Monday, January 27, 2014

बड़ा आदमी, बड़ी कार

वीर विनोद छाबड़ा
वो ज़माना था पचास-साठ के दशक का। अपने शहर लखनऊ के चंद सोशल रसूखदारबहुत बड़े डाक्टरवकीलप्रोफे़सरआला सरकारी अ़फ़़सरमुख्यमंत्री और गवर्नर साहब की ही हैसियत थी कार रखने की। यों भी कहा जा सकता है कि कार का होना ही ‘बड़े आदमी’ की पहचान थीनिशानी थी। वो फियेटस्टेंडर्डप्लाईमाऊथ व अंबेसडर का ज़माना था। शेवरले और इंपाला जैसी लंबी कारें अमीरों के अमीर या फिर सरकारी लाट साहबों की कोठियों की रौनक बढ़ाती थीं। ज्यादातर कारें इंपोर्टेड थीं। दिलजले कहते थे- समंदर के रास्ते से जहाजों पर लद कर हिंदोस्तां की छाती पर मूंग दलने आती हैं।

बंदे को याद है कि सन 1971 में लखनऊ युनिवर्सिटी के वाईस चांसलर के अलावा पोलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट के हेड प्रफेसर पी.एन. मसालदान साहब ही सिर्फ़ कार से चलते थे। बाकी रीडर्स और लेक्चरार रिक्शा या साईकिल के सहारे होते थे। यूनिवर्सिटी के बाकी डिपार्टमेंट्स में भी तकरीबन यही हाल था। यदा-कदा की ही कार वाली हैसियत थी। बंदे की एक क्लासमेट काली अंबेस्डर कार से आती थी। उनके भाई नामी डाक्टर थे। दो-तीन और क्लासमेटनें भी अक्सर उसी में लदी होती थीं। बंदे को उनसे दोस्ती की बड़ी ललक रहती थी। अरसे  बाद ये हसरत पूरी भी हुई। उसकी चमचागिरी में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी। मगर फिर भी उसकी कार की सवारी का सुख कभी नसीब न हुआ। एक बार उनकी कार पंक्चर हो गयी। तब बंदा खूब हंसा था। जब अपने पास न हो और दूसरे के पास हो तो उसे परेशान देखकर सबको मज़ा आता है। इस पर वो सख़्त नाराज हो गयी थी। बमुश्किल मनाया था उसे।

उस ज़माने के मुख्य मंत्री को छोडकर बाकी तमाम ‘माननीयगण’ स्टेशन से विधान सभा या अपनी सरकारी रिहाईशी कालोनी दारुलशफ़ा तक का सफ़र रिक्शे या इक्के-तांगे से तय करते थे। बंदे के दौर में श्री चंद्र भानु गुप्त माननीय मुख्य मंत्री होते थे। कारों की कमी नहीं थी। वो पानदरीबा स्थित अपनी पुश्तैनी कोठी में रहते थे। बंदा तब बहुत छोटा था और उनके मोहल्ले के पास रहता था। बंदे ने उन्हें कई बारबिना सिक्योरिटी के पैदल ही बाज़ार करते देखा है। बंदे ने तो यह तक सुना था कि कानपुर में जब टेस्ट मैच होता था तो इंडियन क्रिकेट टीम होटल से ग्रीन पार्क तक रिक्शे पर लद कर जाती थी।

उस दौर में कार को ‘मोटर’ या ’मोटरकार’ और बस को ‘लॉरी’ बोला जाता था। मोटरों की कम तादाद के हिसाब से दो लेन की सड़़कें भी खासी खुली-खुली व चौड़ी-चौड़ी दिखती थीं और कार तले कुचल कर जिंदगियां दम नहीं तोड़ती थीं। अमीरज़ादे बदमस्त हो कर फुटपाथों पर जिंदगी बसर करने पर मजबूर मजलूमों पर महंगी मोटरें नहीं चढ़ाया करते थे। धूंएं और शोर का प्रदूषण तो कतई नहीं था।

सड़क पर मोटर खास-खास मौकों पर ही निकलती थी। चूंकि लंबे अरसे के बाद मोटर बाहर आती थी लिहाज़़ा बैटरी डाऊन होने की वज़ह से धक्का देकर ही स्टार्ट होती थी। इस काम के लिए घर के नौकर-चाकरमालीसईस वगैरह का इस्तेमाल होता था। कभी-कभी तो घरवालों  और घर आये मेहमानों को भी जुटना पड़ता था। 

करीब 43 साल पुरानी बात है। बंदे के एक मि़त्र होते थे रवि प्रकाश मिश्र। खानदानी जमींदार घराने से ताल्लुक रखते थे। पिता रिटायर्ड आईएएस थे। उनके पास इंपोर्टेड काली प्लाईमाऊथ थीजो कभी-कभार ही निकाली जाती थी। बैटरी डाऊन होने के कारण हमेशा धक्के खाकर ही स्टार्ट होती थी। धक्का लगाने वालों में बंदे ने भी कई बार शिरकत की। परंतु बंदे को बैठने का सुख कभी नहीं मिला। बाद में ये कार बिक गयी। यकीनन अब कहीं न कहीं एंटिक कार रैली में शान से चलती होगी।
 
कार स्टार्ट करने का एक दूसरा तरीका भी था। लोहे के खास हैंडिल को मोटर के सामने इंजन के ठीक नीचे बने एक सुराख में डाल कर बड़ी तेजी से घुमाया जाता था और मोटर फौरन स्टार्ट हो जाती थी। लारी और ट्रक भी इसी तरह स्टार्ट होते थे। बंदे को याद है कि बचपन में उसे 1961-62 में इंग्लैंड विरुद्ध कानपुर टैस्ट के तीसरे दिन का खेल देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। इसी में फारूख इंजीनियर का डेबू भी हुआ था। बंदा ये टैस्ट देखने अपने पिता के प्राईवेट कंपनी में ऊंची पोस्ट वाले दोस्त सतीश बत्रा की काली एंबेसडर कार में लखनऊ से कानपुर गया था। तब आज की तरह के कूलेंट वाले रेडियेटर का चलन नहीं था। रेडियेटर के ज्यादा गरम हो जाने के कारण कई बार रास्ते में कार खड़ी करके उसमें पानी डालना पड़ा था। स्टार्ट करने के लिए बीच-बीच में हैंडिल का इस्तेमाल भी किया गया था। बंदे को टेस्ट मैच देखने से ज्यादा मज़ा तो सफ़र में हुई इस कवायद में आया था। गौ़रतलब यह भी है कि साहब लोग महंगी और सलीकेदार ड्रेस में सज-संवर कर ही विद फैमिली बड़ी शान से मोटर से सवारी करने निकलते थे।
 
बंदे को आज के दौर की तुलना में गुज़रा ज़माना ख़्वाब जैसा लगता है। अब मोटरकार सिर्फ़ कार रह गयी है। आज कार तक आम आदमी  की पहुंच बेहद आसान हैरसूखदारों और बड़ों की बपौती नहीं है। बंदा बत्ती विभाग के हेडक्वार्टर से रिटायर हुआ है। वहां के तमाम छोटे बाबू तक आज कार के मालिक है। अब ये बात अलबत्ता दूसरी है कि महंगे पेट्रोल ने बहुतों को अपनी हैसियत का अहसास करा दिया है। बेशुमार छोटी-बड़ी कारों व स्कूटर बाईकों के कारण भयंकर ट्रैफ़िक जाम और नाकाफ़ी पार्किंग स्पेस सच्चाई तो हैसाथ ही बहाना भी। 

एक साहब ने फ़रमाया कि क्या करूं ड्राईवर नहीं मिलते। बंदे ने कहा कि भले मानुस खरीदी क्यों थी जब चलानी नहीं आती। बंदे को अपने ज़माने की पेड़़ पर चढ़ गयी उस हीरोइन की याद आ गयी जो नीचे उतरने के लिए हीरो की चिरौरी कर रही थी। अरे भईजब उतरना नहीं आता था तो चढ़ी ही क्यों थीबहरहालबंदे ने एक ड्राइवर से बात की तो उसने मुंह बिचकाया कि बाबू की हफ़्ते में बमुश्किल दो बार चलने वाली छोटी-मोटी कार चलाने में वो हनक कहां जो लाट साहबों की बड़ी और महंगी कारों के रोज़ाना चलाने में है। और फिर साहब की मेमसाहबबच्चों और उनके डॉगी को दोपहर में शापिंग कराने का तो अलग ही खास आनंद है। इससे अपना भी तो स्टेटस मेनटेन होता है।
 
आम आदमी की जद में आ जाने की वजह से कार अपनी इज़्ज़त भी गवां चुकी है। अब देखिये न! नेकर या घुटन्ना टाइप की ड्रेस में लोग सुबह दूध-डबलरोटी-अंडे की शॉपिंग पर कार से निकलने में शान समझते हैं। कुछ मॉर्निंग वॉक पर और क्लबों में बैडमिंटन खेलने के लिये भी कार को तकलीफ़ देते है। इसी ड्रेस में कई कार वाले देर रात आइसक्रीम पार्लरों में भी सपरिवार जमे मिलते हैं। ऐसे अमीरज़ादों के कुत्ते भी बड़ी शान से कार में बैठ हुए सड़क चलतों को मुंह चिढ़ाते नज़र आते है।

मगर ऐसा बिलकुल नहीं है कि आमजन के हाथ में आने के बाद कार बड़े आदमी की निशानी नहीं रही। आज बड़ा आदमी सिर्फ़ अमीरी और ऊंचे ओहदे की वजह से नहीं पहचाना जाता। आज उसकी पहचान  समाज मेंसियासी हलकोंकारोबारी दुनिया और तमाम दूसरे पेशों जैसे तालीममेडिकलवकालत आदि में उसकी वाकफ़ियतदबदबे और दबंगई के दरजे से तय होती है। और फिर कारें भी बंदे के इसी रुतबे के हिसाब से अपनी साइज़ बढ़ा लेती है और आगे-पीछे दर्जनों की तादाद में सड़क पर दौड़ती है। यानी जितना पावर फुल बंदा उतनी ही बड़ीऊंची और सबसे आगे उसकी कार और पीछे-पीछे कारों का लंबा काफ़िला। मतलब ये कि कारों की भी अपनी दबंगई हैरसूख होता है।

आप अगर पांच-छह लाख की कार के मालिक हैं तो माफ़ कीजियेगासीना तान कर चलने की कतई ज़रूरत नहीं। आप जैसे गली-गली में बिखरे मिलेंगे। सब्जीवाला भी भाव नहीं देता। मतलब ये कि आप ‘आम कार’ वाले हैं। बंदे को याद है कि सात व आठ के दशक में उसे स्कूटर से आया देख कर सब्जी वाला भाव बढ़ा देता था। ऐसे में बंदा स्कूटर को नज़रों से दूर रख कर बाज़ार करता था। आज वही सब्जी वाला खुद कार मालिक है। छोटी-मोटी कार को कोई भाव नहीं देता। 

बहरहालइसीलिए हर आम आदमी को ताकीद की जाती है कि जब एसयूवी टाइप दबंग कारें मय काफ़िले के दौड़ रही हों तो बेहतरी इसी में है कि अपनी आम कार के साथ कोई पतली गली पकड़ लें। 

एक और अहम सूचना। खासतौर पर सफ़ेद एंबेसडर कारजिस पर सूबे की सरकार या भारत सरकार की ‘प्लेट’ टंगी होटॉप पर लाल-नीली बत्ती जड़ी  हो और शीशों पर मोटी काली फ़िल्म चढ़ी होतो आम कार वाले का उससे बहुत दूर रहना ही बेहतर होगा। इस कार से बड़े-बड़ों की बड़ी-बड़ी कारें भी डरती है। इसके चालक को सबसे आगे निकलने की जल्दी होती है। कायदा-कानून भी उसका बाल बांका नहीं कर सकता। यों होने को तो इसका चालक एक मामूली सरकारी मुलाज़िम है मगर तमाम सरकारी विभागों में एक इन्हीं का तबका है जिसमें बला की मुस्तैदी और स्पीड के दर्शन होते है। दरअसल पिछली सीट पर विराजमान साहब के ओहदे का भूत चालक पर यों चिपक जाता है जैसे विक्रम पर बेताल। और उसे यह गुमान रहता है कि उसके साहब को मुल्क-सूबे का वर्तमान तथा भविष्य सुधारने का और आम आदमी के कल्याण करने वाली बेहद ज़रूरी मीटिग अटेंड करने का या उससे संबंधित फाईल निबटाने का ठेका मिला हुआ है। इसलिए वो हमेशा बेहद जल्दी में और सबसे आगे दिखता है।
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हिन्दुस्तानलखनऊ के मेरे शहर में स्तंभ में दिनांक 21.09.2012 को प्रकाशित लेख का विस्तृत व पारिमार्जित रूप।









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