-वीर विनोद छाबड़ा
सूबे की राजधानी
है। यहां चौबीस घंटे बिजली है, पानी है। चौड़ी सड़कें हैं। जल निकासी और सीवरेज का बेहतरीन
सिस्टम है। लोगों में सिविक और ट्रेफ़िक सेंस गज़ब का है। आवागमन के सरकारी और प्राईवेट
दोनों सिस्टम प्रचुर मात्रा में हैं। सस्ते भी हैं। नर्सरी से लेकर पोस्ट ग्रेजूएशन
और वकालत, एमबीए, मेडिकल और इंजीनियरिंग वगैरह की आला पढ़ाई के ढेरों इंतज़ाम हैं। कहीं
किसी भी चीज की कोई किल्लत नहीं। यही सुना था उस बंदे ने। इसीलिये खुद की और परिवार
की बेहतर ज़िंदगी की आस में अभावग्रस्त उस छोटे से शहर से यहां इस बड़े शहर में ट्रांसफ़र
कराके आया था। इसके लिये ज़बरदस्त जुगाड़ लगानी पड़ी थी।
यहां आया और
जो देखा तो पता चला कि बिलकुल ग़लत सुना था। दिखने और झेलने में बड़ा फ़र्क है। छह हजार
माहवार किराये पर बामुश्किल दो कमरे का निम्न आय वर्ग कालोनी में मकान मिला। बिजली
पानी का डेढ़ हजार अलग से। कंडीशन यह भी है कि वेजीटेरीयन हैं तो ठीक। नानवेज बनायें
तो एक बड़ी कटोरी भर कर मकान मालिक को भेजनी ज़रूरी। चलो ठीक। इसमें कोई बुराई नहीं।
यहां कौन रोज़ मुर्गा हांडी पर चढ़ता है!
पहले ही दिन
जब कदम बाहर पड़े तो पता चला कि सपने ढहना किसे कहते हैं। घर से मुंशी पुलिया चैराहा
बामुश्किल दो सौ मीटर है। वहां तक पहुंचने के लिये गड्डों से गुज़रती टूटी-फूटी सड़क
पर दुल्हन की तरह बेहद संभल-संभल कर पैर रख चलना पड़ा। एक आध जगह पर सीवर लाईन टूटी
मिली, जिसमें से गंदा पानी और मैला उफना का सड़क पर फैला है। इन गड्डों में भी जमा होकर
बदबू मारता है। धूल-धक्कड़ और बदबू से बचने के लिये नाक पर रूमाल रख कर जैसे तैसे बंदा
चौराहे पर पहुंचा। यहां अजब हाल पाया। आफिस जाने का टाईम है। बसों में ठूंसे लोगों
को देखकर बाड़े में ठूंसी भेड़-बकरियां याद आ गयीं। आटो के लिये बेतरह धक्कम-धक्का और
भाग-दौड़ है। कुछ हट कर एक खाली आटो रिक्शा दिखता है। ड्राईवर पैर फैलाये हुए बीड़ी फूंक
रहा है - ‘‘कहीं नहीं जाना। अपना काम करो।’’ यह कह कर वो झिड़क देता है। चिरौरी की तो
इस शर्त पर तैयार हुआ कि मगर किराया दुगना लगेगा। बखत-बखत की बात है। जी, यही कमाई
का मौका है। फिर तो सारा दिन ही खाली रहना है...
बंदे ने घ़ड़ी
देखी। ओह, पंद्रह मिनट लेट! प्राईवेट नौकरी और आज पहला दिन। सरकारी होती तो बारह-एक
बजे पहुंचना भी चल जाता। बंदे की तरह के दो-तीन और भी भटकते भी आ पहुंचे। मरता क्या
न करता! चल भाई, आज तेरा ही दिन सही। ऐसा ही शाम लौटते समय भी हुआ।
बंदे को एक ही
बच्चा है। नर्सरी में एडमीशन के लिये एक नामी स्कूल पहुंचा। वहां बताया गया कि यहां
नर्सरी में एडमीशन के लिये बच्चा पेट में आते ही एप्लाई करना पड़ता है। माता-पिता को
भी अंग्रेजी का ज्ञान हो। स्कूटर-बाईक के साथ-साथ कार होनी भी ज़रूरी है। साठ हजार रुपये
महीने से कम इनकम वालों को बच्चे के एडमीशन का सपना देखना मना है। कई दूसरे इंग्लिश
मीडियम स्कूल देखे। वहां ‘एडमीशन फुल्ल’ का बोर्ड टंगा होने के बावजूद एडमीशन जारी
मिले। बस डोनेशन तगड़ा है। यही कोई पच्चीस-तीस हज़ार। कहने को तो अंग्रेजी माध्यम है।
लेकिन टीचरों की अंग्रेजी सुनी तो पता चला कि कहीं से एक महीने में धारा प्रवाह अंग्रेजी
लिखना, पढ़ना और बोलना सीखने वाला कोर्स किये हैं। अनाप-शनाप खर्चा का लंबा-चैड़ा ब्यौरा भी दिया। कमजोर दिल बंदा हो तो
पछाड़ खाकर गिर पड़े।
एक बार बंदा
बीमार पड़ा। सरकारी अस्पतालों में भीड़ देख कर हार्टफेल होते-होते बचा। प्राईवेट अस्पताल
में लंबे खर्च से मर्ज़ जाता रहा। मगर दो बढ़ गयीं। मजे की बात तो यह कि इनमें एक का
इलाज अमरीका में तो दूजे का जापान में बताया गया। जाम का तो हाल मत पूछिये। रिहाईश
किसी भी इलाके में हो। दिन की कोई भी ट्रेन या बस पकड़नी हो तो कम से कम दो घंटे पहले
निकलें।
एक दिन बंदे
को एक मैयत में जाना पड़ा। हालात कुछ ऐसे बने कि स्वर्गवाहन विधानसभा के सामने चल रहे
धरना-प्रदर्शन में फंस गया। न बढ़ पाये और न लौट पाये। चार घंटे यूंही गुज़र गये। सब
परेशान कि सूर्यास्त होने को है। सूर्यास्त के बाद अंत्येष्टि संभव नहीं। डैडबाडी वापस
बरफ में रखनी होगी। बंदा सोच रहा था कि डैडबाडी बेचारी दो दिन तक बरफ में रखी ठंड से
ठिठुरती रही और अब इस गरमी में सड़ रही है। बहुत परेशान होगी। लगता है कि अभी उठ बैठेगी
और बोलेगी - ‘‘भैया, अब और बर्दाश्त नहीं हो रहा। वापस बरफ में मत डालना। अरे, फूंकना
ही तो है। न सही बैकु्रठधाम। यहीं उतार कर किनारे फूंक दो। जाना भी एक ही जगह है। चाहे
यहां से भेजो या बैकुंठधाम से। वहां स्वर्ग में भी शाम छह के बाद एंट्री बंद हो जाती
है। उठाने और साथ चलने के लिये लोग आज भी बड़ी मुश्किल से मिले हैं। कल का क्या भरोसा?
रोज-रोज एक ही मुर्दा फूंकने के लिये छुट्टी तो मिलती नहीं। फिर स्वर्ग में अगर हाऊस
फुल मिला तो दो-चार दिन वेटिंग में लेटना होगा। वेटिंग तो नरक से भी बद्दतर है...’’
तभी स्वर्गवाहन को आगे बढ़ने का रास्ता मिलता है। स्वर्गवाहन जल्दी से आगे बढ़ा तो एक
झटका लगा। इसके साथ ही डेडबाडी भी हिली। इष्टजनों को तनिक हैरत हुई। एक ने टटोल कर
भी देखा। बाडी निर्जीव थी। उन्हें संतुष्टि हुई। अब बंदा कैसे बताता कि डैडबाडी से
वो बाहर आया है। बताता तो तरह-तरह की जिज्ञासायें होती कि कैसे घुसे? क्यों घुसे? वहां
और क्या-क्या देखा? बहरहाल उसने इशारे से बता दिया कि सब ठीक-ठाक है।
यहां हादसों
पर तुरंत भीड़ जुटती है, मगर सिर्फ़ तमाशे के लिये। मदद के लिये कोई हाथ नहीं बढा़ता।
किसी को फुरसत नही, तो कोई पुलिस और फिर कोर्ट-कचेहरी के चक्कर में फंसना नहीं चाहता।
पुलिस पर तो किसी को एतबार ही नहीं है। ऐसा ही एक हादसा हुआ। एक नीली बत्ती और दो लाल
बत्ती लगे वाहन गुज़रे। शीशों पर मोटी काली फिल्म चढ़ी थी। अंदर कोई प्रदेश और समाज के
कर्णधार बैठे होंगे। ज़रूर जनता-जनार्दन के दुख-दर्द हरने के प्लान बना रहे होंगे। या
ऐसे ही किसी ज़रूरी मुद्दे पर विचार करने के लिये अर्जेंट मीटिंग एटेंड करने जा रहे
होंगे। मगर जिंदा रहने की आस में तड़पते घायल को तुरंत अस्पताल पहुंचाना उनके एजेंडे
में नहीं है। पुलिस एक घंटे बाद पहुंचती है। खाना-पुर्ती करके सरकारी अस्पताल ले जाती
है जहां डाक्टर कहता है- ‘‘यहां जिंदा को देखने की फुरसत नहीं और मरे ले कर आ गये।’’
हादसों के इस शहर में हर किलो दो किलोमीटर पर ट्रामा सेंटर नहीं हैं।
बड़े चैराहों
पर पुलिस चैकी है। मगर सिपाही नदारद हैं। एमजरजेंसी के लिये कोई एंबुलेंस तैयार मोड
में नहीं है। हजरतगंज को छोड़कर किसी भी चैराहे पर लाल बत्ती नहीं है। यहां आऊटर रिंग
रोड है। इसके बनने में बारह साल लग गये। इस उसके आस-पास बेशुमार टाऊनशिप बन गये, मोहल्ले
बस गये। इसे शहीद पथ कहते है। सहुलियत के साथ साथ यहां आये दिन एक्सीडेंट होते है।
मौते होती हैं। कहते हैं यह शहर पढ़े-लिखे लोगों का है। मगर किसी में न ट्रेफ़िक सेंस
है और न सिविक सेंस। लोग उल्टी दिशा में वाहन चलाते हैं। मानों मरने का शौक है। फुटपाथ
कहीं नहीं दिखते। अगर कहीं हैं भी तो अवैध कब्जों ने ढक रखा है। ऐसा ही हाल बरामदों
का है। बीच सड़क पर लोग कार, बाईक-स्कूटर आदि खड़ा करके शापिंग पर निकल लेते हैं और घंटों
बाद लौटते हैं। उनकी वजह से जाम लगे तो उनकी बलां से। किसी को हल्का होना है तो किसी
की भी दीवार को गीला कर देते हैं। ऐसा दृश्य खंबे का सहारा लेने वाले की याद दिलाता
है।
यहां कई शापिंग
माल और सिनेप्लेक्स हैं। बड़ा आनंद मिलता है वहां जाने में। लेकिन जेब भी अच्छी-खासी
ढीली होती है। बढ़िया टेली ट्रांसमीशन के लिये डी0टी0एच0 कनेक्शन लिया। मगर बंदरों को
बंदे से खास एलर्जी है। आये दिन छतरी टेड़ी करके एलाईनमेंट बिगाड़ देते है। ठीक करने
वाला मैकेनिक दो दिन बाद आता है और दो सौ रुपये ऐंठ लेता है। यहां बिजली की मौजूदगी
कहने को तो चैबीस घंटे है। मगर फयूज़ उड़ जाने या लाईन टूटने या मेंटीनेंस के नाम पर
सात-आठ घंटे बंद रहना मामूली बात है। नलों में पानी नहीं है। बामुश्किल टुल्लू से खींचा
जाता है। बदबूदार और मिट्टी वाला पानी अक्सर चला आता है। इसीलिये यहां हर घर में वाटर
प्योरीफायर लगे हैं। इधर-उधर का पानी पीने से डायरिया होने का पूरा खतरा है। छोटे शहर
में पगार महीना गुजरने के बाद भी बची रहती थी। अब पंद्रह दिन बाद सियापा करने लगती
है।
ये देख कर बंदा
झल्ला जाता है। और अचानक राह चलते को पकड़ कर पूछता है- ‘‘यहां हर शख्स परेशां सा क्यूं
है मेरे भाई?’’ उसे कई दिन मेंटल ट्रीटमेंट में रहना पड़ा।
बंदा दो साल
में ही बड़े शहर के नखरों, समस्याओं और खर्चा से आजिज़ आ जाता है। वो एक बार फिर जुगाड़
लगाता है। और बदली कराके अपने छोटे शहर में वापस आ जाता है। परंतु यहां भी एक सदमा
प्रतीक्षा करता मिला। अब यहां भी दो शापिंगमाल और मल्टीप्लेक्स सिनेमा खुल गये हैं।
परंतु सड़क पहले की तरह ही संकरी और टूटी-फूटी है। तथापि वाहनों और हादसों की संख्या
बढ़ गयी है। सरकारी अस्पतालों से डाक्टर गायब हैं। प्राईवेट अस्पताल खूब फल-फूल रहे
हैं। बड़े शहर की बुराईयां यहां भी तेजी से घर बना रही हैं।
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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा
नगर
लखनऊ -
226016
मोबाईल
7505663626
दिनांक 22 6
2014
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