Tuesday, January 19, 2016

मूषक जी से है रिश्ता पुराना कोई!

-वीर विनोद छाबड़ा
सुबह मुंह-अंधेरे उठ कर सबसे पहला काम होता है, चूहेदानी में फंसे मूषक जी महाराज की विदाई।
मूषक और जी! अरे भाई गणेश जी की सवारी है। इज़्ज़त तो देनी है। और फिर गणेश जी को नाराज़ भी नहीं करना है। वही तो सद्बुद्धि देते हैं।

विदाई से पहले मूषक जी से चंद बातें भी करनी ज़रूरी हैं। प्रोटोकॉल भी आख़िर कोई चीज़ है। घर आये मेहमान को बिना स्वागत-सत्कार किये बाहर कर देना, गंगा-जमुनी तहज़ीब की बेइज़्ज़ती है। भारतीय संस्कृति के भी विरुद्ध है।
कब आये? अंदर रखी रोटी का टुकड़ा कतर लिया? लीजिये, एक ब्रेड पीस का मुलायम टुकड़ा कतरिये। तब तक जूता पहन लूं।
फिर हम चूहेदानी उठाते हैं। झूले की तरह झुलाते हैं। मूषक भाई की सवारी चली पम पम पम.
ध्यान रखते हैं कोई मिल न जाये। वरना कमेंट सुनने पड़ते हैं.बड़ा दुबला है.घर में खाने पीने को कुछ है नहीं क्या?...इतनी भी महंगाई नहीं है यार.खुद भी खाओ और गणेश जी की सवारी को भी.… 
हम घर के सामने से गुज़र रही चार लेन वाली सीतापुर रोड पार करते हैं। वहां एक नाला है। हरदम कूड़े से भरा रहता है। वहीं हम मूषक जी को विदा करते हैं।
विदा करने से पूर्व अच्छी तरह जांच लेते हैं। कोई बिल्ली मौसी घात लगा कर न बैठी हो। इत्मीनान करने के बाद ही चूहेदानी का पट खोलते हैं।
पट खुलते ही मूषक जी लंबी छलांग लगाते हैं। और फिर पलट कर हमें कुछ क्षण तक घूरते हैं। मानो चिढ़ा रहे होते हैं  - बहुत खुश होने की ज़रूरत नहीं
बच्चू। तैयार रहना लौट कर आ रहा हूं।
हमें अहंकार होता है। हम हंसते हैं। यह मुंह और मसूर की दाल। मियां, घर से पांच सौ मीटर दूर हैं आप। और बीच में भारी वाहनों का लगातार आवागमन। सावधानी हटी नहीं कि दुर्घटना हुई।
यों मूषक जी के संदर्भ हम अपना अब तक इतिहास जब भी खंगालते हैं तो पाते हैं मूषक जी से हमारा पैदाइशी रिश्ता है। खुन्नस से भरपूर। कभी हम आगे तो कभी मूषक जी। और पीछे-पीछे चूहेदानी लेकर हम। बचपन से जवानी तक रेलवे स्टेशन के सामने रहे। पार्सल ऑफिस से चहल-कदमी करते हुए पांच-पांच किलो के भारी-भरकम खलिहानी मूषक महाराज आते थे। बड़ी-बड़ी बिल्लियां भी डर कर निकल भागीं। बत्ती विभाग में नौकरी मिली। वहां भी ऐसे ही मजबूत किस्म के मूषक। फाईलों की स्पाईन पर लगी लेई के बहाने फाईलें चट कर जाते। दराजों में रखा खाने का कोई भी सामान कभी भी महफूज़ नहीं रहा। इंदिरा नगर आये। खेतों और फलों के बगीचों को उजाड़ कर बने मकान। किसान मुआवज़ा लेकर चले गए। मगर मूषकगण और वानर वहीं रह गए।

Monday, January 18, 2016

चरण छुआई, सब उल्टा-पुलटा।

-वीर विनोद छाबड़ा
बंदे ने जब होश संभाला था तो उसने अपने माता-पिता को उनके माता-पिता के चरण-स्पर्श करते देखा। देखा-देखी बंदा भी वैसा ही करने लगा। 
बंदा न हिंदू जाने और मुस्लिम- किरिस्तान। बड़े हैं तो उनके भी पैर छूने हैं। माता-पिता ने तो बस इतना ही कहा, अच्छा बच्चा बन कर दिखाओ। चिट्ठीपत्री लिखनी सीखी तो सर्वप्रथम चरण-स्पर्श लिखा।   
जब घर से बाहर दुनिया में कदम रखा तो पता चला कि कौन हिन्दू, कौन मुसलमान। हाथ यंत्रवत पांव छूने को बेताब। ये जज़्बा आज भी कायम है।
नई पीढ़ी आ गयी है। अब दंडवत होकर चरण स्पर्श की प्रथा पुरानी पड़ चुकी है। तनिक दायां कंधा झुकाया। बस, हो गया प्रणाम। इधर मोगैंबो भी खुश हो गया।  
लेकिन इकीसवीं सदी के युग में दकियानूस अभी बहुत हैं। बंदा अपने मित्र के घर गया। बहु ने पैर छुए। सास-ससुर ने भी पैर आगे बढ़ा दिए। बेचारी सुबह से दसवीं बार यह कवायद कर चुकी है। कोख़ में बच्चा भी है। न-नुकुर करती है। सास आंखें तरेरती हुई लथाड़ती है। बहु हो बहु की तरह रहो।
बंदे के एक और दकियानूसी मित्र हैं। उनकी बहु के पिता का स्वर्गवास हुआ। बंदा भी अफ़सोस करने उनके साथ बहु के मायके चला गया। कुछ देर बाद चलना हुआ। लेकिन मित्र हिला नहीं। उल्टा बंदे का हाथ पकड़ कर बैठा लिया। और वो तब हिला जब दुपट्टे से आंसू पोंछती बहु महिला कक्ष से बाहर आई और दंडवत हो कर विधिवत वंदना की। मित्र उठे। बहु की ओर देखा तक नहीं। आशीर्वाद भी नहीं दिया। और चल दिए।
बंदे ने मित्र को हज़ार गालियां सुनायीं। कम से कम यह तो देखा लिया होता कि बहु के पिता का स्वर्गवास हुआ है। बेचारी शोक में है। मगर मित्र हंसते रहे। तुम ज्यादा पढ़े-लिखे लोग संस्कार नहीं समझोगे। ये हमारे समाज की संस्कृति है, रिवाज़ है। चाहे दुःख हो या सुख इन्हें निभाना तो पड़ेगा।
ये चरण-छुआई की रस्म दफ्तरों में भी भरपूर पाई जाती है। प्रशासनिक सीट पर तैनात बंदे का अधिकारी मित्र तो बाकायदा जूते-मोज़े उतार इस अंदाज़ में बैठता है कि चारण भक्तों को तकलीफ न हो और वो भी बद्दस्तूर अपना काम करता रहे। 

Sunday, January 17, 2016

घर की मुर्गी दाल बराबर।

- वीर विनोद छाबड़ा
उस ज़माने में दामाद किसी एक घर का नहीं, पूरे मोहल्ले का होता था। लाख दुश्मनी सही, लेकिन तेरा दामाद, मेरा दामाद की भावना सर्वोपरि थी।
स्टेशन पर अगुवानी के लिए डेलीगेशन में दो-चार अड़ोसी-पड़ोसी ज़रूर सम्मिलित किये जाते। दामाद जी और उनके घरवालों के सामने मूंछ ऊंची होती थी। कोई ऐरे-गैरे का दामाद नहीं तू।

दामाद को भी लगता था कि सही दुकान सेलेक्ट की है।
पत्नी भी पूरी ठसक के साथ कहती थी - देखा, कितनी एका है हमारे मोहल्ले में।
सुबह का नाश्ता शर्मा जी के घर तो लंच भाटिया साहब की बैठक में। शाम की चाय पर श्रीवास्तव की बुकिंग है।
डिनर पर त्रिवेदी जी ने मट्टन-चिकन अपने हाथ से बनाया है। पूछ गए थे कि बोतल का शौक है कि नहीं। लेकिन त्रिवेदी जी डांट खा गए - ख़बरदार जो गंदी चीज़ का नाम लिया तो। हमारा जवाई कोई शराबी थोड़े है। और हां सिगरेट के धुएं से भी एलर्जी है उसे। ज़िक्र करने से भी खांसी शुरू हो जाती है।
इसी तरह हफ़्ता गुज़र जाता था। कभी इस घर तो कभी उस घर।
वो बात दूसरी थी कि बेचारे दामाद लोग सुलभ-शौचालय के पीछे वाली गली में छुप-छुप कर सिगरेट पीते रहे। एक दिन एक दामाद जी को साले साहब मिल गए। वो भी धुआं उड़ा रहे थे।
हमें याद है एक दामाद जी चोरी-चुपके बार में घुस गए। वहां उसकी मुलाक़ात ससुर जी हो गयी। दोंनो एक-दूसरे को देख सकपका गए। समझौता हुआ कि मुंह बंद रखना है।   
अब तो सब खुले आम है। दामाद जी आये हैं तो बोतल पार्टी तो बनती ही है। और मुर्गे-शुर्गे के बिना तो बोतल का क्या मज़ा।

Saturday, January 16, 2016

बिदाई एक फूहड़ शो की!

बिदाई एक फूहड़ शो की!
- वीर विनोद छाबड़ा
ख़बर है कि २४ जनवरी को कॉमेडी नाईट विद कपिल का आखिरी शो होगा। करोड़ों लोग दुखी हुए हैं इस ख़बर से। लेकिन हमें यकीन है कि इतने ही खुश भी हुए होंगे।  दुखी होने के और खुश होने के अपने अपने कारण हैं। 

बहरहाल, हमें बहुत ख़ुशी हो रही है।
इन्होंने अपनी स्क्रिप्ट में पत्नी को हमेशा पैर की जूती समझा। पत्नी के होंटों की तुलना मेंढक से करना कोई कॉमेडी है क्या? बुआ की शादी की उम्र निकल गयी तो उसे किसी काबिल नहीं समझा। मोहल्ले के लौंडों से ताश-पत्ती खेलने वाली बना डाला। यह कैसा सौंदर्यबोध है भाई?
पुरुष कलाकारों को महिलाओं के वस्त्र पहना कर खुसरों जैसा अभिनय कराना, कोई कॉमेडी है क्या? अली असगर, सुनील ग्रोवर और किकू शारदा का असली चेहरा देखे तो मुद्दत हो गयी। इनसे कोई पूछे भला, जब बिना मेकअप किये आईने का सामना करते होगे तो खुद से ज़रूर पूछते होगे - तू कौन है, भाई?
अवार्ड फंक्शन्स में भी इन्हें इन्हीं खुसरे गेटअप में देखा गया। यकीनन ये सब फ्री में नहीं होता होगा। आदमी पैसे के लिए कितना नीचे तक गिर सकता है? और हमारा हास्य बोध भी तो देखिये कि हम आदमी को औरतों के कपड़े धारण किये देखते हैं तो हंसते हैं। बाबा से शायद प्रेरणा ली है। इससे लाख दर्जे बेहतर है 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा'
ऑडियंस का भी जम कर मज़ाक उड़ाया गया। दुबले आदमी की खिल्ली उड़ाना कि कुछ खाया करो भाई और मोटे से पूछ लिया कि किस चक्की का खाते हो? लंबे की भी ऐसी तैसी की और छोटे की भी। काले को भी कहीं का न रखा। ग़रीबी को भी न छोड़ा इन नाशुक्रों ने।
कुदरत ने सबको एक जैसा तो बनाया नहीं। लेकिन ऊंचे सपने देखने और आसमान छूने की चाहत तो सबको दी है। अगर कोई दीपिका या प्रियंका से शादी करने के सपने देखता है तो किसी को ऐतराज़ नहीं होना चाहिए। एक दुबले-पतले को अनिल कपूर के सामने खड़ा कर दिया कि मांग ले सोनम कपूर का हाथ। बदले में वो बुरी तरह डांट दिया गया। क्या ज़रूरत थी ग़रीबी का मज़ाक उड़ाने की। एक ताजमहल क्या कम है। याद है न बकौल साहिर - इक शहंशा ने बनवा के हंसी ताजमहल, हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक।
कपिल शर्मा जी, किसी के शरीर में मांस कम है या ज्यादा, कोई गोरा है या काला, इसका मज़ाक उड़ाना उसकी इंसल्ट है, कॉमेडी नहीं।
कपिल जी, कभी लिटरेरी लोगों की संगत में बैठिये, आपका सेंस ऑफ़ ह्यूमर दुरुस्त हो जायेगा।
गुडबाय कपिलजी।
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Friday, January 15, 2016

और न जाने क्या क्या खुलासे हो जायें!

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक सहकर्मी होते थे पवन जी। बहुत अच्छे और निश्छल स्वभाव के। उनका चेहरा इंतना हंसमुख था कि वो उदास भी होते थे तो पता नहीं चलता था।
एक दिन हमें उनकी मुस्कराहट में मछली की गंध महसूस हुई। क्या ग़म है, जो तुम मुस्कुरा रहे हो?

पवन जी एक कोने में ले गए- क्या बताऊं दोस्त कल एक भूल कर बैठा। वो श्रीमतीहैं न।
हम डर गए - हां, हां। क्या हुआ उन्हें?
पवन जी झल्ला गए - यार, पूरी बात सुन लिया करो। उसे कुछ नहीं हुआ। चंगी भली है, मस्त। उसकी वज़ह से शामत आई हुई है मेरी।
अब हमें पवन जी के चेहरे पर हवाईयां साफ़-साफ़ उड़ती दिखने लगीं  - वो कैसे?
पवन जी ने याद दिलाया - वो हफ्ता भर पहले चोपड़ा की पार्टी में तुमने तो देखा था कि श्रीमतीबहुत सज-धज कर आई हुई थीं। इधर से उधर उड़ती-डोलती फिर रहीं थीं, अपनी सहेलियों के संग। बाई-गॉड छत्तीस की होने के बावज़ूद स्वीट सिक्सटीन दिख रही थी। हसबैंड बेचारा एक कोने में बैठा बच्चों को आइसक्रीम खिला रहा था।
हम हैरान हुए - यार इसमें कौन बड़ी बात थी? ऐसा तो हमेशा होता है। पार्टियों में होता है, सब खूब लाली-लिपिस्टक और पॉवडर पोत कर आती हैं। अबे तेरी मेमसाब भी तो हूर बनी हुई थी और तू बच्चे को टहला रहा था। और हमारी वाली भी.… 
पवन फिर झल्लाया - यार यही ख़राब आदत है तुम्हारी। बात पूरी नहीं होने देता।
हमने कहा - ठीक, ठीक है। अब नहीं बोलूंगा। इधर उधर टहलाओ नहीं। पॉइंट पर आओ।
पवन जी ने बात आगे बढ़ाई - हां, तो मैं कह रहा था कि श्रीमतीइतनी अच्छी लग रहीं थीं कि मेरे मुंह से निकल गया कि बिलकुल पद्मिनी कोल्हापुरे लग रही है।
हमने कहा - अमां ठीक ही तो कहा। चेहरा-मोहरा भी मिलता-जुलता भी है।
पवन जी ने मेरा कंधा जोर से पकड़ लिया - मेरे दोस्त, यही तो ग़लती हो गयी। मेमसाब ने मुंह बिचका लिया।

Thursday, January 14, 2016

हम नहीं सुधरेंगे।

- वीर विनोद छाबड़ा
कुछ लोग अजीब होते हैं, जितना समझाओ या गरियाओ। वैसे के वैसे ही रहेंगे।
बरसों पहले की बात है। हमारे एक मित्र होते थे। यों वो अभी भी हैं, बाक़ायदा सलामत।

हमसे मिलने अक्सर आते थे। दस-पंद्रह मिनट बैठे, अख़बार के पन्ने पलटे। बड़बड़ाये, डीए की आज भी कोई ख़बर नहीं। महंगाई और पॉलिटिक्स पर छोटा सा लेक्चर झाड़ा और चले गए।
यों तो हमें कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन एक आदत बड़ी ख़राब थी उनकी। बात हमसे करते होते थे और कनखियों से देखते हमारी पत्नी की ओर। उस वक़्त उनके चेहरे पर गर्वीली सी मुस्कान भी तैरा करती थी, जैसे क्या कद्दू में तीर मारा है। असल में उनका आशय यह होता था कि उनके कमेंट्स पर हमारी पत्नी का क्या रिएक्शन होता है।
यद्यपि उस समय हमारी पत्नी हम लोगों की बातचीत से बाख़बर निर्विकार भाव से दाल या चावल बीनती होती थी। छोटा सा दो कमरे का घर था, एक कमरा स्टोर-कम-बैडरूम और दूसरा ड्रॉइंगरूम-कम डाईनिंग रूम। बेचारी जाए तो जाए कहां? और फिर हमें तो अपनी पत्नी पर पूर्ण विश्वास था।
मित्र की कनखियों से गोली मारने की इस आदत से दूसरे मित्र भी परेशान रहते थे। सब झेला करते थे उन्हें।
एक दिन हमें गुस्सा आ गया। मित्र की आदत सुधारनी ही पड़ेगी।
हमने उन्हें कहा - यार, या तो तू हमसे  बात कर ले या हमारी पत्नी की ओर मुख़ातिब हो जा।
हमारी टिप्पणी पर वो खिसिया गए। लेकिन पत्नी पता नहीं किस दुनिया में खोई आलू छीलने में व्यस्त रही।

Wednesday, January 13, 2016

आंखें ही आंखें!

-वीर विनोद छाबड़ा
एक भक्त की अथक प्रार्थना से ब्रह्मांड में उथल पुथल हुई। देव मंत्रीमंडल में हाहाकार मच गया। इंद्र से गुहार लगाई गई - यह व्यक्ति निकृष्ट है। इसे कोई वरदान मिला तो अनर्थ हो जाएगा। इसे किसी तरह टालिए।

इंद्र बोले - घबराने की ज़रूरत नहीं। मैंने भविष्य देख लिया है। कुछ नहीं होगा।
प्रभु प्रगट हुए और उस भक्त को तीन नारियल दिए - तुम्हारी मुंहमांगी तीन इच्छाएं पूर्ण होंगी। जो भी मांगना हो पहले एक नारियल नीचे गिराना और फिर वर मांगना। और ध्यान रहे कि सोच-समझ कर मांगना। दोबारा मैं प्रगट नहीं होऊंगा। चाहे तू कितनी ही भक्ति क्यों न कर ले। यह कह कर प्रभु अंतर्ध्यान हो गए।
भक्त ख़ुशी से पागल हो गया। उछलता-कूदता घर पहुंचा।
घर में प्रवेश करते ही बेटे से टक्कर हो गई। एक नारीयल नीचे गिर गया। भक्त गुस्से से चिल्लाया - अबे, आंखें नहीं हैं क्या।
भक्त के इतना कहते ही बेटे की आंखें गायब हो गयीं।
भक्त तो मानो आसमान से गिरा और ख़ुजूर में अटका। उसकी स्त्री ने रोना-कलपना शुरू कर दिया। एक ही एक तो बेटा है।
भक्त को ध्यान आया कि अभी दो शेष हैं। उसने तुरंत दूसरा नारियल नीचे गिराया और कहा - मेरे बेटे के चेहरे पर आंखें लग जाएं।
अगले ही पल भक्त के बेटे के चेहरे जगह-जगह कई जोड़ी आंखें लग गयी।
उसका चेहरा बड़ा वीभत्स दिखने लगा। यह देखकर उसकी स्त्री का रोना-धोना और भी तेज हो गया। भक्त को तो बेहद दुःख हुआ। अपने वाणी पर संयम न रख कर क्या मांग लिया।