर हमने देखा। हम सन्न रहे गए। वहां तो कुछ भी नहीं था। उस भयंकर सर्दी में भी हमारा पसीना छूट गया और घने कोहरे के बावज़ूद हम तूफ़ान मेल की रफ़्तार से हम बाहर निकले।

Sunday, February 26, 2017

वक़्त से पहले और किस्मत से ज्यादा नहीं

-वीर विनोद छाबड़ा
एक राजा हुआ करता था। बड़ा दयालू। जो कोई उसके द्वारे आया, कभी खाली हाथ नहीं लौटा।
एक दिन राजा ने एक बहुत गरीब आदमी को कद्दू दान में देते हुए निर्देश दिया - घर जाकर कद्दू काट कर खाना ज़रूर। देखना, तुम्हारे सब दुःख दूर हो जाएंगे।
लेकिन उस भिखारी को संतुष्टि नहीं मिली। वो बहुत रोया। राजा को भरपूर गलियां दी - भला कद्दू से भी किसी का भला हुआ। कितने दिन चलेगा कद्दू? मुश्किल से चार या पांच दिन। मैंने तो हीरे और जवाहरात की ख्वाहिश की थी। लेकिन मिला क्या, कद्दू! इस राजा के महल को आग लगे। 
तभी उसके दिल में एक ख्याल आया कि इस कद्दू को बेच दूं तो कम से कम पांच रूपये मिल सकते हैं। यह इरादा बना कर वो बाजार गया।
कद्दुओं की कदर करने वाले एक अमीर दुकानदार ने देखा कि इस कद्दू की डिज़ाइन दूसरे कद्दूओं से भिन्न है। ज़रूर कोई खास बात है इसमें। उसने उस भिखारी से पूछा - ए नाशुक्रे से दिखने वाले ईश्वर के बनाये आदमी। तू रोते हुए कद्दू क्यों बेच रहा है?
भिखारी ने बताया - मैं बहुत गरीब हूं। राजा के पास गया था अपनी गरीबी दूर करने के लिए कुछ मदद मांगने। मगर राजा का इंसाफ तो देखो। कद्दू पकड़ा दिया। अब इसे बेचना चाहता हूं, ताकि इसे मिले पैसों से कुछ ज़रूरी चीज़ें खरीद सकूं।
दुकानदार ने कहा - राजा को ऐसा नहीं करना चाहिए था। ऐसा करो कि तुम यह कद्दू मुझे दे दो। मैं तुम्हें इसके तुम्हें बदले बीस रूपए दूंगा।
उस ज़माने में बीस रूपये आज के बीस हज़ार के बराबर हुआ करती थी। भिखारी झट से तैयार हो। उसने सोचा यह दुकानदार ज़रूर कोई मूर्ख आदमी है। उसने यह भी नहीं पूछा कि इसमें क्या खासियत है। और बीस रूपये दे रहा है।

Saturday, February 25, 2017

सुनील दत्त ने चाहा था मधुबाला का नाम पहले आये...

-वीर विनोद छाबड़ा 
मधुबाला की आख़िरी फिल्म थी 'ज्वाला'। इसका निर्माण पचास के दशक के आख़िरी दौर में शुरू हुआ। आशा पारेख इसमें मधुबाला की सहेली हैं। लेकिन इसका निर्माण मधुबाला की बीमारी के कारण बहुत मंथर गति से चला। निश्चित ही यह डिब्बे में बंद रहती, अगर १९६९ में मधु परलोक न सिधारी होतीं।
मधु को श्रद्धांजलि स्वरुप समझिए या उसकी मौत को भुनाने के लिए, 'ज्वाला' डिब्बे से बाहर आई। मधु की डुप्लीकेट के साथ बाकी फ़िल्म पूरी हुई। डबिंग भी कई नायिकाओं के सहारे हुई।
ज्वाला के हीरो सुनील दत्त थे। सोहराब मोदी और प्राण की भी अहम भूमिकाएं थीं। सुनील दत्त ने इससे पहले मधुबाला के साथ शक्ति सामंत की 'इंसान जाग उठा' में काम किया था। सुनील-मधु पर फिल्माए दो गाने बहुत मशहूर हुए थे - चांद सा मुखड़ा क्यों शरमाया...न ये चंदा रूस का है न ये जापान का...इस फिल्म की शूटिंग हैदराबाद से १०० किलोमीटर दूर कृष्णा नदी के ऊपर नागार्जुन सागर बांध के निर्माण के समय हुई थी। मधुबाला शायद पहली बार आउटडोर शूट पर थीं। उन्होंने सुनील दत्त को बताया - मुझे अपने मुल्क के मज़दूरों के साथ कंधा से कंधा मिला कर काम करना बहुत अच्छा लगा। मैंने अपने भारत को बनते देखा।

बहरहाल, 'ज्वाला' रिलीज़ होने को थी। सुनील दत्त के संज्ञान में आया कि प्रचार सामग्री में उनका नाम मधुबाला से पहले छपा है। यह ठीक है कि उस समय सुनील दत्त की पोज़ीशन बहुत अच्छी थी और दिवंगत मधुबाला को लोग लगभग भूल सा गए थे। और यह भी एक सच था कि मधु की भूमिका का ज्यादातर हिस्सा डुप्लीकेट के सहारे पूरा हुआ था। लेकिन इन सबके बावजूद इस सच को झुठलाना मुश्किल था कि मधुबाला सुनील दत्त से सीनियर थीं। 'इंसान जाग उठा' में भी मधुबाला का नाम पहले था और दत्त साहब का बाद में। सुनील दत्त को यह बात अच्छी तरह याद थी। अतः उन्हें 'ज्वाला' में अपना नाम पहले देख बहुत तकलीफ़ हुई। अगर मधु ज़िंदा होती तो यकीनन उसे भी नागवार लगा होता।
यों भी सुनील दत्त एक भद्र पुरुष के रूप जाने जाते थे। समाज में उनका काफ़ी रुतबा था। एक अच्छे फ़िल्मकार भी थे। दत्त परिवार के मधु के बहुत अच्छे रिश्ते भी थे। जब मधुबाला की मृत्यु हुई थी तो सुनील दत्त किसी काम से दिल्ली गए हुए थे। जैसे ही उन्हें मधु के गुजरने की खबर हुई तो सारे काम छोड़ वो तुरंत बंबई लौटे और फिर एयरपोर्ट से सीधे मधु का घर पहुंचे थे।

Friday, February 24, 2017

साधु का मुखौटा बनाम राजा का मुखौटा

-वीर विनोद छाबड़ा
एक राजा अपने राज्य के भ्रमण पर निकला।
रास्ते में उसे एक वृक्ष की छांव तले विश्राम करता एक साधु दिखा। राजा ने रथ से उतर कर उसे दंडवत प्रणाम किया।
मंत्री ने राजा को ऐसा करते देखा तो अच्छा नहीं लगा - श्रीमानजी, आप राजा हैं। साधु को आपके पास आकर प्रणाम करना चाहिए न कि आपको। आपने ऐसा क्यों किया?
राजा बोले - मंत्री जी, इसका उत्तर मैं कुछ दिन बाद दूंगा।
कुछ दिन बाद राजा ने मंत्री को बुलाया - मंत्री जी ये ढेर सुंदर-सुंदर मुखौटे हैं, आधे मेरे चेहरे के और आधे साधु के। इन्हें राज्य में बेच दीजिये। मेरी इच्छा यह जानने की है कि प्रजा की पसंद का रुझान क्या है?
मंत्री जी आश्चर्य चकित हुए। लेकिन उन्हें तो राजा की आज्ञा का पालन करना ज़रूरी था। मंत्री जी वेश-भूषा बदल कर राज्य में जगह-जगह जाने के लिए निकल पड़े। दो दिन बाद वो लौट कर आये। उसने बताया - राजन, साधु के मुखौटे मिनट भर में बिक गया। लेकिन क्षमा करें राजन, आपके मुखौटे लाख कोशिश के बावजूद किसी ने भी नहीं खरीदे।
राजा ने कहा - मंत्री जी एक बार फिर जायें। यदि कोई न खरीदे तो इन मुखौटों को मुफ़्त में दे दें।

Thursday, February 23, 2017

शान और कुलीनता का प्रतीक था मेफेयर सिनेमा

- वीर विनोद छाबड़ा
ये है मेफेयर सिनेमा। इसने आधुनिक लखनऊ को उसके शैशव काल से बहुत करीब से देखा है, उसका हिस्सा रहा है। शहर का पहला सेंट्रली-ऐयरकंडीशन थियेटर। पिछले कई साल से बंद। मुझे वो दौर याद है जब माना जाता था कि यहां सिर्फ शहर का अभिजात्य और कुलीन वर्ग ही फिल्म देखता है। साधारण आदमी इसकी सीढ़ी पर पैर रखने तक से डरता था। अंग्रेज़ी की ही फिल्में रिलीज़ होती थी। इसके अलावा ओडियन था जहां अंग्रेज़ी फिल्में नियमित रिलीज़ होती थी।
मैं विजुलाईज़ करता हूं। १९६० का कोई महीना। मैं नौ-दस साल का हूं। पिताजी की उंगली पकड़ कर मैं बेनहर की रथ दौड़ देखने आया हूं। ठंडा-ठंडा और एक अजीब सी महक, जिसे पहली बार अनुभव किया। याद है ठंडी-ठंडी हवा के कारण मैं सो गया। पिताजी मुझे बार-बार जगाते हैं। अंग्रेजी समझ नहीं आती। वो मुझे समझाते रहे। फिल्म खत्म होने के बाद क्वालिटी रेस्टोरेंट में पिताजी ने मुझे काफी के साथ पेस्ट्री खिलाई। मुझे हैरत हुई। मैंने सुना था यहां सिर्फ़ लाटसाहब आते हैं। पिताजी मेरी बात पर हंस देते हैं। फिर हम इसके ऊपर जाते हैं। यहां ब्रिटिश कांउसिलिंग लायब्रेरी है। यह भी एयरकंडीशन। पिता जी इसके सदस्य हैं। दो किताबें लेते है। छह साल बाद मैने पिताजी के कार्ड पर सिनेमा और क्रिकेट की अनेक किताबें पढ़ी। यहां के पिन ड्राप साईलेंस में घंटों इंग्लैंड से प्रकाशित अखबारों में क्रिकेट मैच का स्कोर देखे।

वक़्त गुज़रता है। मैं दसवें में पहुंच गया हूं। काफी समझ आ गयी है। अब मैं कालेज बंक कर दोस्तों के संग सिनेमा देखने लगा हूं। मेफेयर में दोस्ती आयी। हंगामा हो गया। मेरी याद में पहली हिंदी फिल्म। १९६४ की बात है यह। इसके बाद 'सांझ और सवेरा' देखी। बाद में मेरे मित्र अजय निगम ने बताया था कि मेफेयर में पहली हिंदी फिल्म 'घर बसा के देखो' रिलीज़ हुई थी। ।
मेफेयर लंबे समय तक अंग्रेजी फिल्मों की रिलीज़ की पहली पसंद रही। याद है मुझे पिता जी ने गोल्डफिंगर की कहानी सुनायी। पैसे दिये। बोले जा, देख आ। मैंने बांड की फिल्म पहली बार देखी थी। अंग्रेजी न जानने वालों को फिल्म की कहानी मालूम हो तो  समझने में कतई दिक्कत नहीं होती।
मैं बड़ा हुआ। दाड़ी आ रही है। बड़ा खुश हूं कि मेफेयर में एडल्ट अंग्रेज़ी फ़िल्में देखने का लाइसेंस मिल गया। ईवनिंग शो देखने का मज़ा ही कुछ दूसरा था। यूनिवर्सटी, आईटी, लामार्ट, लोरेटो, कालविन के अंग्रेजी में गिटपित करते लड़के-लड़कियों के बीच हम हिंदी मीडियम के लड़के चुपचाप उन्हें हसरत भरी निगाहों से देखते हैं। सोचता हूं कि काश मैं भी पैदा हुआ होता अमीरों के घर। मज़ा आ जाता।
कुछ वक़्त और गुजरा। मुंह में सिगरेट आ गयी है। मेफेयर थियेटर और क्वालिटी के बीच एक कारीडोर है। ऐसा कारीडोर दूसरी तरफ भी है। यह भी बड़ा कूल-कूल है। दीवारों पर एलिजाबेथ टेलर, रिचर्ड बर्टन, सोफिया लारंस, रैक्स हैरीसन, क्लिंट ईस्टवुड, डीन मार्टिन, क्रिस्टोफर ली आदि की शीशे के फ्रेम में बड़ी-बड़ी रंगीन तस्वीरें टंगी हैं। मैंने हिंदी सिनेमा के आईकान किसी सिनेमाहाल में टंगे नहीं देखे।

मुझे याद है कि इन कारीडोरों में हम होंटों के किनारे सिगरेट फंसा लेते थे और फिर होंट चबा-चबा कर अंगे्रज़ी के कुछ रटे-रटाये वाक्य बोलते थे। इससे तलुफ़्फ़ुज़ में थोड़ी अंग्रेज़ियत आ जाती थी।
यहां बेशुमार फिल्में देखीं। अंग्रेज़ी भी और हिंदी भी। यहां रिलीज़ हुई ज्यादातर फिल्में सुपर हिट रहीं। बाबी, दुल्हन जो पिया मन भाये, अखियों के झरोखों से, पाकीज़ा, खामोशी आदि। क्रेज़ी ब्वाय सीरीज़ की तमाम फिल्में मैंने यहीं देखी। इसके अलावा दि पोसाईडियन एडवेंचर, वेयर दि ब्याज आर, दि बैड दि गुड एंड दि अगली, वाट ए वे टू गो, टावरिंग इनफरनो, ऐयरपोर्ट, दोज़ मैग्नीफिसेंट फ्लाईंग मशीसं, इट्स ए मैड मैड वल्र्ड आदि। इरमा ला डूज़ और उसका की हू-बहु हिंदी नक्ल शम्मीकपूर की मनोरंजन भी यहीं देखी थी। मजे की बात यह है कि नक्ल पहले आई और मूल प्रति बाद में।
हमने कई बार कामयाबी को सेलीब्रेट करने के लिये मेफेयर को चुना। इसके बगल में एक सरदार जी का कूल कॉर्नर होता था। मेफेयर में सिनेमा देखने के बाद इस कॉर्नर पर २५ पैसे वाली कूल बोतल पीकर तो सोने में सुहागा हो जाता था। 

Wednesday, February 22, 2017

पृथ्वी जाता है, अकबर आता है

- वीर विनोद छाबड़ा
१९२८ के आस-पास का एक दिन। बंबई के कोलाबा स्टेशन पर पेशावर से आई फ्रण्टियर मेल रूकती है। उसमें से एक खूबसूरत, ऊंचे कद-बुत का पठान उतरता है। उसकी भूरी आंखों में एक हसीन ख्वाब है, उमंग है, विश्वास है। वो सीधे इंपीरियल स्टूडियो पहुंचता है। वहां उसकी मुलाकात डायरेक्टर अर्दिशिर ईरानी से होती है। वो उसे बाहर टंगा बोर्ड दिखाते हैं, जिस पर लिखा है - नो वेकैंसी। वो हट करता है कि उसे काम चाहिए। वो नौजवान अपनी खूबियां बताता है। वो ग्रेजुएट है। पंजाबी, उर्दू, पश्तो और अंग्रेज़ी पर उसकी बहुत अच्छी पकड़ है। उसने कई नाटकों में काम किया है। उसका व्यक्तित्व तो आकर्षक है ही। अर्दिशिर तंग आ जाते हैं। ठीक है, लेकिन अनपेड एक्स्ट्रा का काम है। नौजवान पूछता है कि मुझे करना क्या होगा। अर्दिशिर झल्ला कर बताते हैं, महत्वहीन, भीड़ का हिस्सा। और वो नौजवान ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो जाता है। अर्दिशिर उसके कंधे पर हाथ रखते हैं। तुम बहुत दूर तक जाओगे। उस नौजवान का नाम था - पृथ्वीराज कपूर। 
पूरे १० दिन हो चुके थे पृथ्वी को भीड़ में खड़े हुए। 'सिनेमा गर्ल' फिल्म की शूटिंग चल रही थी। उस दिन फिल्म का हीरो नहीं आया। डायरेक्टर बहुत क्रोधित  हुआ। हीरो को बदल डालो। हीरोइन से कहा कि सामने एक्स्ट्रा आर्टिस्ट्स की भीड़ में किसी को अपना हीरो चुन लो। हीरोइन ने पृथ्वीराज की ओर ईशारा कर दिया। और इस तरह वो नायक बन गए - १०० रूपये महीने के वेतन पर।

१९३१ में अर्दिशिर ईरानी ने भारत की पहली बोलती फिल्म 'आलमआरा' बनायीं। इसमें पृथ्वीराज की भी सेकंड लीड में भूमिका थी। उन दिनों 'फ़िल्म इंडिया' के प्रकाशक-संपादक बाबूराव पटेल जाने क्यों पृथ्वीराज से खुंदक रखने लगे। उन्होंने एक आर्टिकल में लिखा - पठान जैसे चेहरे वाले पृथ्वीराज बांबे में चल नहीं पाओगे। बेहतर है तुम फ्रंटीयर मेल से पेशावर लौट जाओ। पृथ्वीराज ने जवाब दिया था - मैं पेशावर नहीं लौटूंगा। बल्कि तैर कर सात समंदर पार हॉलीवुड चला जाऊंगा। उसके बाद बाबूराव पटेल ने उनसे पंगा नहीं लिया।
इस बीच पृथ्वीराज की निजी ज़िंदगी में एक के बाद एक दो बहुत बड़ी त्रासदियां हुईं। उनके एक बेटे को डबल निमोनिया ने निगल लिया और दो साल के अन्य बेटे ने भूल से चूहे मारने वाली दवा खा ली। उस समय उनकी पत्नी के गर्भ में चौथा बच्चा था।
Prithviraj Kapoor
 
१९४१ में रिलीज़ सोहराब मोदी की 'पुकार' पृथ्वीराज के कैरियर में मील का पत्थर बनी। अपने रंग-रूप, डील-डौल और बुलंद आवाज़ के कारण वो आक्रांता सिकंदर की भूमिका में खूब जंचे। सोहराब मोदी इसमें राजा पुरु की भूमिका में थे। इसी में वो कालजयी संवाद थे। सिकंदर ने कैदी पुरु से पूछा था - तेरे साथ क्या सलूक किया जाए? पुरु ने गर्व से जवाब दिया था - वही जो एक राजा, दूसरे राजा के साथ करता है। और सिकंदर जीता हुआ राजपाट पुरु को लौटा कर अपने देश वापसी का फैसला करता है। बरसों बाद १९६५ में 'पुकार' एक बार फिर बनी, लेकिन 'सिकंदर' के नाम से। इस बार सिकंदर दारासिंह और पुरु पृथ्वीराज थे।
'पुकार' के बाद पृथ्वीराज स्वर्णिम काल शुरू हो गया। लेकिन बिना नाटक के उन्हें संतुष्टि नहीं मिल रही थी। और अंततः १९४६ में उन्होंने पृथ्वी थिएटर की नींव रख कर अपने लंबित सपने को पूरा कर ही डाला। पूरे भारत में उन्होंने करीब ६०० शो किये जिसमें अधिकतर में वो स्वयं हीरो रहे।

Tuesday, February 21, 2017

सुदर्शन - मुसाफिरों के लिए बढ़िया टाइमपास

-वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ के चारबाग़ रेलवे स्टेशन के सामने रेलवे की एक रिहाइशी इमारत होती थी मल्टी स्टोरी। पिताजी रेलवे मुलाज़िम थे। मैं इसमें १९६१ से १९८२ तक करीब २१ रहा हूं। इसके पीछे एक सिनेमाहाल था सुदर्शन। हाफ रेट का सिनेमाहाल। अभी कोई पंद्रह दिन पहले ये नयी साज-सज्जा के साथ सुदर्शन चारबाग़ के नाम से फिर शुरू हुआ है।
संयोग से आज मेरा मेरा इधर से गुज़ारना हुआ। कई यादें ताज़ा हो गयीं।
मैंने यहां ढेर फ़िल्में देखी हैं। गेट कीपर से सेटिंग कर रखी थी। आधी फिल्म आज और बाकी कल। घर में कानोंकान खबर नहीं होने पाती थी।
जब तक मैं मल्टी स्टोरी में रहा यही पाया कि सुदर्शन में विजिट करने वालों में कुछ तो आस-पास के रहने वाले लोकल थे। ये वो थे जिन्हें खटमलों से बेहद  इश्क़ था। या जिन्हें खटमल के होने से फर्क नहीं पड़ता था। घर में भी खटमल और यहां भी।
ज्यादातर तमाशबीन रिक्शा-तांगेवाले। होटलों और ऑटोगैराज में काम करने वाले कामगार। खोमचा लगाने वाले कमउम्र बच्चे।
अलावा इसके एक अच्छी संख्या उन व्यापारी मुसाफिरों की थी जिन्हें दिन भर की खरीदारी करने के बाद लखनऊ जंक्शन से रात बारह बजे वाली गोरखपुर वाली ट्रेन पकड़नी होती थी।
और वो मज़दूर भाई भी जो सुबह दिल्ली-बम्बई से आकर लखनऊ उतरता था। दिन भर परिवार के लिए उपहार खरीदता था। खूब ठगा जाता। और वही रात बारह बजे गोरखपुर की ट्रेन।
सुदर्शन फिल्मिस्तान लिमिटेड की सिनेमा चैन में था। इसलिए फ़िल्में अच्छी ही होती थीं। प्रिंट बस गुज़ारे लायक होते थे।
जिस मक़सद से मैं ये पोस्ट लिख रहा हूं वो ये बताने के लिए है कि टाइम पास के लिए सुदर्शन सिनेमा से बढ़िया और सस्ती कोई मुफ़ीद जगह नहीं थी।आसपास कोई और सिनेमाहाल या रमणीक स्थल भी नहीं। जिसको फिल्म देखनी है, देखे बड़े शौक से और जिसे सोना है, तीन घंटे सो ले आराम से। ट्रेन चलने से ठीक १५-२० मिनट पहले उठ लेना है। फिल्म छूट जाए तो छूटे। बस गड्डी न छूटे।
वहां इसी चक्कर में हंगामे भी होते रहते थे। फिल्म देखते-देखते ऐसी ज़बरदस्त नींद आती थी कि ट्रेन छूट जाती थी। शामत बेचारे गेटकीपर की आती कि उठाया क्यों नहीं। बेचारे गेटकीपर का यही जवाब होता था - साहब इतनी वाहियात फिल्म थी कि मैं खुद ही सो गया।

Monday, February 20, 2017

ओम गणेशाय नमः

- वीर विनोद छाबड़ा
कोई पैंतीस साल पहले की बात है। हम लखनऊ में कुटिया बनवा रहे थे। तब से अब तक इसमें कई बदलाव हुए हैं। कई मिस्त्रियों और मज़दूरों ने पसीना बहाया है। और हमारा तो खून और पसीना दोनों बहा है। दीवारें बोलती होतीं तो ज़रूर बतातीं कि इस मकान की पहली तामीर वली मोहम्मद मिस्त्री ने की थी। रिहाईश ज़िला गोपालगंज, बिहार। 
वो बड़े विचित्र प्राणी थे। काफ़ी वृद्ध भी। उनके चेहरे पर खिंची गहरी झुर्रियां उनके इतिहास और लंबे तजुर्बे का अहसास कराती थीं। किस्से-कहानियों से भरपूर। इन्हीं का लिहाज़ करते हुए हमने उन्हें हमेशा आप कहा। लेकिन कमाल का जीवट था। काम करने और कराने में उस्ताद। और एक नंबर के फेंकू भी।
वो हमारे पिताजी से हमेशा बात करते रहते थे। हमने पिताजी को कई बार कहा भी। इनसे बातें कम किया करें। काम के पैसे देते हैं, बातों के नहीं। लेकिन न तो पिताजी माने और न ही मिस्त्री चचा। हम उन्हें चचा कहते थे। 
मकान बनाने के दौरान वो कई बार बीमार भी पड़े। उनका बुढ़ापा देख कर हमें हमेशा डर लगता कि कहीं लुढ़क न जायें। भगवान से मनाते थे कि वो जल्दी से ठीक हो जायें। एक बार लंबे बीमार पड़े। घर पर डॉक्टर को बुलाना पड़ा। टाइफाईड निकला। पिताजी ने दवा-दारू का पूरा खर्च उठाया। अपने अर्धनिर्मित मकान में पनाह दी। बिजली-पानी, मूंग की दाल की खिचड़ी और मच्छरदानी भी। महीना भर लग गया उन्हें ठीक होकर काम पर आने में। इस बीच उनके निर्देशन में दूसरे मज़दूर-मिस्त्री काम करते रहे। उनके साथ-साथ पिताजी ने मिस्त्री चचा को भी दिहाड़ी दी।

एक दिन हमारी उनसे झड़प हो गयी। वो रोज़ पिता जी को नए-नए आईडिया दिया करते थे। इधर पिता जी को भी तकरीबन ब्रेन-वेव आया करती थीं। नतीजा यह हुआ कि काम बढ़ता गया और साथ में दाम भी। तीन महीने की बजाय छह महीने हो गए और फिनीशिंग अभी बाकी थी। हमने कह दिया कि पैसा ऐंठ रहे हैं आप। चचा एक लंबी 'जी' खींच कर चुप हो गए। वो रूठ गए। तीन दिन तक आये ही नहीं। काम रुक गया। इधर पिताजी हम पर गुस्सा हो गए। हम उन्हें मना कर लाये। इसके लिए हमें अपने कान पकड़ने पड़े।  
उनकी गंवई भोजपुरी भाषा बहुत अच्छी लगती थी। वो अपने साथियों से ही नहीं हम सब से भी इसी भाषा में बात करते थे। जब प्यार से बोलते होते तो लगता था कि किसी ने चीनी घोल दी हो।

Sunday, February 19, 2017

लड़की ने रिजेक्ट कर दिया

-वीर विनोद छाबड़ा
पुत्र जब बड़ा होकर कमाना-धमाना शुरू कर देता है तो माता-पिता को उसकी शादी की फ़िक्र लगनी शुरू होती है। हमारे माता-पिता भी उससे अलग नहीं थे। लेकिन हम एक-दो साल और स्ट्रगल करना चाहते थे।
ज़बरदस्ती एक लड़की दिखाई। हमने फिर वही कहा- लड़की अच्छी है। लेकिन हमें दो साल का वक़्त दीजिये।
लड़की ने समझा कि हमने उसे रिजेक्ट किया है। उसने ज़रूर हमें हज़ार-हज़ार गलियां दी होंगी। माता-पिता भी बहुत नाराज़ हुए। घर में काफ़ी तनावपूर्ण माहौल था।
ऐसे में मेरे मामा की भोपाल से चिट्ठी आई - यहां आ जाओ। दिल बहल जायेगा। हमने ऑफिस से छुट्टी ली और भोपाल पहुंच गए।
भोपाल पहुंचे तो पता चला कि मामा ने एक लड़की देख रखी है। उनके दोस्त कपूर साब की बहन है। परिवार इंदौर में है। काफ़ी पढ़ा-लिखा खानदान है।
हमने कहा - मामाजी ये माज़रा क्या है? मुझे अभी नहीं करनी शादी।  
वो बोले - भांजे, मैं प्रॉमिस कर चुका हूं। एक बार चल कर देख तो लो। शादी के लिए जोर नहीं दूंगा। हां या न तुम्हारे पाले में है। जब मामी ने भी जोर डाला तो हम तैयार हो गए।
हम इंदौर पहुंचे। सीधे लड़की के घर। बहुत अच्छा घर था। लेकिन हमें हैरानी हुई कि न चाय, न पानी। सीधा लंबा-चौड़ा इंटरव्यू। लड़की के माता-पिता संतुष्ट हुए कि लड़का सही है।
अगला सीन शूट किया गया। परंपरानुसार लड़की चाय की ट्रे लेकर आई। हमने हौले से गर्दन ऊपर उठाई। लड़की अच्छी थी। लेकिन ऐसे मौकों वाली लाज गायब थी। बल्कि तनाव था। शायद उसे ये सब तमाशा पसंद नहीं। चाय की ट्रे भी मानो पटक दी। सोफे पर धम्म से बैठी। हमें सब अटपटा लगा। पांच मिनट वो बैठी। इस बीच मामी उससे गुफ्तगू करती रही। फिर वो अचानक चली गई।
हमने देखा एक छोटी लड़की बार बार अंदर आ कर मुझे गौर से देखती, जीभ निकाल कर चिढ़ाती, ठेंगा दिखाती और फिर भाग जाती।
अगला सीन - लंच। लड़की भी मौजूद है। अनमनी सी। भोजन के बाद हम हाथ धोने बाहर वाशबेसिन पर गए। वहां वो लड़की खड़ी थी। लगा कुछ कहना चाहती है। लेकिन पीछे-पीछे उसका भाई आ गया। 
हमें यकीन हो गया। उसे ये संबंध मंज़ूर नही। मना नहीं कर पा रही। किसी और को चाहती है। तय कर लिया कि मना करके उसकी परेशानी दूर कर देंगे।

Saturday, February 18, 2017

दिलीप और कामिनी की प्रेम कहानी थी 'गुमराह'

- वीर विनोद छाबड़ा
प्रेम के मामले में दिलीप कुमार की लाईफ़ रील में ही नहीं रीयल में भी त्रासद रही है। फिल्म में जान डालने के लिए वो अपनी नायिकाओं के इतने करीब चले जाते थे कि कई को सचमुच ही दिल दे बैठे। कामिनी कौशल उनका पहला प्यार था। कामिनी ने चालीस के दशक में लाहोर यूनिवर्सिटी से अंग्रेज़ी में बीए आनर्स किया था। वो उन चंद लड़कियों में थी जो फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलती थीं। १९४६ में उन्हें चेतन आनंद 'नीचा नगर' से लेकर आये थे। इस फिल्म को अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई थी।
कामिनी का असली नाम उमा कश्यप था। उनका दिलीप कुमार से परिचय 'नदिया के पार' के सेट पर हुआ। लेकिन 'शहीद' (१९४९) उन दोनों की पहली रिलीज़ फिल्म थी। यह सुपर हिट फिल्म थी। इसके बाद उन्होंने शबनम और आरज़ू में काम किया। उनका प्यार परवान चढ़ने लगा।
लेकिन कामिनी के साथ एक समस्या थी। वो विवाहित थी। उनका विवाह असामान्य परिस्थितियों में हुआ था। उन दिनों वो उमंगों के रथ पर सवार रहती थीं।  नित नई ऊंचाई को छूने की तमन्ना रखती थी। सहसा परिवार में एक बहुत बड़ी ट्रेजडी हुई। उनकी बड़ी बहन का एक सड़क दुर्घटना में निधन हो गया। बहन की दो छोटी बेटियां थीं। यक्ष प्रश्न उठा कि कौन पालेगा इन्हें? सबकी आंखें कामिनी की ओर उठ गयीं। उनके पास कोई विकल्प नहीं था। और इस तरह वो अपनी बहन के विधुर पति की पत्नी बनी थीं।
मगर उमंगें यूं आसानी से मरा नहीं करतीं। कामिनी को पता ही नहीं चला कि वो दिलीप कुमार को दिल दे बैठीं। दिलीप कुमार भी उनके बिना बेचैन रहते थे। कामिनी के परिवार को भी खबर हुई। उनका भाई बंदूक लेकर सेट पर पहरा दिया करता था। लेकिन प्यार पहरों से नहीं रुका करता। परंतु इससे पहले कि मामला हद से आगे गुज़रता दोनों को अहसास हुआ कि इस रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है। कई ज़िंदगियां तबाह होंगी। बेहतर होगा कि प्यार को कुर्बान कर दिया जाए।
दिलीप कुमार के परिवार से बहुत निकट संबंध रखने वाली सितारा देवी ने एक लेख में लिखा है कि उस दिन दिलीप कुमार बहुत उदास थे। वो बात बदलने की बहुत कोशिश कर रहे थे। लेकिन आंखों से आंसू आना बंद नहीं होना चाहते थे। कई साल बाद कामिनी ने भी एक इंटरव्यू में स्वीकार किया कि उनका दिलीप कुमार से स्नेह था। लेकिन सब कुछ मिल तो नहीं जाता। यह जीवन ऐसा ही होता है।
१९६३ में एक फिल्म आयी थी गुमराह। यह इसी त्रासद प्रेम कथा पर आधारित थी। डायरेक्टर बीआर चोपड़ा चाहते थे कि दिलीप कुमार इसमें काम करें। लेकिन दिलीप ने मना कर दिया। दफ़न इतिहास को उखाड़ना नहीं चाहते थे।

Friday, February 17, 2017

तलब ने गिराया था

-वीर विनोद छाबड़ा
बाज़ तलब बड़ी ख़तरनाक होती हैं। अजीब हरकतें करने को मजबूर करती हैं?
मैं १९७० की सर्दियों में राजस्थान के बीकानेर शहर में ब्याही अपनी बड़ी बहन से मिलने जा रहा था। मैं बी.ए. में था तब।
उस दिन तो बलां की सर्दी थी। ट्रेनों में सन्नाटा था। लखनऊ से दिल्ली और फिर वहां से मीटरगेज की ट्रेन से सीधा बीकानेर। थ्री-टियर में जगह तो बिना रिजर्वेशन मिल गयी।
दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पांच अदद सिगरेट और माचिस की डिब्बी का इंतेज़ाम किया। इतने में रात कट जायेगी। ट्रेन में मुझे नींद नहीं न तब आती थी और न आज आती है। मगर सर्दी इतनी ज्यादा थी कि पांच सिगरेट नाकाफी पड़ीं। डेढ़-दो घंटे में ही फूंक गयीं।
आगे सादलपुर जंक्शन था। वहां ज़रूर मिलेगी। लेकिन बदकिस्मती की मार। ट्रेन जिस प्लेटफार्म पर रुकी थी, वहां सर्दी के मारे सारे टी-स्टाल बंद। सिगरेट की तो बात ही न पूछिए।
एक चलते-फिरते ने बताया - उधर एक नंबर पर सब मिलेगा। इधर तो कुत्ता भी ना होवे। 
रात आधी गुज़र चुकी थी। मगर सफ़र तो अभी आधे से ज्यादा बाकी था। और सर्दी की कुड़कुड़ाहट रुक न रही थी। लगता था, जान ही निकल जाएगी। तीन स्वेटर थे। दो हाफ आस्तीन और एक फुल्ल। अलावा इसके एक अदद कंबल। सर्दी रोकने के लिए नाकाफ़ी हो रहे थे।  
सादलपुर के बाद कई स्टेशन आये। लेकिन चाय नहीं मिली। सिगरेट तो दूर की बात थी।
जब कोई स्टेशन आता था तो बड़ी उम्मीद से प्लेटफार्म पर उतरता था। लेकिन हर बार गहरा सन्नाटा पसरा मिला। वहां की मिट्टी और आबो-हवा की गंध नथुनों में भरने का सुख ही हासिल कर पाता। इस बीच ड्रैक्युला की कई डरावनी फिल्मों की भी बेसाख्ता याद आती। पूरा बदन ऊपर से नीचे तक सिहर उठता। मैं फौरन डिब्बे में वापस हो लेता था।

ब्रॉडगेज के मुकाबले मीटरगेज की ट्रेन बड़ी मंथर गति से चलती है। उस दिन तो वक़्त ही जैसे ठहर गया हो।  
स्लीपर डिब्बे में भी तकरीबन सन्नाटा था। कुल पांच-छह यात्री रहे होंगे मुझे मिला कर। सब कंबल और रजाइयों में खुद को पैक करके सो रहे थे। एक तो गठरी बना हुआ एक बर्थ के कोने में दुबका हुआ था।
बिना सिगरेट-चाय के मेरा तो बुरा हाल। मिल जाए तो कड़ाके की ठंड का मुकाबला करना आसान हो जाता। हे भगवान दिला दो। सवा रूपए का प्रसाद कल ही हनुमान जी को चढ़ाऊं।
जरूरत अविष्कार की जननी होती है। हाई स्कूल परीक्षा में लिखा ये निबंध याद आया।
मैंने डिब्बे में सो रहे यात्रियों को ध्यान से देखना शुरू किया। शायद उसमें कोई सिगरेट पीने वाला हो या किसी के सिरहाने रखी डिब्बी मिल जाये।
दैवयोग से एक मिल ही गया। वही गठरी बना सोता हुआ बंदा। नीचे सिगरेट के ढेर सारे अधपिये टुर्रे बिखरे पड़े थे। वो ज़ोर-ज़ोर से खर्राटे मार रहा था जो ट्रेन चलने के शोर के बावजूद साफ़-साफ़ सुनाई दे रहे थे।