Saturday, August 9, 2014

एक था अलबेला भगवान, भगवान दादा!

- वीर विनोद छाबड़ा

यों तो हर कलाकार का संघर्ष से भरा अतीत एक शानदार फिल्म के लिये अच्छा खासा मसाला है। मगर भगवान दादा के जीवन का संघर्ष, उसमें तरह-तरह के उफान, सिफर से शिखर और फिर सिफर पर लौट कर औंधे मुंह गिरना एक जीवंत और रोंगटे खड़े करने वाली कहानी है जिस पर बनी फिल्म सुपर-डुपर हिट होने की गारंटी है। भगवान द्वारा अपने अच्छे दिनों में खराब दिनों को याद करते हुए कहे इन
शब्दों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो किस किस्म के इंसान थे और उन्होंने किस किस्म का संघर्ष किया है - फारेस रोड से लैमिंग्टन रोड तक का सफर यों तो महज़ पंद्रह-बीस मिनट का है, मगर मुझे यह फासला तय करने में पूरे बारह साल खर्च करने पड़े।

मंुबई की एक चाल में 01 अगस्त, 1913 का जन्मे भगवान आभाजी पालव के पिता कपड़ा मिल में मामूली मजदूर थे। मगर उनके बेटे भगवान ने चाल में रह कर महलों के ख्वाब देखने का गुनाह बार-बार किया। मोटा थुलथुल जिस्म, चौड़ा चौखटा और ऊपर से छोटा कद। चाल में रहने वालों को उनके महलों के ख्वाब देखने पर हंसी आई। बोले - पहलवान दिखते हो एक्टर नहीं।

भगवान दादा कुश्ती के भी बेहद शौकीन थे। इसीलिये सब उन्हें प्यार से भगवान दादा कहते। और इसी नाम से मशहूर हुए। फिल्म स्टूडियो के चक्कर लगाते हुए कई जोड़ी जूता घिसा। कभी-कभी तो खाना भी नसीब नहीं हुआ। हलक के नीचे पानी के दो घूंट उतार कर गुजर की। मगर संघर्ष जारी रहा। सपनों की नगरी बंबई में जिसने सपना देखना छोड़ा, समझो वो मरा। आखिर किस्मत खुली। क्या हुआ एक स्टंट फिल्म में छोटी सी भूमिका मिली। नाम था उसका-क्राईम। 1938 में बनी थी यह। साईलेंट फिल्म थी वो। भाव की अभिव्यक्ति संवाद बोल कर नहीं बल्कि चेहरे की जंबिश और हाथ-पैर बेतरह हिला कर करनी पड़ी थी।

शौक और जुनून क्या कुछ नहीं कराता। भगवान दादा ने छोटे-छोटे स्टंट और मजाकिया रोल करके इतना पैसा कमा लिया कि चेंबूर में एक छोटा-मोटा स्टूडियो खोल लिया। जागृति स्टूडियो। एक फिल्म बना
डाली - बहादुर किसान। लागत आयी-सिर्फ 65000 रुपये मात्र। स्पाट ब्याय से लेकर प्रोड्यूसर डायरेक्टर का काम खुद किया। 1938 से लेकर 1951 तक भगवान दादा ने अनेक लो बजट फिल्में बनायीं। स्टंट व एक्शन- मिक्सड विद थोड़ा सा कामिक -फिल्में चाल और झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाले कामगारों-मजदूरों के मध्य खासी लोकप्रिय होती थीं। यही कारण था कि भगवान दादा बंबई की चालों और झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वालों की पहली पसंद थे। 1951 तक भगवान दादा ने पैंसठ स्टंट और एक्शन फिल्में बनायी। इसी दौरान 1941 में तमिल फिल्म ‘वानी माहिनी’ भी बनायी। इसमें तमिल के मशहुर एक्टर एम0आर0 राधा के अलावा श्रीलंकाई एक्ट्रेस थावामनी देवी ने भी काम किया था। ये एक सफल और लेंडमार्क फिल्म थी। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इन पैंसठ फिल्मों में एक भी सुरक्षित नहीं है। वक्त की मार इन्हें खत्म कर गयी। इस दौर के भगवान दादा सिर्फ़ किस्सों में जिंदा हैं।

भगवान दादा के फिल्मों के प्रति समर्पण और जुनून को देखते हुए राज कपूर ने उन्हें सोशल फिल्में बनाने का मश्विरा दिया। और फिल्म बनी। फिल्म क्या बनी एक इतिहास ही रच डाला। सुपर-डुपर हिट हुई। गीताबाली के साथ भगवान खुद नायक थे। दिल के भोले-भोले और प्यारे-प्यारे प्यारेलाल की भूमिका में। फिल्म का नाम था - अलबेला। राजेंद्र कृष्ण के गीतों पर चितलकर रामचंद्र का म्यूज़िक था जो आज भी इतिहास के सफे फाड़ कर जब-तब बाहर आकर गूंजता है। शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के....और ओ भोली सूरत, दिल के खोटे, नाम बड़े और दर्शन छोटे... बरसों तक हर प्रकार के कार्यक्रमों में बजते रहे और हर वर्ग के लोग इस पर खूब थिरकते रहे। इन्हीं गानों में भगवान दादा का स्लोमोशन स्टेप डांस बहुत लोकप्रिय हुआ था। इधर परदे पर भगवान दादा नाचते और उधर सिनेमा हाल में दर्शक। यह पहली फिल्म थी जिसमें दर्शक सिनेमाहाल में नाचे थे। भगवान दादा के इस स्लोमोशन स्टेप डांस की बाद में
अभिताम बच्चन, मिथुन चक्रवर्ती और गोविंदा ने भी जम कर नकल उतारी। दर्शक ओरीजनल को भूल कर नकलचियों में खो गये। कल्पना कीजिये यदि भगवान दादा ने इस स्टेप डांस की ईजाद नहीं की होती तो जिन कलाकारों ने इसकी नकल करके अपनी प्रसिद्धी में चार चांद लगाये हैं, आज वे कहां होते? यह भगवान दादा ही थे जिन्होंने स्टंट सीन में ओरीजनल को कवर करने के लिये डुप्लीकेट का इनट्रोड्यूस किया।


भगवान दादा ने ‘अलबेला’ की अपार सफलता कि बाद ‘झमेला’ और ‘लाबेला’ बनायीं। सफलता भगवान दादा के सर चढ़ कर इतना ज्यादा बोली कि अहंकार में परिवर्तित हो गयी जिसमें उनका डूबना लाज़िमी बन गया। दोनों फिल्में सुपर-डुपर फ्लाप हुईं। 1956 में ‘भला आदमी’ से फिर कोशिश की। इसमें आनंद बक्शी ने पहली बार चार गाने लिखे थे। बक्शी ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। सफलता ने उन्हें बुलंदियों पर बैठा दिया। लेकिन इस मुकाम पर पहुंचाने वाला बंदा धरातल पर ही रह गया। लगातार तीन फ्लाप शो के बाद शुरू हुआ शिखर से सिफ़र तक का रिटर्न सफ़र। पहले चेंबूर में खड़ा दो मंज़िला जागृति स्टूडियो बिका। इसी में उन्होंने मेकअप, कास्टयूम, एडिटिंग, साउंड रेकार्डिंग आदि के अलग-अलग विभाग भी बना रखे थे जिसमें 70 आदमियों का स्टाफ दिन-रात कार्यरत था। ये सब भी खत्म हुआ। फिर जुहू में समन्दर को तकता हुआ पच्चीस कमरे का बंगला हाथ से गया। सोलह शेवरोले और अमीरों की शान  बड़ी इंपाला सहित बीस कारों का फ्लीट भी एक-एक करके बिदा हुआ। इसके साथ ही भगवान दादा जहां से चले थे वहां की वापसी का सफ़र पूरा हुआ। उसी चाल में वापस आ गये जहां से ऊपर की ओर चले थे।

भगवान दादा निराश जरूर हुए मगर टूटे नहीं। गौरवशाली अतीत को भुला कर बोले- यार, जुहू वाले बंगले में नींद नहीं आती थी। अब आराम से अपने लोगों के बीच अपने घर में खूब सोऊंगा। दूसरे दिन से वही पुराना भगवान दिखने लगा, स्टूडियो-स्टूडियो काम की तलाश में चक्कर लगाता हुआ। भाग्य चक्र उल्टा घूम गया। जिन्होंने कभी काम के लिये भगवान दादा के चक्कर लगाये थे, आज भगवान दादा काम के लिये उनके चक्कर काट रहे थे। जो भी रोल मिला लपक लिया। एक शाट वाले रोल के तक के लिये भी राजी हुए। रोज की रोटी का इंतज़ाम जैसे-तैसे होता रहा। इस दौर में सिर्फ व्ही0 शांताराम की ‘झनक
झनक पायल बाजे’ और राजकपूर की ‘चोरी चोरी’ की दमदार भूमिकाएं ही यादगार रही। नाच-गाने वाले दृश्यों में अक्सर उन्हें स्लोमोशन में स्टेप डांस करते हुए ठुमके लगाते देखा जाता था। लोग कहते वो देखो भगवान दादा, अलबेला वाले। कुछ अरसे बाद नई पीढ़ी आ गयी जो भगवान दादा और उनके संघर्ष से परिचित नहीं थी। ऐसे में सिर्फ पुरानी पीढ़ी के लोग ही भगवान दादा को भीड़ में पहचानते। कभी सातवें आसमान पर उड़ने वाला बंदा एक-दो शाट वाले रोल के लिये भी डायरेक्टर को झुक कर दिल से शुक्रिया अदा करता और फिर तपाक से सेल्यूट मारता। आज की रोटी को इंतज़ाम तो हुआ।

उम्र बढ़ रही थी। बुढ़ापे के तमाम रोगों ने आ घेरा। बढ़िया इलाज के लिये जेब में पर्याप्त पैसा नहीं। ऐसे बुरे हालात में उनसे मिलने और मदद करने उनके पुराने साथी कामेडियन ओम प्रकाश, संगीतकार सी0 रामचंद्र और गीतकार-संवाद लेखक राजेंद्र कृष्ण को छोड़ कर कभी कोई नहीं आया। भगवान दादा ने आखिरी सांस अपने एक कमरे के चाल में बड़ी फ़कीरी में ली। 400 फिल्मों में काम कर चुका बंदा तन्हा था, बिलकुल टूटा और हताश। पैरालिसिस ने उन्हें व्हील चेयर तक सीमित कर रखा था। जबकि उनके चार बेटे और तीन बेटियां भी थीं। लेकिन सब उन्हें उनके हाल पर छोड़ चुके थे। उन्हें जबरदस्त हार्ट अटैक आया। कोई अस्पताल भी नहीं ले गया। उस वक़्त वो 89 साल के थे। उनकी अंतिम यात्रा में चाल के कुछ लोग थे। सिनेमा की कोई नामी हस्ती नहीं थी। उनके हमदर्द तो उनसे पहले ही जिंदगी का सफ़र पूरा कर चुके थे। और अब भगवान दादा का भी शिखर से सिफ़र तक का सफ़र खत्म हुआ।

भगवान दादा की ज़िंदगी के सफे़ इतने दिलचस्प उठा-पटक और वाक्यात से भरे हैं कि मधुर भंडारकर के साथ फैशन, टैªफिक सिग्नल आदि कई फिल्मों में काम कर चुके निरंजन पटवर्धन ने पिछले साल ‘एक था अलबेला’ फिल्म लांच की,  जिसमें भगवान दादा की भूमिका एक मराठी एक्टर अदा कर रहा है। मालूम नहीं ये कब रिलीज़ होगी। यह भी नही मालूम कि लांच से आगे बढ़ी भी है कि नहीं। सुना है प्रसिद्ध फिल्म लेखक इसाक मुसाविर ने भगवान दादा की बायोग्राफी भी लिखी है। लेकिन मार्किट में कभी दिखी नही। अब तो भगवान दादा को पहचानने वाली पीढ़ी भी लगभग विदाई की कगार पर है।
यह लेख इसीलिये लिखा है ताकि आने वाली पीढ़ी को सनद रहे कि इतिहास में एक अलबेला भगवान होता था, भगवान दादा। उन जैसा दूजा पैदा नहीं हुआ।

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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ - 226016
मोबाईल 7505663626

दिनांक 09.08.2014

1 comment:

  1. अमिताभ बच्चन के डांस में अधिकांश स्टेप भगवान दादा जी के ही होते थे। महान कलाकार को सलाम ,श्रद्धांजलि।

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