Thursday, September 11, 2014

छेती छेती चन्ना ले के आजा बारात!

-वीर विनोद छाबड़ा

कल ११ सितम्बर था। जबसे अमरीका के वर्ल्ड  ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हुआ है, ये तारीख इसी याद के लिए जानी जाती है।

वरना इससे पहले इस तारीख को बंदे की शहादत के तौर पर याद रखा जाता था। उस पर श्रद्धा सुमन चढाने वालों का अल सुबह से देर रात तक तांता बंधा रहता था। तेरह साल हो गए। कोई याद दिलाने नहीं आया। चलो अच्छा हुआ। फुरसत मिली याद दिलाने वालों से। मुफ़्तखोरों पर होने वाला खर्चा पानी बचा।
 

लेकिन जाने क्यों बंदा आज खुद को बहुत तन्हा महसूस कर रहा है। दोस्तों रिश्तेदारों को तो अपनी ही मुसीबतों से फुरसत नहीं। उन्हें क्या याद होगा ये दिन? कुछ तो ऊपर ही चले गए हैं। वहां से भी अफ़सोस का पैगाम नहीं आता।

सबसे बड़ा अफ़सोस तो ये है कि पत्नी को भी वो दिन याद नहीं आता। हर साल बंदा ही याद कराता है। बदले में वो मुंह बिचका लेती है। हिकारत से देखती है। शायद अफ़सोस करती रही होगी कि काश इस नाशुक्रे बंदे के बदले उस दिन कोई राजकुमार सेहरा सजा के आया होता तो वो रानी होती आज किसी स्टेट की। बंदे पर नास्टैल्जिया हावी होने लगता है। दिमाग के पर्दे पर फ्लैशबैक चालू हो गया है। 

बंदे को वो नज़ारा, वो 'मुबारक' घड़ी याद आती है। वो सज-धज के पिताजी के दोस्त कुलदीप सिंह जी की कार में बैठ कर अपनी 'बैटर-हाफ' लेने के लिए रवाना होता है। दिन भर खूब बारिश हुई है। बंदे को फ़िक्र लगी हुई है बारात कैसे जाएगी?

लेकिन बाकी सब बेफिक्र हैं। जैसे सब जानते हैं कि शाम होते-होते आसमान साफ़ हो जायेगा। और वाकई सब अंतरयामी निकले। लेकिन सड़क पर बेतरह कीचड है। और उमस ज़बरदस्त। सर पर साढ़े सात किलो का भारी भरकम चांदी का मुकुट है। इसे उसकी मां चौक वाले किसी पुजारिन से मांग कर लायी है।  और अपने कद के बराबर की तलवार भी है। ये पड़ोस के करतार सिंह जी के घर से आई है। 

मगर बंदे को ये सब कतई अखर नहीं रहा है। उसे तो दुनिया की सबसे बड़ी नियामत जो हासिल होने जा रही है। अब ये बात अलबत्ता दूसरी है कि कुछ ही दिनों में रियालाइज़ हो गया कि बैठे-बिठाये एक इन्क्वायरी कमेटी सर पे बैठा ली, उम्र भर के लिए।

बहरहाल ठीक सात बजे तक़रीबन ३०० मित्रो-रिश्तेदारों का जुलूस बैंड -बाजे और पंजाबी ढोल की बेसुरी धुनों पर नाचते-गाते और झूमते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ता है।

आज सभी नशे में हैं। सबके नशे अलग-अलग हैं। कोई शुभ अवसर के नशे में चूर है तो कोई बोतल के। और किसी किसी को नाचने का नशा है। कोई कोई तो इन सबको देख कर मस्त है।


बारात अत्यंत मंथर गति से चल रही है। बंदे को ये गति अच्छी नहीं लगती। वो बस जल्दी से जल्दी मंडप में जाकर बैठना चाहता है। तभी उसे महसूस होता है कि बारात की गति पर लंबा ब्रेक लग गया है। शायद ट्रैफिक जाम होगा। नहीं ये जाम नहीं है। पता चला कि बारात की तस्वीरें ले रहे अरोड़ा साहब गायब है। वो बंदे के पिताजी के मित्र हैं। सुबह से तो वो यहीं हैं। न जाने कितने फ़्लैश मारे हैं उन्होंने। जब बंदा कार में बैठ रहा था तो तब तक उनका कमरा फ़्लैश मार रहा था। ये अचानक कहां गए? पंजाबियों की बारात दारू, ढोल और फोटोग्राफर के बिना तो एक इंच भी आगे चल नहीं सकती। ये पहचान भी है उनकी। फिर शादी होने का ये सबूत भी है और आने वाली पीढ़ियों के लिए हंसने का एक मुद्दा भी।

आगे पता चला कि एक रिश्तेदार प्रेम प्रकाश मलिक अपने जान-पहचान के फोटोग्राफर को लेने गए हैं। इसलिए बारात डेड स्लो चल रही है। बंदा परेशान हो गया अगर फोटोग्राफर नहीं आया तो क्या बारात आगे नहीं बढ़ेगी? दुल्हन के घर में कितनी फ़िक्र होगी? कहां मर गए ये बाराती? पल पल भारी लग रहा है। ऐसी दुर्घटनाओं की कल्पना तो सिर्फ फ़िल्मी लेखक ही करता है।


खैर, कोई घंटे भर के विश्राम के बाद फोटोग्राफर आ गया। बारातियों में फिर से फिर से जोश भर गया। बारात को उड़ने वाले कदम मिल गए हों मानों।

कुछ देर बाद बंदे ने महसूस किया कि बारात काफ़ी आगे निकल चुकी है। वो काफी पीछे छूट गया है। बिलकुल तनहा है। कार वाले कुलदीप चाचाजी थोड़े थोड़े अंतराल पर नाचने-कूदने और एक-आध घूंट मारने निकल जाते हैं। पांच-दस मिनट में वापस आ जाते हैं। लेकिन इधर तो काफी देर से नहीं लौटे हैं ।
बंदे के साथ कार में बैठे उसके जीजा जी भी नाच-गाने का लुत्फ़ उठाने चले गए है। उनके तो लौटने का सवाल ही नहीं है। साले की शादी में जीजा न नाचे? ये तो नामुमकिन है।

कार लोकमानगंज इलाके की सब्ज़ी मंडी में एक किनारे खड़ी है। हर आता-जाता घूर रहा है। कोई कोई तो गंदे गंदे फिकरे भी कस रहा है। अबे देख, कैसा बंदर  लग रहा है। दूसरा बोला - नहीं जोकर। तीसरे ने कस कर छींटा मारा - पक्का चूतिया दिख रहा है। अब कोई आदमीं मुकुट पहने और उस पर फूलों का सेहरा लटकाये तलवार बगल में दाब कर बैठा हो तो वही तो लगेगा जो वे कह रहे हैं। 

तभी एक मनचले ने बंदे के गले में पड़ी नोटों की माला में से एक नोट नोच लिया। देखा-देखी कई हाथ नोचने खातिर आगे बढ़े। बंदे ने सहम कर कार के शीशे चढ़ा लिए। उन दिनों कार में 'ऐसी' नहीं होते थे। बंद कार होने के कारण भयंकर उमस हो गयी। बंदा परेशान हो गया। सांस लेने तक में दिक्कत होने लगी। इधर कार को चारों ओर से अजीबो गरीब तमाशबीनों ने घेरा हुआ है। बंदे की इच्छा हुई कि जोर जोर से चीखे- ये कैसी शादी है? दूल्हा परेशान है और बाराती सब मौज मस्ती कर रहे हैं। उसकी किसी को फ़िक्र ही नहीं।  नहीं करनी उसे ऐसी शादी। वापस घर जा रहा हूं।  

तभी कार वाले चाचाजी आ गए। बंदे की जान में जान आई। वो लगभग रुआंसा हो गया- चाचाजी तुस्सी कित्थे चले गए सी?

कार वाले टुन्न चाचा जी बोले - ओ पुत्तर, मैं तां भुल्ल ही गिया सी।

खैर, खरामा खरामा बारात पानदरीबे में दुल्हन के द्वारे लगी। रात ग्यारह बजे हैं। काफी देर हो चुकी है। सभी नाच-नाच कर काफी थके हुए हैं। और भूखे भी। जै माल होते ही सब खाने पर टूट पड़े। तय संख्या से ज्यादा हैं बाराती। जैसे-तैसे निपट गए। लेकिन जब बंदे का नंबर आया तो कुछ भी नहीं बचा। एक अदद आइस क्रीम तक नहीं बची।

दुल्हन पक्ष की एक बच्ची बंदे की कमर में बंधी तलवार देख ज़ार ज़ार रो रही है। उसे लगता है डाकू आ गए हैं बुआ को लेने। उसे बंदे पास लाया गया। समझाया जाता है कि ये बंदा 'बंदा' ही है। बिलकुल अहिंसक। वो बंदे को छूती है। बंदा उसके सर पर हाथ रख कर प्यार करता है। बच्ची चुप हो जाती है।
 

उमस से बदन चिपचिपा हुआ जा रहा है। सर पर साढ़े सात किलो चांदी का मुकुट। ऊपर से सरदर्द भयंकर। किसी ने एक सेरिडॉन अरैंज की। दुल्हन की एक पड़ोसन चाय बना लायी। तब कुछ जान लौटी। बस तबियत यही थी कि जल्दी से फेरे हों और घर भागूं। कमरे की सारी खिड़कियां दरवाज़े खोल कर पंखे के नीचे लेट जाऊं। लेकिन इसके लिए अभी बंदे को तकरीबन पांच घंटे का इंतज़ार करना होगा।

ये पांच घंटे किस नरक से गुज़र कर बिताये। इसका बयां अगर लिखित में किया जाए तो एक पुराण तैयार हो जायेगा।

आज बंदा कई साल बाद उस घटना को याद करता है तो यही कहता है - हमने सुना था मुसीबत बिन बुलाये आती है। लेकिन हम तो बाकायदा बारात लेकर गए। कैसी कैसी यातनाएं सहन की। वो मुसीबत आज भी गले पड़ी है। कभी हंस कर तो कभी रो कर निभाए जा रहा हूं।

पत्नी से पूछो तो वो कहती है - कुछ आता है इनको? कैसे निभा रही हूं? मैं ही जानती हूं। कोई और होती तो कबकी निकल गयी होती।

खैर ये तो चलता ही रहता है। घर-घर की कहानी है।
-----

-वीर विनोद छाबड़ा  12 09 2014 mob 7505663626

1 comment: