Friday, August 11, 2017

दो बीघा ज़मीन।

-वीर विनोद छाबड़ा
बिमल रॉय 'दो बीघा ज़मीन' (१९५३) बनाने की योजना बना रहे थे।
कहानी कुछ यों थी। लगातार दो साल सूखा पड़ा। एक किसान शंभू महतो को दो बीघे का खेत ज़मीदार के पास गिरवी रखने को मजबूर होना पड़ा।
शंभू पर ज़मींदार दबाव बनाता है कि या तो खेत बेच दे या फिर क़र्ज़ चुकाओ। पुरखों की ज़मीन है। शंभू किसी भी कीमत पर बेचने को तैयार नहीं। वो क़र्ज़ के ६५ रुपये का चुकाने के लिए अपना सब कुछ बेच देता है। पत्नी के गहने भी। लेकिन ज़मींदार ने धोखाधड़ी करके २३५ रुपये का क़र्ज़ निकाल दिया। कोर्ट में भी  शंभू को न्याय नहीं मिला।
मगर शंभू हताश नहीं होता। वो तय करता है कि शहर जाऊंगा, खूब मेहनत-मज़दूरी करेगा। खूब पैसा कमायेगा। और ज़मींदार का क़र्ज़ अदा करके पुरखों की दो बीघा ज़मीन छुड़वायेगा।
शंभू कलकत्ता आता है। वहां वो हाथे ताने रिक्शा चलाता है। मगर शहर में ज़िंदगी इतनी आसान नहीं है। हालात इतने विषम हो जाते हैं कि शंभू शहर से कुछ हासिल होने की बजाये अपना सब कुछ गंवाना पड़ता है। थक-हार कर वो गांव लौटता हैं तो देखता है कि उसकी दो बीघा ज़मीन नीलाम हो चुकी है। और ज़मींदार उस पर फैक्टरी बनवा रहा है। शंभू निशानी के तौर मुट्ठी भर मिट्टी बटोरता है। लेकिन सुरक्षा कर्मी उसे ऐसा करने से भी मना कर देता है। निराश शंभू वहां से चल देता है।
शंभू के इस किरदार के लिए बिमल रॉय को किसी दुबले-पतले मेहनतकश चेहरे की ज़रूरत थी। एक दिन किसी ने उनके सामने बलराज साहनी को खड़ा कर दिया। सूट-बूट के साथ टाई और फिर ऊपर से अंग्रेज़ों को भी मात करने वाली नफ़ीस अंग्रेज़ी। बिमल रॉय को जैसे गुस्से का दौरा पड़ा। एकदम से नकार दिया। बाद में बड़ी मुश्किल से माने।
कामयाबी की इस बामुश्किल सीढ़ी को बलराज पार गए। लेकिन अभी इससे भी कठिन मुश्किलों का दौर बाकी था। सिर्फ वेश-भूषा किसान की धारण करने से कोई मेहनतकश नहीं बन जाता। मेहनतकश की यंत्रणा से गुज़रना भी होता है।
झुलसाने वाली गर्मी, तपती सड़क और नंगे पांव बलराज 'हाथे ताने रिक्शा' खींचने के लिए तैयार खड़े हैं।
बेतरह भागदौड़ वाला शहर कलकत्ता। अगर पता चले कि शूट चल रही है तो ट्रैफिक रुक जाये। जाम लग जाये। शहर की ज़िंदगी थम जाये।
बिमल रॉय ने कैमरा कार में कुछ इस अंदाज़ में छुपाया कि किसी को नज़र न आये। शहर की ज़िंदगी चलती रहे।
तपती सड़क, नंगे पांव। 'एक्शन' सुनते ही बलराज भागने को मजबूर।
एक भारी-भरकम आदमी उन्हें रोकता है। पूरे अधिकार से रिक्शे पर बैठता है और बोलता है, फलां जगह चलो। लेकिन यह तो स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं। मगर बिमल रॉय कट नहीं बोलते हैं।
इधर बलराज ने इससे पहले कभी रिक्शा नहीं चलाई थी और न कभी इंसान को खींचा था। फिर भी वो उफ़्फ़ तक नहीं करते। वो रिक्शेवाले की खाल में घुस कर रिक्शेवाले को मात देने पर उतारू हैं। माथे,चेहरे और शरीर के हर हिस्से से चूता बेहिसाब पसीना। सांस फूल रही है। बुरी तरह हांफ रहे हैं। थकान से कांपती टांगे। बलराज रुकते नहीं हैं। अदाकार पर किरदार हावी। गंतव्य पर पहुंच कर मोटा सेठ बलराज के हाथ चंद सिक्के रखता है। बलराज उस रकम को देखते हैं। उनकी आंखों में चमक है। ज़िंदगी में पहली मरतबे पसीना बहा कर कमाने का  मतलब समझ में आया। फख्र होता है।

इधर कार में बैठे बिमल रॉय बोलते हैं -कट। कैमरा शूट बंद करता है। बिमल रॉय बेहद खुश हैं। क्या क्लासिक सीन शूट किया है। 
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12 Aug 2017
posted in 2290dee.blogspost.in 

2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 14 अगस्त 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"

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  2. अति सुन्दर प्रस्तुति

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