Wednesday, February 26, 2014

हे राम! तेरही तक को न छोड़ा!

-वीर विनोद छाबड़ा

बंदे के एक अज़ीज़ मित्र हैं प्रेमबाबू। हमेशा अतीत की दुनिया में खोये रहने की आदत से बेतरह ग्रस्त। जहां भी जाते हैं। उठते-बैठते हैं। पुराने ज़माने को याद करते हुए सिर्फ़ उसकी अच्छाईयों का ही बखान करते है और वर्तमान की बखिया उधेड़ते फिरते हैं। उनकी इस आदत से नयी पीढ़ी उनसे इस कदर परेशान रहती है कि उनके नज़़दीक ही नही फटखती। बंदा उन्हें समझाने की कोशिश करता है कि बड़े भैया दुनिया परिवर्तनशील है। पुराने की जगह नया प्रतिस्थापित होता है तो कई अच्छाईयों के साथ कुछ बुराईयां भी आती हैं। परंतु सबसे अच्छी बात यह है कि कई आमूल-चामूल परिवर्तनों के बावजूद शाश्वत मूल्य अभी तक बरकरार हैं। जैसे झूठ बोलना, चोरी करना। ये कल भी पाप था और आज भी है।


मगर प्रेमबाबू लकीर के फ़क़ीर रहते हैं। अभी कल ही की तो बात है। रात भोजन पश्चात टहलते हुए मिल गये। बंदे को देखते ही भड़क उठे-क्या ज़माना आ गया है? आज एक पुराने मित्र की तेरहीं में जाना हुआ। अब एक तेरहीं ही सहारा था, जहां डाईनिंग टेबुल की जगह ज़मीन पर बैठ कर पत्तल में कद्दू-पूड़ी खाने के बहाने पुरानी भारतीय संस्कृति के दर्शन होते हैं। सोचा था यहां भी यही होगा। मगर अब यहां भी सब उल्टा-पुल्टा हो गया है। बताईये, बुफे यानि गिद्ध भोज सिस्टम लगा रखा था। और खाने में आईटम तो पूछिए मती। उस पर तुर्रा ये कि पूछते हैं वेज हैं या नान-वेज। शर्म आती है बताते हुए कि सबके सब नान-वेज के खाते में गिरते दिखे। हमारा तो खून खौल गया। तबीयत हुई जमीं फट जाये और समा जाऊं इसमें। अच्छा हुआ कि जमीं फटी नहीं। हद हो गयी मरहूम का नासपीटा बेटा खींसें निपोर सफाई दे रहा है कि पिताजी को जो पसंद था वही तो खिलायेंगे न! सिर पीट लिया हमने। एक गिलास ठंडा मिनरल वाटर पीकर चले आये।
बंदा समझाने की कोशिश करता है कि तेरहीं में बुफे तो अब बहुत काॅमन हो चला है। मगर प्रेमबाबू ने एक नहीं सुनी। बदस्तूर बोले जा रहे थे। एक हमारा ज़माना था। रफू की हुई पुरानी दरी या खेस के टुकड़े का बिछौना लगा कर पीतल के बर्तनों में दो रोटी-सब्जी, कटोरा भर दाल-चावल खाते थे। फिर घड़े का ठंडा पानी पिया। आत्मा तृप्त हो जाया करती थी। अब डाईनिंग टेबुल आ गयी हैं। खाने में क्या होता है? इटली का पिज़्ज़ा, चीन-जापान का नूडल-चाऊमीन,  कोरिया का मंचूरियन और अंग्रेज़ों का सैंडविच। पीतल के बर्तन जाने कहां हवा हो गये। स्टील को भी खा गये। अनब्रेकेबुल सिरेमिक की क्राकरी में खा रहे हैं। कोयले की अंगीठी-चूल्हा गया तो बुरादे की अंगीठी ले आये। फिर केरोसिन प्रेशर स्टोव आया। अब गैस, हीटर, ओवन, कनवेक्शन चूल्हा, इलेक्ट्रिक कुकर। जाने क्या-क्या देखना बाकी है! अब ये मोबाईल, डिजिटल  कैमर,े टीवी, कम्प्यूटर वगैरह देखिये। चीन, जापान, जर्मनी, कोरिया किसी को छोड़ा है। अपना कुछ भी तो नहीे दिखता यहां। कभी विदेशी आईटम अमीरों की बपौती थे। वो भी खुश और हमारी तो औकात भी नहीं थी इसलिये हम भी खुश। अब घर-घर में फाॅरेन का माल है। मेड इन फाॅरेन की इज़्ज़त मिट्टी में मिल गयी है। रोज़ सुनता हूं कि फलां का बेटा, फलाने की बेटी अमरीका-इंग्लैंड में सैटिल हो गये हैं, तो कोई हाॅयर स्टडीज़ के लिये जा रहा है। हमारे टाईम मे सिर्फ़ लाट साहबों और अमीरों की औलादें ही जाती थीं। अब हर एैरा-गैरा, नत्थू-खैरा चला जा रहा है। मानों अमीनाबाद-हज़रतगंज शापिंग करने जा रहे हैं। मज़ाक बना दिया है फाॅरेन का।


बंदा प्रेम बाबू को समझाता है कि आज मार्किट लग्जरी आईटमों से पटा पड़ी है। मगर है तो सब मेड इन इंडिया। एक्सपोर्ट भी होता है। हमारे माल की विदेशों में ज़बरदस्त डिमांड है। कुछ आईटम में फाॅरेन के पुर्जे हैं। मगर माल तो भारत में ही बना है। इससे जो कमाई होगी उसका बड़ा हिस्सा यहीं ख़र्च होगा। मेहनत भी हमारी है। अब देखिये आप को इस बात पर फ£ होना चाहिए कि सूचना तकनीक भले ही विदेशी है, मगर इसके शीर्ष पर ज्यादातर भारतीय तैनात हैं। मेडीकल साईंस की तरक्की में हम भारतीयों का भी योगदान है। सारी दुनिया में भारतीय डाक्टरों ने धूम मचा रखी है। यों हम भले ही ईलाज के लिये सिंगापुर-अमरीका जाते हों तो पर हजारों-लाखों विदेशी ईलाज के वास्ते भारत आते हैं क्योंकि यहां अच्छे डाक्टर हैं। सस्ता भी पड़ता है। पहले भारत में इने-गिने अमीर थे और अब इतने ज्यादा हो गये हैं कि इनमें से अनेक दुनिया के सौ शीर्ष अमीरों में शामिल हैं। कल हमारा सैटेलाईट चांद पर पहुंचा था और अब मंगल की यात्रा पर निकला हुआ है। प्रेम बाबू आप कहां हैं? जागो! जागो!!


मगर प्रेम बाबू जल्दी हार मानने वालों में से नहीं थे। दूसरे ही दिन सुबह-सुबह आ धमके। अनेक आंकड़ों और ब्यौरे का पुलिंदा लेकर, जिसमें भारत में कुपोषण की कहानी बयां थी। भ्रष्टाचार और अपराधों का भी ब्यौरा था। इनमें दिख रहा था कि दुनिया में भारत का ग्राफ़ काफ़ी ऊंचा था। ये सब दिखाते-दिखाते प्रेम बाबू उत्तेजित हो गये- तरक्की के मायने क्या होते हैं? फिर भावुक होकर पूछते हैं- जिन्हें नाज़ था हिंद पे वो कहां हैं?


बंदे के पास इधर-उधर बगलें झांकने के सिवाये कोई जवाब नहीं होता।
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जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ, कानपुर, वाराणसी, इलाहाबाद व गोरखपुर के दिनांक 25.02.2014 के उलटबांसी स्तंभ में   प्रकाशित लेख का विस्तृत रूप

-वीर विनोद छाबड़ा
डी. 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016

मोबाईल 7505663626



2 comments:

  1. के पी बाबू की राह पर आपका लेखन है ,साधुवाद।



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