-वीर विनोद छाबड़ा
हिंदी सिनेमा का इतिहास जब भी खंगाला जायेगा तो एक बात निश्चित है कि खूबसूरत व दिलकश चेहरे और भली सीरत वाली हीराइनों की फेहरिस्त में अव्वल नाम मधुबाला का होगा। और बात जब ट्रेजडी क्वीनों की उठेगी तो भी मधुबाला पहले से दसवें नंबर तक मिलेगी। कितनी बड़ी ट्रेजडी है यह कि पिछली सदी के चौथे व पांचवें दशक में लाखों सिनेमा प्रमियों के दिलों में राज करने वाली इस बलां की खूबसूरत बाला की ज़िंदगी की शुरूआत ट्रेजडी से शुरू हुई और अंत भी ट्रेजडी पर हुआ। उसने तो लाखों के दिलों पर हुकूमत की परंतु उसके दिल पर हुकूमत करने वाला राजकुमार उसके करीब आकर भी उसे नहीं मिल पाया। यह राजकुमार उस दौर के परदे की दुनिया का टेªजडी किंग दिलीप कुमार था। दोनों एक-दूसरे से बेसाख्ता मोहब्बत करते थे। मगर एक ज़िद्द ने इनकी मोहब्बत का बेड़ा ग़र्क़ कर दिया। नदी के दो किनारे बना दिये। जब भी सिनेमा की दुनिया की नाकाम मोहब्बतों के सच्चे अफ़सानों की दास्तान लिखी जायेगी तो उसमें मधुबाला-दिलीप कुमार का अफ़साना जरूर बयां होगा।

हुआ यों था कि प्रोडयूसर-डायरेक्टर बी.आर.चोपड़ा ने ड्रीम प्रोजेक्ट ‘नया दौर’ के लिये नायक दिलीप कुमार के कहने पर मधुबाला को साईन किया। तब तक मधुबाला से दिलीप की सगाई भी हो चुकी थी। दोनों के दरम्यां इक दूजे के लिये ज़बरदस्त पैशन था। सब ठीक चल रहा था। शादी भी करना चाहते थे। मगर मधुबाला के पिता अताउल्लाह खान इसकी इज़ाज़त नहीं दे रहे थे। परिवार के प्रति पूर्णतया समर्पित मधुबाला की तरबीयत कुछ इस किस्म से हुई थी कि उसमें अपने पिता की सलाहियत की मुख़ालफ़त करने की हिम्मत नहीं थी। बचपन से ही उसके दिलो-दिमाग में ये बात बैठा दी गयी थी कि उसके बिना परिवार को रोटी तक मयस्सर नहीं होगी। अगर उसने ब्याह रचा लिया तो परिवार सड़क पर होगा। यह सोच कर उसकी रूह कांप उठती थी। उसकी इस भावुक कमजोरी का खूब फायदा उठाते थे अताउल्लाह।