Wednesday, February 5, 2014

फिल्मबाज़ों के बिना सिनेमा का सौ साला सफ़र अधूरा !

वीर विनोद छाबड़ा
भारतीय सिनेमा सौ साल का हो चुका है। गुज़रे साल खूब बातें हुईं। धूल की मोटी परतें झाड़ कर इतिहास के ढेर सफ़े खंगाले और पलटे गये। छोटे-बड़े सभी बहुत याद किये गये। मगर सिनेमा के इस लंबे सफ़र में हर पल साये की तरह चिपके रहने वाले साथियों, यानि दर्शक, को एक बार भी दिल से याद नहीं किया गया। अगर ये साथ नहीं होते तो यकीनन ये सफ़र कभी खुशगवार न हुआ होता, इतनी कामयाबी के साथ कतई अपनी मंज़िले मकसूद को न छू पाया होता। बंदे की मुराद महज़ आम दर्शक से नहीं है, बल्कि इंतेहा पसंद उस दर्शक से है जिसने फ़िल्मों से दीवानावार मोहब्बत की है। इसी को फ़िल्मबाज़ यानि फ़िल्मक्र्रेज़ी कहा जाता था। बंदे ने भी बेसाख्ता मोहब्बत की है फ़िल्मों से। जिंदगी का बेशकीमती हिस्सा इसे अर्पित किया है। बहुत पाया है तो बहुत खोया भी है। कोई शिकायत नहीं। अपनी करनी का ही फ़ल पाया है। बंदे ने अपनी यादों में बहुत गहरा गोता लगा कर कुछ सफे़ तलाश किये हैं जिन्हें बंदा अपने एक सीनीयर फिल्मबाज़ मित्र स्व0 कृष्ण मुरारी सक्सेना उर्फ़ मुरारी भाई को याद करते हुए सौ साल के हो चुके सिनेमा के सफ़र में जोड़ रहा है।
एलफिंस्टन से आनन्द और अब आनन्द सिनेप्लेक्स

बंदे को लखनऊ के फिल्मबाज़ों की फेहरिस्त से गायब हुए एक ज़माना गुज़र चुका है। मगर फिर भी अच्छी तरह याद है कि उसके  ज़माने, यानी साठ-सत्तर का दशक, में ऐसे क्रेजी फिल्मबाज़ साते-जागते, खाते- पीते, हंसते-रोते, गाते-बजाते यानी हर पल सिर्फ़ और सिर्फ़ सिनेमा की बात करते व सोचते थे। हर घटना को विजुएलाईज़ करते होते। बात-बात पर उन्हें फ़िल्म की किसी सिचुएशन की याद आती। रोज़ाना के एजेंडे में सिनेमा पहले नंबर पर होता। पहला दिन, पहला शो देखते थे। ऐसों को नंबर-वन फिल्मबाज़ कहा जाता था। ऐसों के लिये ये भी कहा जाता कि उन्हें फिल्मेरिया/फिल्मोनिया हो गया है। ये रोग पैदाईशी बताया जाता था। बंदा भी इसका एक लंबे अरसे तक इसका शिकार रहा। अच्छी फ़िल्म औसतन चार-पांच दफ़े देखी जाती थी। यों ऐसे भी ज़बरदस्त फिल्मबाज़ होते थे जो किसी खास फिल्म को सौ बार तक देख जाते थे।


फ़िल्म की किस्सागोई का भी खूब चलन था। तीन घंटे की फिल्म की किस्सागोई बामुश्किल तीन दिन में खत्म होती थी। कई फ़िल्मबाज़ तो किस्सागोई के इतने माहिर होते थे कि बकवास फिल्म को भी इतना रोचक बना डालते थे कि कई सुनने वाले मजबूर होकर फिल्म देखने चले जाते थे। ये बात अलबत्ता दूसरी होती थी कि रोते-पीटते लौटते थे। यों कुछ फिल्मबाज़ों को बीमारी थी कि किसी फिल्मबाज़ से तफसील से कहानी सुने बगैर फ़िल्म ही नहीं देखते थे। आज भी बंदा पचास-साठ के दशक के दौर के अपने बचपन को विजुलाईज़ करता है तो खुद को पिताजी की उंगली पकड ़कर लखनऊ के नावेल्टी में नागिन, मदर इंडिया व धूल का फूल, बसंत में कोहिनूर, आरती, मेरे महबूब व प्रोफेसर, कैपीटल में मुगल-ए-आज़म, लिबर्टी में असली-नकली आदि ढेरों फिल्में देखते हुए पाता है। बंदे को उसके पिता कभी-कभी अंग्रेज़ी फिल्म दिखाते भी थे, जिसमें से फिलहाल एक का नाम याद है। ये ओ’हेनरी की कहानी पर आधारित ‘ओल्ड मैन एंड दि सी’ थी जो ओडियन या मेफेयर में देखी थी। हर फ़िल्मबाज़ की यही कहानी थी। ग़ालिबन आज का फ़िल्मबाज़ भी ऐसा ही होगा।

उस ज़माने में मनोरंजन का सबसे सस्ता और सुलभ साधन सिर्फ़ सिनेमा था। अच्छी फिल्म के चर्चे हर खास-ओ-आम में होते थे, घर-घर में होते थे, हर गली-कूचे में होते थे। फ़िल्मबाजों की जमात में बंदे का दाखिला 1964 में हुआ था। तब स्कूल बंक करके बंदे ने अपने क्लासमेट दोस्त के साथ मेहरा टाकीज़ में सेकेंड रन पर हाफ़-रेट में आयी पुरानी फिल्म ‘पुलिस’ (प्रदीप कुमार, मधुबाला) देखी थी। बंदे को याद है कि उस दिन 40 पैसे वाली क्लास फुल हो गयी थी और 80 पैसे वाली क्लास की टिकट के लिये चवन्नी कम पड़ रही थी। हर हाल में फ़िल्म देखने का जोश ठंडा पड़ ही गया था कि संयोग से बंदे के घर की सफाईकर्मी का बेटा वहां दिख गया, जिससे चवन्नी उधार ली गयी। और साथ ही हाथ जोड़ कर खूब चिरौरी भी की गयी थी कि भैया न घर में बताना और न किसी और को। ताकि कहीं पिट न जायें। आखिर सिनेमा से पहला-पहला प्यार जो था न! कुछ दिन तक डरे-डरे से रहे। 

बंदा और उसका दोस्त एक दूसरे को दिलासा भी देते रहे कि घबराने की ज़रूरत नहीं, किसी ने नहीं देखा होगा।
फिर बंदे को पुरानी फ़िल्में देखने का चस्का लग गया। मेहरा के अलावा नाज़, जगत, सुदर्शन, प्रकाश, अशोक में पुरानी हाॅफ़ रेट की फिल्मों का खूब लुत्फ़ उठाता रहा। सी.आई.डी., नज़राना, आन, गूंज उठी शहनाई आदि तमाम पुरानी फिल्में हाफ-रेट पर ही देखीं थीं। जेब में पैसे भी तो कम होते थे न। सब्जी, राशन वगैरह का बाज़ार करने पर बामुश्किल 30-40 पैसे ही बच पाते थे। स्कूल में फलां फंड में चंदा देने के नाम पर मां से दस-बीस पैसे की वसूली कर लेता था। तब बंदे को नहीं मालूम था कि वो भविष्य के एक मजबूत फ़िल्मबाज बनने की नींव वो खुद ही डाल रहा था। एक बात और बताता चलूं कि समाज का एक वर्ग ऐसा भी था जो सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरानी फिल्में देखने का शौकीन था। उसे बड़ी शिद्दत से इंतज़ार रहता था कि चल रही फिल्म कब हाफ-रेट पर आती है। होता ये था कि नयी फिल्म बाक्स आफ़िस पर अपनी चमक-दमक जब खो देती थी तो उसे ए-क्लास थियेटर से हटा कर फौरन ही किसी पुराने थियेटर में हाफ-रेट पर शिफ्ट कर दिया जाता था। कई साल बाद फ़िल्म के लौट कर आने का रिवाज़ तो था ही, ताकि स्मृतियां पर धूल न जमने पाये। यों भी ही चार-पांच साल में फिल्मबाज़ों की एक नयी पीढ़ी भी मैदान में उतर जाती थी। हाफ-रेट पर फिल्म देखने का मुख्य कारण धनाभाव ही था। दूसरा कारण ये था कि किसी कारण से पहले रन में देखने से वंचित रह जाना। दोबारा-तिबारा देखने की ख्वाईश का चस्का जिसे होता था वो भी फिल्म के हाॅफ- रेट पर आाने का बड़ी शिद्दत से इंतज़ार करता होता था। बहरहाल, इसके लिये अमीनाबाद का ‘नाज़’ सिनेमाहाल सबसे उत्तम और चुनींदा हाल था। पुरानी हाफ-रेट की फिल्म और पुराना फटी गद्दी वाली सीटों वाले सिनेमा हाल का ये भी फायदा होता था कि वहां आराम से बैठ कर फिल्म के दौरान सिगरेट के सुट्टे मारे जा सकते थे। उन दिनों लखनऊ में बसंत, नावेल्टी, कैपीटल, लिबर्टी (अब शुभम), जय हिंद, प्रिंस, तुलसी, प्रतिभा, उमराव, गुलाब, लीला और फ़िल्मिस्तान(अब साहू) होते थे। अब बसंत, कैपीटल, तुलसी, लीला, जय हिंद, प्रिंस व तुलसी बंद हो चुके है। उस दौर के पुरानी फिल्में चलाने वाले सब सिनेमाहाल, सुदर्शन व जगत को छोड़कर, भी बंद हो चुके हैं।

बंदे को पहला, दिन पहला शो देखने वालों की जमात में शामिल होने के लिए लंबा इंतज़ार नहीं करना पड़ा। 1964 में बसंत में लगी ‘आई मिलन की बेला’ से इसकी शुरूआत हुई। इसके बाद बंदे ने ढेर फिल्में पहला दिन, पहला शो के अंतर्गत देख मारीं। धीरे-धीरे उसे श्हर के दूसरे फिल्मबाज़ भी पहचानने लगे। दिक्कत तो तब पैदा होती थी जब एक ही एक से ज्यादा नई फिल्में रिलीज़ होती थी। ऐसी सूरत में तय होता था कि एक फिल्म नून शो(दोपहर 12 से 3) में मारी जाए और दूसरी मैटनी(3 से 6) में या फिर ईवनिंग शो(6 से 9) में निबटायी जाए।  बंदे ने 1966 में एक ही दिन रिलीज़ राजकुमार कोहली की ‘लुटेरा’ (पृथ्वीराज कपूर, दारा सिंह, निशी) नून में और राम माहेश्वरी की ‘काजल’ (मीना कुमारी, राजकुमार, धर्मेन्द्र, पद्मिनी) ईवनिंग शो में निबटायी थीं। 

फ़िल्मबाज़ी में बंदे का पहला साथी उसका पड़ोसी दोस्त सुरेंद्र वर्मा ऊर्फ मन्ना था, जो आगे चल कर इलाहाबाद बैंक में आफिसर हुआ। दुर्भाग्य से वो आज इस दुनिया में नहीं है। बंदे को आज उसकी बेहद याद आ रही है। दूसरा साथी रविप्रकाश मिश्रा उर्फ मुन्नाजी थे, जो केस्को, कानपुर से कार्मिक अधिकारी के पद से रिटायर होने के बाद भी पिछले तीन साल से सेवाविस्तार पर हैं। बंदे को इतना ज्यादा क्रेज़ था कि एम.ए. के वायवा के ठीक एक दिन पहले नाईट शो फिल्म देखने गया था। अगले दिन वायवा में 62 नंबर मिले थे। नौकरी के लिये लिखित परीक्षा के समय भी ठीक एक दिन पहले नाईट शो देखा था। बंदे को तो फिल्म का नाम तक याद है। यह थी परवीन बाबी-क्रिकेटर सलीम दुर्रानी अभिनित ‘चरित्र’ जो ओडियन में लगी थी। बंदा इसी परीक्षा में पास हुआ और 36 साल 8 महीने की सेवा पूरी करके राज्य विद्युत उत्पादन निगम से उप-महाप्रबंधक(मा.सं.) के पद से रिटायर हुआ। बंदे को लगता है कि इतने अहम मुकाम पर उसका नाईट शो फिल्म देखना फलदायी रहा।
उन दिनों कोई-कोई फिल्म तो दिल को इतनी ज्यादा भाती थी कि उसे दोबारा-तिबारा ही नहीं सात-आठ दफे़ तक देख लेते थे। ऐसी ही एक फिल्म थी, राम और श्याम। तीन बार नावेल्टी में देखी फस्र्ट रन में और फिर हाफ-रेट पर नाज़ में पांच मर्तबे। लगातार दिन और बार-बार एक ही शो। नवीं बार भी गया था देखने। परंतु गेटकीपर ने रोक दिया। पता नहीं, उसे क्यों गुस्सा आ गया। शायद उसे लगा हो, लड़का पागल न हो जायें। यह 1968 की फरवरी थी, जब बंदे ने 37 फिल्में देखने का रेकार्ड बनाया था। अपना ये नाशुक्रा रेकार्ड बंदा फिर नहीं तोड़ पाया। यह भी बता दें कि इतनी फिल्में देखने के लिये पैसों का इंतज़ाम कहां से होता था। दरअसल बंदा और उसका दोस्त लिफ़ाफ़े बनाने का हुनर जाते थे। बड़ी तेज स्पीड थी दोनों की। जब ज़रूरत होती, चोरी-चुपके यहियागंज से रद्दी खरीद लाते और फटाफट ज़रूरत भर के इतने लिफ़ाफ़े बना डालते जिन्हें बेच कर फिल्म की टिकट भर के पैसे मिल जाते थे।

बंदे की आदत थी डायरी लिखने की। फिल्म देखी। कैसी लगी? उसकी तमाम खामियों, अच्छाईयों को तफ़सील से लिख मारते थे। एक दिन डायरी पकड़ी गयी। मां ने खूब डांटा। पिताजी (रामलाल, उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार) ने बड़े ध्यान से डायरी पढ़ी। बोले बहुत अच्छा लिखते हो। जाहिर है कि फिल्म देखते ही नहीं समझते भी हो। इसका फायदा क्यों नहीं उठाते? अखबारों में, मैग्ज़ीनों में लिख कर भेजा करो। बंदे ने पिता की आज्ञा का पालन किया। बस फिर क्या था। बर्बादी की कगार पर खड़े बंदे की राह ही बदल गयी। अखबारों और मैग्ज़ीनों में छपने लगा। लेकिन ज्यादा पैसे फिर भी जमा नहीं हो पाते थे। फिर ज़रूरतें भी बढ़ चली थीं। मगर फिल्म देखने के लिए लिफ़ाफ़े बनाने की ज़रूरत बनी रही। हर फिल्मबाज़ की कमाबेश यही कहानी थी। हर फिल्म की स्टार कास्ट, कहानी, गीत- संगीत, प्रोडूसर, डायरेक्टर, बैनर आदि तमाम बातें बरसों बाद याद रखना फ़िल्मबाज़ों का खास शगल था। जब एक फिल्मबाज़ की दूसरे फिल्मबाज़ से भेंट होती थी तो उनमें फ़िल्मों और उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर घंटों बहस होती थी।

उन दिनों लखनऊ नयी फिल्म गुरूवार को रिलीज़ होती थी। अमूमन नयी फ़िल्म के पहले चार-पांच हफ़्ते फिल्मबाज़ों के लिये रिजर्व माने जाते थे। फैमिलीवालों के लिये ये वक़्त खराब कहा जाता था। फिल्म का अच्छा-खराब होना कोई मायने नहीं रखता था। फिल्मबाज़ों का धर्म होता था कि हर फिल्म देखनी है, हर हाल में, चाहे फैमिली ड्रामा हो या एक्श्न-थ्रिलर पौराणिक हो या स्टंट। जुनून की हद ये थी कि कानपुर में पहले रिलीज़ होना बर्दाश्त नहीं हो पाता था। बंदे सहित कई फिल्मबाज़ ‘नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे’ देखने कानपुर गये थे।


फिल्मबाज़ों की एक जमात ऐसी भी थी जिनका जमावड़ा एलिफ़िस्टन, निशात सरीखे थियेटरों पर दिखता था जहां स्टंट और पौराणिक फिल्में रिलीज़ होती थीं।(निशात अब बंद हो चुका है और एलिफिंस्टन बाद में आनंद बना और अब आनंद सिने प्लैक्स हो गया है)। इन फिल्मों के हीरो शेखमुख्तार, दारा सिंह, आज़ाद महिपाल, शाहू मोदक होते थे जिनकी हैसियत इन फिल्मों के संदर्भ में दिलीप कुमार, राजकपूर व देवानंद से कम नहीं थी। मारूति, शेख, कमल मेहरा, टुनटुन की फूहड़ कामेडी पर लोग दिल खोल कर हंसते थे और बार-बार देखते थे। संपूर्ण रामायण, संत ज्ञानेश्वर, सती सावित्री, जय संतोषी मां, हरीशचंद्र तारामती, दयारे मदीना आदि धार्मिक फिल्मों के शो में हर मज़हब के फ़िल्मबाज़ दिखते थे। इन फिल्मों को देखने वाले तबके में ज्यादातर रिक्शेवाले, मजदूर, ढाबों व साईकिल मरम्मत की दुकानों तथा मोटर गैराजों में काम करने वाले लड़के होते थे। बंदा उनकी आंखों में ग़ज़ब की चमक और चेहरे पर बेपनाह जोश देखता था। वो इन फिल्मों को सिर्फ़ देख भर नहीं रहे होते थे बल्कि इनमें अपना भविष्य भी तलाश रहे होते थे।

फ़िल्मबाज़ों का कोई संगठित समूह नहीं हुआ करता था। एक-दूसरे को नाम से भी नहीं जानते थे। मगर शक्ल-सूरत से खूब पहचानते थे। टिकट के मामले में एक-दूसरे की मदद भी किया करते थे। पैसे वाले व दरियादिल फ़िल्मबाज़ दो-तीन स्पेयर टिकट रखते थे जो आमतौर पर साथी फिल्मबाज़ों के काम आते थे। कभी-कभी तो पैसेे कम पड़ते थे तो वो भी चलता था। शो के बाद हाथ हिला कर बिदा लेते थे- अच्छा गुरू, अगले हफ्ते बसंत में ‘पड़ोसन’ की रिलीज़ पर मिलेंगे। सयाने फिल्मबाज़ मायूसी से बचने के लिए टिकट एडवांस कराते थे। कुछ ऐन शो के वक़्त ब्लैक में टिकट लेना शान समझते थे। रसूखदार फिल्मबाजों के लिये थियेटर मैनेजर पहले से ही इंतज़ाम रखते थे। बंदे को मैनेजरों से वाक़फ़ियत बढ़ाने में थोड़ा वक़्त लगा था। उस पर नावेल्टी के टंडन साहब और मेफेयर के कुमार साहब मेहरबान रहते थे। हाऊसफुल की तख्ती के बावजूद टिकट मिलने की गुंजाईश होती थी। कभी-कभी निराशा भी हुई। कैपीटल के लोबो और निशात के जमील साहब भी मदद कर देते थे।

उन दिनों 18 से कम उम्र वालों को नून शो में दखिला देने पर मनाही थी। दरअसल आस-पास के स्कूल-कालिजों के लड़के बड़ी तादाद में स्कूल से भाग कर सिनेमा देखने चले आते थे, जिससे पढ़ाई का काफी नुक्सान होता था। बिलकुल ठीक बात थी। यह बात बंदे की समझ में तब आयी थी जब वो एक बार हाई स्कूल में और दूसरी बार इंटर में फेल हुआ।  यों एक सामाजिक मान्यता भी थी कि ज्यादा फिल्में देखने से बच्चे खराब ही होते हंै। बावजूद इसके सारे सिनेमाहालों के नून शो स्कूल-कालिजों के लड़कांे से भरे रहते थे। उन दिनों स्कूल-कालिजों के लड़को में सिनेमा देखने की महामारी फैली हुई थी। फिर भी नावेल्टी व निशात के मैनेजर अपनी जिम्मेदारी समझते हुये और नून शो में 18 से कम उम्र वालों को घुसने की इजाज़त नहीं देते थे। बंदे को भी कई बार इन थियेटरों से बाहर होना पड़ा था।

शहर के मेफ़ेयर और ओडियन में ज्यादातर अंग्रेज़ी फिल्में रिलीज़ होती थीं। इन थियेटरों में ऊंची क्लास के टिकट सबसे पहले फुल होते थे और फ्रंट क्लास के सबसे बाद में। ये दोनों थियेटर अब बंद हो चुके हैं। बहरहाल, स्टंट और पौराणिक फिल्मों के शौकीन तो वहां घुसना तो दूर उधर से गुज़रने तक से भी कतराते थे। कई लोग अंग्रेज़ी फिल्में इसलिये देखना पसंद करते थे ताकि उनकी अंग्रेज़ी समझने और बोलने की क्षमता बढ़ जाये। कुछ तो यों ही ऊंचा दिखने के चक्कर में और ऊंचे घराने की खूबसूरत व अंग्रेज़ी में गिटमिटाती लड़कियां के फेर में भी जाते थे। बंदा भी वहां अपनी अंग्रेज़ी दुरुस्त करने को जाता था। इससे बंदे को क़ाफ़ी फ़ायदा भी हुआ। बंदे ने ड्राकूला सीरीज़ की बहुत सी फिल्में ओडियन में देखी थीं। अंगे्रज़ी फिल्मों के शौकीन फिल्मबाज़ों का लेवल थोड़ा ऊंचा होता था। ये अंग्रेज़ी बोल कर किसी भी थियेेटर में हाऊसफुल के बावजूद टिकट हासिल कर लेते थे। बीच-बीच में इन थियेटरों ने अच्छी हिंदी फिल्में भी दिखायीं। जैसे मेफ़ेयर में पाकीज़ा, अखियों के झरोखों से, दुल्हन वही जो पिया मन भाये, बॉबी, सत्यम शिवम सुंदरम आदि।


हर फिल्म देखना और हर वक़्त फिल्मों के बारे में सोचते रहने से दूसरे कामों में मन नहीं लगता था। ऐसे में ज्यादातर फिल्मबाज़ों का पढा़ई-लिखाई में फिस्ड्डी होना तो लाजिमी ही था। इसी करण से ज्यादातर का कैरीयर अच्छा नहीं बन पाया। मगर कुछ ने फायदा उठाया। फ़िल्म को दिलो-दिमाग से देखा, समझा और फिल्म इतिहास व समाज पर इसके प्रभाव के बारे में पढ़ा व जाना। ऐसे कुछ लोगों ने आसमान छूने की ललक में बंबई की ट्रेन पकड़ी तो कुछ ने कलम उठाकर अपने जज़्बात बयां करने शुरू कर दिए। जैसा कि बंदा ऊपर कहीं बयां कर चुका है, बंदा कलम वाली जमात में शामिल हो गया। बंदे ने सालों-साल खूब लिखा। इसी दौरान बंदे को अपनी मेहनत के कारण अच्छी नौकरी भी मिल गयी थी। और इसके साथ ही बंदा फिल्मबाज़ों की फेहरिस्त से भी बाहर चला गया था। मगर मोह बरकरार रहा।


बाद में कैरीयर की फ़िक्र और पारिवारिक ज़म्मेदारियों के बोझ के कारण फिल्मों के प्रति मोह से भी मंुह मोड़ लेने के लिये बंदे को मजबूर होना पड़ा। यों भी फिल्मों का ट्रेंड बदल रहा था और साथ ही देखने वालों का भी। छापने वाले भी बदल रहे थे। अखबारों में नयी सोच के लोग दाखिल हो चुके थे और लिखने वालों की भी नयी पौध आ चुकी थी। बंदे को बदलते वक़्त के मिजाज़ के साथ एडजेस्टमेंट में कुछ दिक्कत भी महसूस हो रही थी। फिर एक दिन जिंदगी में ऐसा मोड़ आया कि बंदे ने कान पकड़ कर तौबा कर ली कि फिल्मों पर अब और नहीं, बस और नहीं। हुआ यों था कि एक लोकल अखबार के फीचर संपादक ने हाथ के ईशारों से छोटे से फोटो फ्रेम की आकृति बनाते हए कहा कि ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार की अभिनय की बारीकियों पर आर्टिकल लिख दो। बंदा दिलीप कुमार का उतना ही बड़ा फैन था जितने कि तुलसीदास भगवान रामजी के भक्त थे। बंदे को तो काटो खून नहीं। बंदा समझ गया कि उसका टाईम ओवर हो गया है। उन दिनों शाहरुख खान की पतंग बड़े जोर-शोर से ऊपर उठ रही थी। अब दिलीप कुमार कोई शाहरुख खान तो हो नहीं सकते थे कि उन्हें एक छोटे से फोटो फ्रेम में समेटा जा सके। उनके लिये बड़ा कैनवास चाहिये था, जिसके लिए अखबारों में स्पेस नहीं था। लिहाज़ा बंदे ने उन फीचर एडीटर महोदय को अपने दिल की बात बताते हुए बा-अदब माफ़ी मांग ली और मन ही मन दूसरी पारी आने तक इंतज़ार करने का इरादा किया।





फिल्मी जुबान में फ्रंटबेंचर यानि चवन्नी क्लास फिल्मबाज़ों के ज़िक्र के बिना भी सौ साल का फिल्मी सफ़र अधूरा है। इस जमात को आगे की सीटों पर बैठकर फिल्म देखने में मजा मिलता है। पीछे की क्लास में ‘जेंटरी’ के साथ बैठकर फिल्म देखने से अपने को असहज महसूस करते हंै। इस जमात को सस्ती क्लास का टिकट खासी मारा-मारी करके हासिल करने  होते थे। बड़ा सौतेला सलूक होता था इनसे। मेफ़ेयर को छोड़ कर बाकी थियेटरों के पिछले बदबूदार हिस्से में इसकी बुकिंग विंडो थी जो इतनी संकरी थी कि बामुश्किल एक हाथ घुसता था। भीड़ ज्यादा होने पर हाथ भी छिलते थे। जय हिंद और नावेल्टी में तो लोहे की सलाखों से बने तंग जंगले से गुजरना होता था। दबंग तो जंगले के ऊपर से भीड़ में कूदते थे। कमजोर अक्सर चोटिल हो जाते थे। ये हैवानी मंज़र बड़ा डरावना और दर्दनाक होता था। भीड़ को कंट्रोल करने के लिये न पुलिस का इ्रतज़ाम था और न ही ज़ख्मी होकर लहुलुहान हुए टिकर्टािर्थयों की मरहम-पट्टी का। त्रासदी ये थी कि पहला दिन, पहला शो के बाद बाक्स आफ़िस पंडितों  की निगाहें इसी क्लास पर टिकी होती थीं ये जानने के लिए इन्हें फिल्म कैसी लगी? फिल्म की रिपीट वेल्यू का फैसला यही क्लास करती थी। यही क्लास अच्छे सीन व धांसू डायलाग्स पर बेतरह तालियां पीटती थी और जोरदार मुजरों पर सिक्के भी उछालती थी। अगर पहला दिन पहला शो देखकर निकले किसी चवन्नी क्लास फिल्मबाज़ ने कह दिया कि टिकट बेच कर मूंगफली खा लो या उसके चेहरे पर पैसा वसूल वाली मुस्कान तैरती न दिखी तो समझिए अगले हफ़्ते ही फिल्म थियेटरों से खदेड़ दी गयी। बदले हालात में ये जमात बहुत छोटी होकर बचे-खुचे सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमाहालों में आखिरी सांस ले रही है। सिंगल स्क्रीन थियेटरों के सफाये के साथ ही इनका भी खात्मा हो जाना तय है। और सरकार की बेरूखी के मद्देनज़र ये वक़्त ज्यादा दूर नहीं दिखता।


मल्टी प्लैक्स और बढ़िया पैकेजिंग व मार्किटिंग के इस दौर में पहला दिन, पहला शो देखने वालों की तादाद भी यकीनन बहुत बढ़ी है, मगर फिल्मबाज़ों की अहमियत घट गयी है। सबूत है कि आज फिल्म देख कर निकले फिल्मबाज़ को अगर फिल्म पसंद नहीं आयी तो भी फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि मल्टीप्लैक्सों में हज़ार  प्रिंट एक साथ रिलीज़ करके और ताबड़-तोड़ प्रोमो के दम पर कुछ ही दिन में डिस्ट्रीब्यूटर 100 करोड़ बटोर लेता है। चूंकि धांसू से धांसू फिल्म भी आज फिल्म तीसरे-चैथे हफ़्ते में दम तोड़ती है इसलिये 100, 200 या 300 करोड़ के क्लब में दाखिल होने के बावजूद वो चर्चा में ज्यादा दिन नहीं टिक पाती। जबकि पहले के दौर में प्रोमो की शोशेबाज़ी के बगैर भी फिल्में फिल्मबाज़ों के बीच चर्चा के दम पर जुबली मनाती थीं और उसके बाद भी महीनों उसकी चर्चा की गूंज सुनायी देती रहती थी।


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हिन्दुस्तान, लखनऊ के ’मेरे शहर में’ स्तंभ में दिनांक 13.05.2013 को प्रकाशित लेख का संशोधित, विस्तृत व पारिमार्जित रूप।

-वीर विनोद छाबड़ा
डी 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016

मोबाईल नं0 7505663626

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