Wednesday, December 31, 2014

काले स्वेटर में २२ साल।

-वीर विनोद छाबड़ा

आज सुबह-सुबह एक मित्र आ धमके।

देखते ही आगबबूला हो गए। अब कितने दिन और पहनोगे? जब आता हूं यही काला स्वेटर पहने दोहरी-तिहरी रज़ाई में घुसे दिखते हो। दस-बारह साल से देख रहा हूं। कब तक पहनोगे? रिटायर करो।

मैं शून्य में निहारते हुए बताता हूं - दस बारह नहीं यार पूरे बाईस साल हो गए हैं।

मित्र थोड़ी देर तक बकर-झकर किये। चाय सुड़के और चलते बने। इस ताकीद के साथ कि अगली बार आऊं तो ये पहने न दिखना। 

उनके जाते ही मैंने कमरे में उनकी मौजूदगी से बने माहौल को फूं-फां किया। और अपने स्वेटर की ओर मुखातिब हुआ  - दोस्त, एक और पैदा हुआ तुम्हारा दुश्मन। लेकिन तुम घबराना नहीं। कोई कुछ भी कहे। बाइस साल का लंबा सफ़र साथ-साथ तय किया है हम दोनों ने। कोई मज़ाक नहीं। तुम्हें नहीं छोड़ सकता ऐ काले दोस्त। मेरे फेयर रंग के साथ काला रंग बहुत मैच करता है। गोरे रंग पे इतना न गुमान कर.मुझे ये बात कई लोगों ने बताई। काले दिल वालों की काली नज़र से बचाया है तुमने। नज़र न लग जाये किसी की राहों में.पांच बार स्कूटर से गिरा हूं। तीन बार तो तुम्हीं थे मेरे तन पर।

मेरी फरमाइश पर मेमसाब ने तुम्हें रिकॉर्ड समय में बनाया। तुम एक मात्र आइटम हो जो मेरी पसंद से बनाये गए और आज तक मेरी मर्ज़ी से मेरे घर में हो।

पहले दो साल तक मैं तुम्हें सिर्फ पार्टियों में पहनता रहा। लेकिन बाद में रेगुलर पहनने लगा। ऑफिस में और बाहर भी। कई साल तक ये सिलसिला चला। तुम्हें मेरे तन पर देख लोग आजिज़ आ गए। जलने लगे।

तुम मेरी पहचान भी बने। कोई बाहर से आता तो मातहत कहते - जाओ भैया देख लो किसी फ्लोर पर कहीं विचर रहे होंगे। जो फुल आस्तीन काला स्वेटर मिले, समझना साहब इसी में धरे हुए हैं।

जब एक से बढ़ कर एक नए स्वेटरों की आमद हो गयी तो पुराने पीछे चले गए। लेकिन पुराना होने की बावज़ूब मैंने इसे छोड़ा नहीं। घर में पहनने लगा।

Monday, December 29, 2014

राजेश खन्ना, एक मिथक का नाम!

-वीर विनोद छाबड़ा

आज के दिन जन्मे राजेश खन्ना को यूनाइटेड प्रोडूसर्स टैलेंट हंट ने खोजा था। उन्हें सबसे पहले नासिर हुसैन ने साइन किया था। लेकिन जीपी सिप्पी की रविंद्र दवे निर्देशित राज़पहले फ्लोर पर गयी। मगर चेतन आनंद की आख़िरी ख़तऔर नासिर हुसैन की बहारों के सपनेपहले रिलीज़ हो गयी। ये तीनों ही बाक्स आफ़िस पर फ्लाप रहीं। हां आलोचको ने ज़रूर दबे लफ्ज़ों में ऐलान किया कि राजेश में अच्छे कलाकार के गुण प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं।


मैंने राजेश खन्ना की तमाम फ़िल्में देखी हैं। दरम्याना कद, साधारण रंग-रूप और नैन-नक्श। एक नज़र में कुछ भी नहीं। लेकिन इसके बावजूद सुपर स्टार। वो यकीनन एक मिथक थे। वरना हाथी मेरे साथीजैसी बेहद साधारण सुपर-डुपर हिट न होती।

आज भी मैं उस दौर के रहस्यको नहीं समझ पाया कि जनता किसमें क्या देख कर फर्श से अर्श पर बैठा देती है। तब तो आज जैसा मीडिया हाईप भी नहीं था, जिस पर राजेश को सुपर स्टार बनाने का इल्ज़ाम लगता।

हां राजेश की मृत्यु को ज़रूर मीडिया ने उसके चौथेके बाद भी अस्थि विसर्जन तक खूब भुनाया। मौजूदा पीढ़ी को बताया कि कभी राजेश खन्ना नामक मिथक रूपी सुपर स्टार होता था।

मुझे राजेश की हर फिल्म में उसका सुपर स्टार होने का अहम छाया दिखा जिसमें मैं उसमें सुपर स्टार के भार तले दबे कलाकार की तलाशता रहा। ये मुझे मिला। मगर चंद फिल्मों में। आख़िरी ख़त, खामोशी, आराधना, अमर प्रेम, दो रास्ते, आनंद, इत्तिफ़ाक़, सफ़र, बावर्ची, नमक हराम, दाग़, अविष्कार, प्रेम कहानी, आपकी कसम, अमरदीप, अमृत, अवतार, थोड़ी सी बेवफ़ाई, अगर तुम न होते, जोरू का गुलाम, आखिर क्यों, सौतन और पलकों की छांव में। परफारमेंस तलाशते निर्देशकों की पहली पसंद राजेश ही थे।


राजेश खन्ना पहले सुपर स्टार तो थे। उसके बाद अमिताभ सुपर स्टार हुए। लेकिन मैं राजेश को ज्यादा भाव दूंगा। राजेश के अलावा किसी और को हर तबके के, हर उम्र के दर्शक की बेपनाह मुहब्बत नहीं मिली। उनमें रेंज और वैरायटी भी ज्यादा थी। किरदार की खाल में बहुत ज्यादा घुसते थे।

मगर सब कुछ होते हुए भी राजेश मुकम्मिलनहीं थे। उनके संपूर्ण कैरीयर और निज़ी जीवन में भारी उथल-पुथल चलती रही। इसने सुर्खियां बन कर उनके सुपर स्टारडम और आर्टिस्ट मन को ग्रहण लगा दिया।

Saturday, December 27, 2014

याद - रफ़ी का नौशाद को एक रुपया वापस करना!

-वीर विनोद छाबड़ा
बात उन दिनों की है जब फिल्म इंडस्ट्री में मोहम्मद रफ़ी एक स्ट्रगलर थे और नौशाद अली आला दर्जे की संगीतकार। 

रफ़ी के दिन मुफ़लिसी में कट रहे थे। रोज़ कमाओ और रोज़ रोटी खाओ। नौशाद साहब के संगीत निर्देशन में रिकॉर्ड होने वाले एक कोरस में रफ़ी को भी गाने का मौका मिला।


उस दिन रफ़ी की जेब में सिर्फ़ एक रुपया था। रिकॉडिंग स्टूडियो दूर था और रफ़ी ये मौका छोड़ना नहीं चाहते थे। स्ट्रगल के दिनों में मौका चूकने का मतलब होता था सफलता की ओर जाने के बजाये दो कदम पीछे और रात को भूखा सोना। लिहाज़ा रफ़ी रिकॉर्डिंग स्टूडियो पहुंचे। चूंकि नौशाद बड़े संगीतकार थे अतः  उम्मीद थी कि रिकॉर्डिंग से इतना मेहनताना मिलेगा कि दो दिन की रोटी का जुगाड़ हो जायेगा।

रफ़ी का एक रुपया स्टूडियो तक पहुँचने के किराये में ही खर्च हो गया। मगर किस्मत की मार। किन्हीं कारणों से रिकॉर्डिंग कैंसिल हो गयी। सब घरों को लौट गए। मगर रफ़ी बैठे रहे।

नौशाद साहब ने देखा कि एक बंदा स्टूडियो के बाहर सीढ़ियों पर उदास बैठा है। उसके चेहरे पर निराशा की गहरी लकीरें खिंची हैं। उन्होंने वज़ह पूछी।

रफ़ी ने थोड़ा झिझकते हुए बताया - मेरे पास सिर्फ एक रुपया था जो यहां आने में खर्च हो गया। सोचा था रिकॉर्डिंग के बाद पैसा मिल जायेगा। मगर रिकॉर्डिंग ही कैंसिल हो गयी। यही फ़िक्र है कि अब वापस कैसे जाऊं?

नौशाद साहब को तरस आ गया। उन्होंने जेब में हाथ डाला और एक रूपये का सिक्का निकाल कर रफ़ी की हथेली पर रख दिया।

कई साल गुज़र गए।

रफ़ी अब रफ़ी साहब हो चुके थे। बड़ा नाम था उनका। उन्हें बात करने तक की फुर्सत नहीं होती थी।

रफ़ी साहब एक दिन नौशाद साहब के घर पहुंचे। उनके हाथ में एक शीशे जड़ा एक फोटोफ्रेम था। और उस फ्रेम में एक रूपये का सिक्का चिपका हुआ था।

रफ़ी साहब ने नौशाद साहब को वो फ्रेम भेंट किया।

Wednesday, December 24, 2014

रफ़ी - अफ़सोस हम न होंगे…

रफ़ी - अफ़सोस हम न होंगे

-वीर विनोद छाबड़ा 

दो राय नहीं हो सकती कि पुरुष गायकों में सबसे ज्यादा फैन क्लब सिर्फ और सिर्फ मोहम्मद रफ़ी के नाम हैं। उनका जन्म अमृतसर के पास एक गांव कोटला सुल्तानपुर में २४ दिसंबर १९२४ को हुआ था। आज वो होते तो ९० साल पूरे कर लेते।

रफ़ी की गायकी की बारीकियों के बारे में बात करना सूरज को दिया दिखाने के समान है। वो बेमिसाल थे। हर तरह के गाने गा सकते थे। चाहे क्लासिकल हो या वेस्टर्न। गंभीर हो या कॉमेडी।

अगर उन्हें मालूम होता था कि उनका गाना फलां कलाकार पर फिल्माया जाना है तो फिर कहने ही क्या। ऐसा लगता था मानो वो खुद कलाकार हों। धीर-गंभीर दिलीप कुमार हों या चुलबुले जानी वॉकर। या फिर रिबेल स्टार शम्मी कपूर। वो उनकी आवाज़ बन जाते। प्रदीप कुमार, राजेंद्र कुमार और देवानंद  की भी की भी स्थायी आवाज़ रफ़ी ही थे।

अभिनय की निचली पायदान माने जाने वाले बिस्वाजीत (पुकारता चला हूँ मैं.…)और जॉय मुखर्जी (आँचल में छुपा लेना कलियां) सरीखे अभिनेताओं के बारे में कहा जाता था कि वो अगर फिल्म में खड़े हो पाते थे तो उन पर फिल्माए रफ़ी के गानों की वज़ह से।

रफ़ी जितने बेहतरीन गायक थे उतने ही बेहतरीन इंसान भी। किसी भी नए कलाकार को अपने आवाज़ देने में कोई संकोच नहीं था उनमें। कॉमेडियन को भी आवाज़ को आवाज़ देकर इज़्ज़त बख़्शने वाले रफ़ी साहब पहले थे। 

मुफलिसी के दौर से गुज़र रहे संगीतकार निसार बज़मी की 'खोज' के लिए रफ़ी ने एक रूपये में गाया। उन दिनों उन्हें बज़्मी साब को कोई घास नहीं डालता था। बाद में बज़्मी पाकिस्तान चले गए और बहुत बड़े संगीतकार बन गए।

लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को शुरुआती दौर में पैर ज़माने में उन्होंने बहुत मदद की। उनकी पहली फिल्म 'छैला बाबू' के लिए पहला गाना मुफ्त गाया। उन्हें नई फिल्मे भी दिलाईं। 'दोस्ती' में 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरेसे लक्ष्मी-प्यारे कहां से कहां पहुंच गए। रफ़ी ने बेस्ट सिंगर का फिल्मफेयर पुरुस्कार भी पाया।   

राकेश रोशन की पहली फिल्म  'आपके दीवानेके लिए रफ़ी साहब ने सिर्फ एक रुपए मेहनताना लिया था। दुनिया जानती है आज राकेश रोशन किस बुलंदी पर हैं।

Tuesday, December 23, 2014

मिट्ठी वाणी बोलिए!

-वीर विनोद छाबड़ा
वो महिला कपडे की दुकान में घुसी।

दुकानदार गुरबचन सिंह जी ने स्वागत किया - आओ बहन जी। बैठो उधर नहीं इधर बैठो यहां ऐ.सी. की ठंडी-ठंडी सोणी हवा मिलेगीहां हुक्म करो जी। क्या दिखाऊं। सूट, साडी, लहंगा ओये छिंदे कुछ ठंडा-शण्डा लेकर आ भाई।

नहीं नहींमुझे कुछ ब्लाउज पीस चाहिए -  महिला ने तनिक झेंपते हुए कहा। 

कोई नहीं जी। ओ तुस्सी उधर साड़ी-ब्लाउज कार्नर चले जाओ ओ छोटे बहन जी दी सेवा कर छेती - गुरबचन सिंह जी  बेहद विनम्रतापूर्वक बोले।

छोटे ने बहनजी को हाथ जोड़ नमस्ते की। आदरपूर्वक बैठाया। फिर एक नहीं दर्जनों पीस दिखाए। कार्नर में रखे सारे शेल्फ पलटवा दिए।

पूरे-पूरे पैंतालीस मिनट खा गयीं वो महिला। मगर उस महिला को कुछ भी पसंद नहीं आया। किसी का रंग उसके दिमाग में बैठे रंग से मेल नही खा रहा तो

किसी की क्वालिटी ख़राब। किसी की शेड फ़र्क। और किसी की दाम ज्यादा। एक पीस तो ऐसा था जिसे उनकी पड़ोसन कल ही खरीद कर लायी है। उसे तो कतई नहीं खरीदना है। 

छोटे का दिमाग ख़राब हो गया। अब घंटा भर लगेगा। सारे पीस तह कर सही जगह पर लगाने में।

लेकिन गुरबचन सिंह जी का दिमाग कतई गर्म नहीं हुआ। बर्फ की तरह ठंडा रहा। खड़े होकर महिला को विदा किया - आप आती रहा करें जी। आप ही की दुकान है। पैसों की फ़िकर तो कभी करना न जी। बीस-तीस हज़ार तक का समान तो जब चाहो ले लो जी। पैसा किधर नहीं जाता। आ जायेगा देर सवेर।

Saturday, December 20, 2014

इत्ता पिटोगे…

-वीर विनोद छाबड़ा

अभी कुछ दिन पहले की बात है।

मेरे भांजे की पोस्टिंग आगरा हो गई। उसने रोमिंग से बचने के लिए अपना मोबाइल नंबर बदल दिया। लेकिन ये न बताया कि पुराना ख़त्म हो गया है। मैंने दोनों ही नंबर 'सेव' में रखे। जब भी बात होती थी नए नंबर से।

एक दिन नया लग नहीं रहा था। पुराना मिला दिया। उधर से किसी स्त्री का कठोर स्वर सुनाई दिया - कौन है?

मेरा भांजा तो अकेला रहता है? ऐसा-वैसा भी नहीं है। फिर ये स्त्री कौन?और वो भी लट्ठमार स्वर। मुझे लगा कहीं गलत लग गया। मैंने कहा - जी माफ़ करियेगा। शायद गलत लग गया है।

उधर से पहले जैसी ही लट्ठमार आवाज़ आई - ठीक है। रख अब।

मैंने फ़ौरन काट दिया। और मन ही मन कहा - क्या ज़माना आ गया है। बात करने तक की तमीज नहीं।


ये सोच कर कि अब ठीक जगह नंबर लगेगा मैंने थोड़ी देर बाद फिर उसी नंबर पर कॉल किया।

लेकिन फिर वही कड़क आवाज़ -  कौन है?

मैं सकपका गया। वही कानों के परदे फाड़ने वाली कर्कश आवाज़। फिर वही गलती। मैं शर्मिंदा हो गया - माफ़ कीजियेगा। फिर गलत मिल गया।


ये कहते हुए मैंने कॉल बंद कर दी। अब मेरे समझ में आ गया कि भांजेराम का पुराना नंबर किसी और को अलॉट हो गया है।

चाहिए तो ये था कि मैं उस नंबर को फौरन डिलीट कर दूं। लेकिन गलती से ऐसा नहीं हो पाया। दो दिन बाद फिर भांजे से बात करने की ज़रूरत पड़ी। मैंने कॉल किया।

सहसा मुझे ख्याल आया कि ये तो उसी नंबर पर कॉल किया है। तुरंत काट दिया। तब तक दो बार 'ट्रिंग-ट्रिंग' हो चुकी थी। एक गहरी सांस लेते हुए शुक्र किया कि उधर से उठा नहीं था।
इस बार मैंने देर नहीं की। फौरन नंबर डिलीट किया।

फिर दूसरे नंबर से भांजे से बात की। उससे पुष्टि भी कर ली कि पुराना नंबर अब उसके पास नहीं है।

आदत के मुताबिक अगले दिन सुबह उठ कर सबसे पहला काम ये किया कि मैसेज और मिसकॉल चेक की। तीन मैसज थे और एक मिस कॉल। मिसकॉल बिना नाम की थीं।

आमतौर पर मुझे नंबर याद नहीं रहते। कोई नया मित्र होगा? ये सोच कर मैंने कॉल बैक किया। ट्रिंग ट्रिंगमैं हैलो की प्रतीक्षा करने लगा।

Wednesday, December 17, 2014

दो दोस्तों की तीसरी क़सम!

-वीर विनोद छाबड़ा
अच्छा सिनेमा देखने वालों को तीसरी क़सम’(1966) ज़रूर याद होगी। इसे गीतकार शैलेंद्र ने प्रोड्यूस किया था। निर्देशन बासु भट्टाचार्या का था। प्रसिद्ध लेखक फणीरेश्वरनाथ रेणु की रचना मारे गए गुल्फामपर आधारित थी यह फिल्म। शैलेंद्र का सपना था।


शैलेंद्र भले बहुत प्रसिद्ध गीतकार थे और अनन्य मित्र राजकपूर के अलावा तमाम निर्माता-निर्देशकों की पहली पसंद। मगर फिल्म बनाना हमेशा बहुत ही मुश्किल रहा है। ये बात फिल्म लाईन से रोटी-रोज़ी का जुगाड़ करने वाले शैलेंद्र से बेहतर भला कौन समझ सकता है? और फिर गीतकार की हैसियत ही कितनी होती है? मगर ये ऐसा कीड़ा है। एक बार काट ले तो कोई ईलाज नहीं।

शैलेंद्रजी पर तो मानो भूत चढ़ा था। सपनों में खोये थे... सब तो अपने ही हैं। फिल्म बन जाने दो। पैसे की बात बाद में। देखना, सब यही कहेंगे। लेकिन ये सपनों की नगरी है प्यारे। जितने चाहे देखो, एक से एक हसीन सपने। एक ठोकर पड़ेगी। नींद खुल जायेगी। भूल जाओगे सपना। याद करोगे उस गंदी बस्ती को जहां से तुम आये हो। शैलेंद्र के साथ भी यही हुआ। लेकिन वो पीछे नहीं हटे। फिल्म तो बन कर रहेगी। बैंक खाली किया। दोस्तों-यारों से मदद मांगी। थोड़ी बहुत ही मिली। फिल्म फ्लोर पर जाने के लिए तैयार हो गयी।


राजकपूर साहब की हां चाहिए थी। यों तो वो मुद्दत पहले से तैयार थे। फिर भी एक औपचारिक हां तो ज़रूरी थी। शैलेंद्रजी पहुंचे राजसाहब के दरबार। शैलेंद्र ने उन्हें वादा याद कराया।

राजसाहब बोले - ‘‘हां, बिलकुल याद है। मगर पहले यह तो बताओ प्रोजेक्ट क्या है? बजट कितना है? मेरी फीस कितनी है? साईनिंग एमाउंट कहां है? एग्रीमेंट फार्म कहां है?’’

शैलेंद्रजी के हाथों से तोते उड़ गए। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें और क्या बताएं। वो जो सोच कर आए थे वैसा तो यहां कुछ नहीं घटा। बल्कि सवाल पर सवाल। खैर, शैलेंद्रजी ने जैसे-तैसे हिम्मत बटोरी - ‘‘ये रहा एग्रीमेंट फार्म। जो आपकी फीस हो इसमें भर दीजिए। और हां ये रहा आपका साईनिंग एमाउंट।’’ यह कहते हुए शैलेंद्रजी ने जेब में हाथ डाला। जितना भी जेब में पैसा था निकाल कर रख दिया।

Sunday, December 14, 2014

राजकपूर - छलना मेरा काम!

- वीर विनोद छाबड़ा

जब होश संभाला तो दिलीप कुमार, राज कूपर और देवानंद की त्रिमूर्ति को राज करते हुए पाया हिंदी स्क्रीन पर। लाखों प्रशंसकों के साथ-साथ मैं भी इनका जबरदस्त फै़न था। अपने-अपने कारणों से तीनों ही दिलों पर राज करते थे। मेरे लिए दिलीप कुमार नंबर एक थे तो देवानंद ज्यादा पीछे नहीं। राजकपूर भी बेहतरीन एक्टर थे लेकिन उससे कहीं ज्यादा सुपर्ब प्रोड्यूसर-डायरेक्टर।


मुझे उनकी सबसे पहली फिल्म बूट पालिश’(1954) याद आती है। हमारे स्कूल में दिखायी गयी थी। ये बात 1958 की है। सुना था राजकपूर बहुत बड़ा एक्टर है। वो भी इस फिल्म में काम करता है। लेकिन निराशा हुई जब पूरी फिल्म में सिर्फ़ एक बार दो मिनट के लिए उन्हें देखा और वो भी सोते हुए। बहरहाल, मैं नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है....गुनगुनाते घर आ गया। कुछ दिनों बाद पिताजी मुझे छलिया’(1960) दिखाने ले गये। तब जाना राजकपूर क्या है? मुझे याद है जब राजकपूर को प्राण पीटते थे तो बहुत गुस्सा आता था लेकिन जब प्राण पिटते थे तो मैं भी सीट से उछल-उछल जाता-मार साले को, और मार...।आने वाली कई बरसातों में मैं कभी आंगन और कभी छत पर खूब नहाया - डमडम डिगा डिगा, मौसम भिगा भिगा, बिन पिए मैं तो गिरा, मैं तो गिरा हाय अल्लाह....। आज भी जब कभी बरसात होती है और बच्चों को उछलते-कूदते मस्ती करते देखता हूं तो जु़बां पर बरबस यही गाना आता है। आज की पीढ़ी को भी जब यही गुनगुनाते सुनता हूं तो बड़ा फ़ख्र होता है, अपने अतीत पे। आज 54 बरस बाद भी बड़ी जान है इसमें।

मुझे राजकपूर बतौर एक्टर भले उतना पसंद न हों मगर गानों में वो पूरी तरह छूबे दिखते हैं। इस कारण से कि धुन बनने से लेकर रिकार्डिंग तक वो बराबर शरीक रहते हैं। वो अच्छे डांसर नहीं थे लेकिन हौले-हौले उनका ठुमकना बहुत भाता था। मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिशतानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी...। श्री 420’(1955) का ये गाना मुझे इतना अच्छा लगता है कि हिंदी सिनेमा के सारे गाने इस पर न्यौछावर हैं। कारण ये है कि हम हिन्दोस्तानी
दुनिया में कितने ही बड़े तुर्रमखां क्यों न बन जायें मगर अपनी ज़मीन, अपनी संस्कृति और अपनी पहचान नहीं भूल सकते, हमें फ़ख्र है अपने खून पर और भारतीय होने पर। तकरीबन हर गाने में वो दूसरों के मुकाबले बेहतरीन हैं। कभी उनकी मस्ती भाती है- सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी, सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी....छलिया मेरा नाम छलना मेरा काम, हिंदु-मुस्लिम-सिख-इसाई सबको मेरा सलाम....। तो कभी चुहलबाज़ी - तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, मगर किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी... मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमुना का, बोल राधा, बोल संगम होगा कि नहीं....। और कभी गंभीरता - मेरे टूटे हुए दिल से, कोई तो आज ये पूछे कि तेरा हाल क्या है...।

भले ही मैं दिलीप कुमार को एक्टिंग के मामले उनसे ज्यादा भाव देता हूं लेकिन ज़िक्र जब ऋषिकेष मुखर्जी की अनाड़ी’(1959) या उनकी अपनी आवाराऔर जिस देश में गंगा बहती है’(1961) का होता है तो राजकपूर यकीनन टाप पर मिलते हैं। इसके लिए उन्हें बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर भी मिला। वो भारत के चार्ली चैप्लिन थे। मगर यह इल्ज़ाम सरासर गलत है कि राजकपूर सिर्फ़ अपने ही प्रोड्यूस फिल्मों में बेहतर परफार्म करते हैं। छलिया, अनाड़ी, तीसरी क़सम, दिल ही तो है, फिर सुबह होगी, परवरिश, शारदा, मैं नशे में हूं, दो जासूस वगैरह तमाम फिल्में गवाह हैं कि राजकपूर अपने बैनर की बरसात, आवारा, जागते रहो, श्री 420, चोरी चोरी, जिस देश में गंगा बहती है, संगम, और मेरा नाम जोकर की परफारमेंस के मुकाबले बाहरी फिल्मों में भी पूरी तरह ईमानदार रहे।

Thursday, December 11, 2014

दिलीप कुमार - उनकी नायिकाएं और इश्क!

-वीर विनोद छाबड़ा
आज 92 साल पूरे करके 93वें दाखिल हो रहे दिलीप कुमार की फिल्मी ज़िंदगी का हर सफ़ा निराला है, अद्भुत भी। नायिकाओं के बारे में खासतौर पर। उनके दौर की नायिकाएं दिलीप कुमार के साथ काम करने के लिये तड़पा करती थीं। कई सफल हुईं और कई नाकाम। कुछ नायिकाओं के साथ उनकी दोस्ती मोहब्बत की दास्तान बनी, कुछ के साथ लुक्का-झुप्पी चली और कुछ के साथ लडाई-झगड़े हुए।
मधुबाला का मामला तो कचेहरी तक जा पहंुचा था।

उनकी शुरू की नायिकाओं में कामिनी कौशल हुआ करती थीं। दिलीप ने उन्हें नीचा नगर’ (1946) में देखा और दिल दे बैठे। उन दिनों कामिनी हिट नायिका थी और दिलीप की तीन फिल्में फ्लाप हो चुकी थीं। रमेश सहगल की शहीद’ (1948) में संयोग से एक साथ काम करने का मौका मिला। कामिनी को भी युवा दिलीप और उनका रोमांटिक अंदाज भा गया। दोनों दीवानावार प्यार करने लगे।
कामिनी शादीशुदा थी। उनके पति सूद साहब को ये कतई पसंद नहीं था। वो दोनों का पीछा किया करते और अकेले रहने का कोई भी मौका नहीं देते थे। लेकिन बाबजूद इसके शाट के बहाने कोई न कोई रास्ता तलाश लेते। कभी मचान और कभी टीले की चोटी। शहीदसुपर हिट हुई। साथ ही दिलीप-कामिनी की जोड़ी भी। नदिया के पार, शबनम और आरजू तक दोनों का रोमांस खूब चला। लेकिन एक सुबह दोनों ने पाया कि ये ठीक नहीं है। इसका कोई भविष्य नहीं है। कामिनी की शादी-शुदा जिं़दगी में आग लग जायेगी। और दिलीप ये तोहमत दिल पर लिये समाज को मुंह नहीं दिखा पायेंगे। लिहाज़ा दोनों अलग हो गये।

दिलीप कुमार ने नरगिस के साथ सात फिल्में कीं - मेला, अंदाज, जोगन, बाबुल, दीदार, अनोखा प्यार और हलचल। शुरू में नरगिस-दिलीप को लेकर कुछ अफ़वाहें उड़ी मगर वहां कुछ था नहीं। वो दोनों सिर्फ़ दोस्त थे। नरगिस तो राजकपूर के साथ थीं। यह बात महबूब की अंदाज़(1949) में ज़ाहिर हो चुकी थी। इसमें दिलीप-नरगिस-राजकपूर का प्रेम त्रिकोण था। नरगिस ने राजकपूर को दिल दिया। और दिलीप का किरदार दर्द लिए दुनिया से कूच कर गया।

दिलीप के दिल को अगला पड़ाव मधुबाला की दहलीज़ पर मिला। दोनों ने साथ साथ तराना, संगदिल और अमर कर चुके थे। नया दौर’(1957) फ्लोर पर थी। मधु भी जल्दी ही दिलीप के दिल के दरवाजे़ पर दस्तक देने लगी। दोनों बेसाख्ता मोहब्बत में डूब गये। परंतु मधु के पिता अताउल्लाह खान इस रिश्ते के सख़्त खि़लाफ़ थे। उन्हें डर था कि अगर कमाऊ चिड़िया हाथ से उड़ गयी तो दर्जन भर लोगों का परिवार कौन चलायेगा? इसी मुद्दे पर मधु इमोशनल हो जाती और दिलीप कुमार से दूर जाने की कोशिश करती। लेकिन बेमुरुव्वत मोहब्बत दूर होने न देती। मधु की हालत न जीने की थी और न मरने की। दिलीप भी कुछ ऐसी ही परेशानी महसूस करते।

Wednesday, December 10, 2014

चरण स्पर्श, चरण वंदना और चारण भक्त!

-वीर विनोद छाबड़ा
चरण स्पर्श बड़ों के प्रति आदर का प्रतीक है।
जब बड़े हुए तो माता-पिता को बड़ों के चरण स्पर्श करते देखा। रूठने वालों को भी बड़ों के पैर छूते देखा। देखा-देखी हम भी वैसा ही करने लगे।
तब हमें नहीं मालूम था कि मुस्लिम समाज में ये प्रथा नहीं है। लेकिन हम उनके भी पांव छूते थे। माता-पिता ने मना नहीं किया। और उन्होंने भले ही 'न न' की, लेकिन हम फिर भी छूते रहे।
चिट्ठीपत्री में भी सबसे पहले चरण स्पर्श या पांव लागी लिखा जाता था। 
जब घर से बाहर दुनिया में कदम रखा तो पता चला कि किसके छूने और किसके नहीं। कौन हिन्दू और कौन मुसलमान। लेकिन जब किसी विद्वान से मिलना होता तो न हिन्दू न मुसलमान और न इसाई, हाथ खुद-बी-खुद पांव छूने को बेताब हो जाते। और ये जज़्बा आज भी बदस्तूर कायम है।
हमारे खानदान में बेटियां पांव नहीं छूती। बड़े बुज़ुर्गों ने सख्ती से मना किया है। हम तो बहुओं द्वारा पांव छूने के भी विरुद्ध हैं। लेकिन वो मानती नहीं। शायद ज़माने के सदियों पुराने बंधन यह उन्हें ऐसा न करने की इज़ाज़त नहीं देते।
हालांकि अब पूरी तरह दंडवत हो कर चरण स्पर्श की प्रथा में थोड़ा सुधार हुआ है। कई घरों में तनिक झुक कर एक हाथ आगे बढ़ाने तक सीमित रह गया है। अगर किसी कारणवश दूरी अधिक है ये कवायद दूर से प्रतीकात्मक रूप ही अदा हो जाती है। और अगला इसे आदर दिया जाना मान लेता है।
लेकिन तब बहुत ख़राब लगता है जब हम अपने किसी मित्र या रिश्तेदार के घर जाते हैं तो बहू हमारे चरण स्पर्श करने के साथ-साथ सास-ससुर के भी चरण स्पर्श करती है।
एक बार बहू भूल गई तो सास ने आखें तरेर कर उसे चरण स्पर्श करने का इशारा किया। थोड़ी देर बाद अंदर से आती आवाज़ों से पता चला कि सास ने बहू को बहुत बुरी तरह डांटा - अगर दिन में दस बार मेहमान आएंगे तो तुम्हें दस बार उनके और हमारे पांव छूने पड़ेंगे। बहू हो, बहू बन कर रहो। हमने उन मित्र के घर जाना बहुत कम कर दिया है।

Sunday, December 7, 2014

बदलता भिखारी!

-वीर विनोद छाबड़ा
मेरे एक निकटवर्ती रिश्तेदार हैं। हर साल वो अपने जन्मदिन पर देवी जागरण का आयोजन करते हैं और तत्पश्चात विशाल भंडारा।

भंडारा दो किस्म का होता है। एक - भिखारियों के लिए और दूसरा - आमजन के लिए।

दोपहर में भिखारी और शाम को आमजन। भिखारियों की संख्या २५१ तक लिमिट है। और आमजन कोई रोक-टोक नही। पांच सौ तक को वो स्वयं न्यौता दे आते हैं मगर सात सौ से ज्यादा ही खा जाते हैं। पूरा मोहल्ला जुटता और उनके बाहर से आये रिश्तेदार भी।

मगर अगले साल से उन्होनें भंडारा बंद करने का फैसला किया है। 

वो इसकी वज़ह बताते हैं कि - यों तो भिखारी हर गली मोहल्ले अस्पताल मदिर के आसपास ढेरों की संख्या में मिलते हैं। मगर इन्हें संगठित करके ढोकर ले आना एक टेढ़ी खीर है। इसके लिए भिखारियों के ठेकेदार का सहारा रहा।

प्रति भिखारी की दर १००-१२५ रूपए के आसपास होती है। ठेकदार की कमीशन अलग। ठेकेदार भिखारी से भी कमीशन मारता है।

ठेकेदार भिखारियों की संख्या में भी हेरा-फेरी करता है। २५१ की जगह १५० लाएगा और बताएगा पूरे ढाई सौ। कई भिखारियों को कपडे बदल कर दो बार दिखा कर संख्या पूरी करने का दावा करता है।

अब ये तो संभव है नहीं कि प्रत्येक भिखारी का चेहरा याद रखा जाए या उनके नाखुन पर जल्दी न मिटने स्याही वाली लगा दी जाए। और फिर कई तो शक्ल से भिखारी ही नहीं दिखते। अंग्रेजी में बात करते हैं। घोटाला ही घोटाला। इसीलिए बंद कर दिया।

रिश्तेदार का फ़साना सुनकर मुझे अपना बचपन याद आता है।