Friday, July 25, 2014

इंदर सेन जौहर बोले तो आई.एस. जौहर!

-वीर विनोद छाबड़ा

हिंदी सिनेमा के इतिहास में कई अजीबो-गरीब शख्सियतों के नाम दर्ज हैं। इंदर सेन बोले तो आई.एस. जौहर की गिनती इन्हीं में है। जौहर ने स्थापित मान्यताओं, रवायतों, रस्मों, ढोंगों, चोंचलों की ज़रा भी परवाह नहीं की। बल्कि जमकर खिल्ली उड़ायी। ऐसा करते हुए कई बार हद से भी गुजर गये। इसका ख़ामियाज़ा उन्हें इस तरह भुगतना पड़ा कि वो महफ़िलों के लिये अवांछनीय हो गये। हमदर्दों ने उनके होंटो पर टेप चिपका दिया। बहुत पढ़े-लिखे थे। एल.एल.बी., अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में एम.ए. की
डिग्रियां। सेंस आफ हयूमर, हाज़िर जवाबी और मज़ाक करने की टाईमिंग शानदार थी। ऐसा रील लाईफ के अलावा रीयल लाईफ में भी था। इसी कारण ऐसे लोग इनसे बचा करते थे जो खुद को अक़लमंदों के अलमबरदार और सीधे जन्नत से उतरा हुआ मानते थे।

जौहर लाहोर में रहते थे जब भारत का विभाजन हुआ। उस दिनों वो परिवार सहित एक रिश्तेदार की शादी में हिस्सा लेने पटियाला आये हुए थे। तभी विभाजन पूर्व के दंगे शुरू हो गये। लौट नहीं पाये लाहोर। सब कुछ लुट गया। कुछ वक़्त जालंधर में रुक कर छोटे-मोटे काम किये। फिर किस्मत उन्हें बंबई ले गयी जहां रूप के. शोरी की ‘एक थी लड़की’ (1949) में कामेडियन का रोल मिला। जौहर खूब पसंद किये गये। उसके बाद रास्ता खुल गया। पचास, साठ व सत्तर के दशक में अनेक फिल्में कीं। उनका नाम हास्य की पहचान बन गया।

जौहर उन चंद भारतीय अभिनेताओं में थे जिनकी हालीवुड में खास पहचान थी। वहां उन्हें सराहा भी खूब गया। दुनिया के प्रति अपने विचित्र विचारों के कारण विदेशों में वो उच्चकोटि के बुद्धिजीवी कहलाते थे। ‘हैरी ब्लैक’ (1958) उनकी पहली हालीवुड फिल्म थी। इसके बाद नार्थ वेस्ट फ्रंटियर (1959), लारेंस आफ
अरेबिया (1962) व डेथ आन दि नाइल(1978) की। ये बहुत कामयाब फिल्में थी। ‘हैरी ब्लैक’ में अभिनय के लिये उन्हें विश्व प्रसिद्ध ‘बाफ़टा’ पुरुस्कार हेतु नामांकित भी किया गया। अमेरीकन टीवी सीरीयल ‘माया’ से भी उन्हें खासी ख्याति मिली।

जौहर ने पंजाबी फिल्में भी की। जिनमें सबसे चर्चित थी ‘छड़यां दी डोली’ (1966), ‘यमलाजट’ और ‘नानक नाम जहाज है’ (1969)। पंजाबी फिल्मों के इतिहास में यह सर्वकालीन कामयाब फिल्मों में थी। जौहर का इसमें सुनील दत्त के भाई सोम दत्त, विम्मी और पृथ्वीराज कपूर के साथ अहम किरदार था।

जौहर बहुत अच्छे लेखक व निर्देशक भी थे। कुल 14 फिल्में निर्देशित की। प्रमुख थीं- श्रीमती जी, नास्तिक, श्री नगद नारायण, हम सब चोर हैं, मिस इडिया, बेवकूफ आदि। यह सब ए-ग्रेड फिल्में थी। परंतु जिन फिल्मों को उन्होंने स्वयं प्रोडयूस और डायरेक्ट किया, वे सभी बी-ग्रेड से ऊपर नहीं उठ पायीं। जैसे, जौहर महमूद इन गोवा, जौहर इन कश्मीर, नसबंदी, जाय बांग्ला देश, फाईव राईफल्स आदि। इनमें और इसके अतिरिक्त कई फिल्मों का लेखन भी किया। जैसे अफ़साना, दास्तान, करोड़पति, भाई-बहन, चांदनी चैक आदि।
 

परदे के बाहर जौहर एक विचित्र जीव थे। वस्तुतः उनके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू बहुत घटिया था। तमाम समाजी रवायतों और रस्मों के विरोधी थे। दुनिया को अपनी नज़र से देखते थे और अपनी तरह बनाना चाहते थे। लेकिन उन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता था। उनकी सोच व गंभीरता पर लोग हंसते थे, उपेक्षा करते थे। उनकी मानसिकता पर सवाल और संदेह भी करते थे। चूंकि उनका नाम कामेडी का पर्याय था अतः उनके विचारों को भी कामेडी समझना शुरू कर दिया था। मित्रों ने उनके विचित्र विचारों के कारण किनारा करना शुरू कर दिया। उन्हें अपने विचारों के अनुरूप फिल्म बनाने के लिये फाईनेंस को तरसना पड़ा। ऐसे में उन्होंने कम बजट वाली फिल्में बनानी शुरू कर दीं। बकवास कहानी और ढीली स्क्रिप्ट के कारण इनका स्तर बी-ग्रेड से ऊपर नहीं उठ पाया। पहली फिल्म ‘जौहर महमूद इन गोवा’ जरूर देशभक्ति के ज़ज्बे के कारण बाक्स आफिस पर कामयाब रही। इस फिल्म की कामयाबी से उन्होंने दर्शक को मूर्ख समझने की गल्ती की। नतीजा यह हुआ कि अगली फिल्म ‘जौहर महमूद इन हांगकांग’ सुपर फ्लाप रही। इन दोनों में प्रसिद्ध कामेडियन महमूद उनके संग थे।


जौहर चाहते थे कि उनकी और महमूद की जोड़ी हालीवुड के बाब होप और बिंग क्रोस्बी की तरह हिट हो। लेकिन महमूद अपनी व्यक्तिगत पहचान और लोकप्रियता को जौहर के साथ लटक कर खोना नहीं चाहते थे। तमाम ऊंची स्टार कास्ट के होते हुए भी महमूद अपने हास्य की टाईमिंग और अपनी मौजूदगी के दम पर फ़िल्म को लिफ्ट करने का दम रखते थे। बड़े-बड़े हीरो भी सीन में महमूद की मूक मौजूदगी तक से घबराते थे। उन्होंने जौहर के नाम का हिस्सा बनने से मना कर दिया। तब कुंठित जौहर ने चिढ़ कर अपने नाम से फिल्में बनानी शुरू कर दीं। जैसे, मेरा नाम जौहर, जौहर इन कश्मीर, जौहर इन बांबे आदि। यहां भी एक बार फिर दर्शको को मूर्ख समझने की भूल जौहर कर बैठे। बे-सिर पैर की कहानी और घटिया स्क्रीनप्ले अगली पंक्ति का दर्शक भी हजम नहीं कर सका। अतः एक भी फिल्म न चली। उन दिनों जौहर के साथ नायिका अधिकतर सोनिया साहनी हुआ करती थीं। ‘जौहर महमूद इन गोवा’ में सोनिया ने एक विदेशी लड़की की भूमिका की थी। इसमें जौहर का उन पर फिल्माया गया चुंबन दृश्य काफी चर्चित रहा था। आजादी के बाद हिंदी सिनेमा से चुंबन गायब हो गया था। ऐसे में जौहर ने तर्क दिया कि विदेशी लड़की का चुंबन लेने पर तो कोई प्रतिबंध नहीं है। यह एक प्रकार से दकियानूसी सेंसर बोर्ड का मज़ाक उड़ाना भी था। सुना जाता था कि सोनिया से उनकी लिव इन रिलेशनशिप थी।


जौहर की शादी 1943 में रमा बैंस से हुई थी। लेकिन जल्दी तलाक हो गया। इसके बाद उन्होंने चार शादियां और की। भारतीय रस्मो-रिवाज के हिसाब से ऐसा करना अच्छा नहीं माना गया। उन्होंने पुत्र अनिल जौहर को ‘फाईव राईफल्स’ मे और पुत्री अंबिका जौहर को ‘नसबंदी’ में उतारा था। खुद को न्यूज़ में रखने और वक़्त को भुनाने में जौहर माहिर थे। वो बात अलबत्ता दूसरी थी कि उन्हें बड़ी कामयाबी नहीं मिलती थी। वक्त को भुनाने की गरज़ से वो बड़ी तेज रफ़तार से फिल्म बनाते थे अतः ऐसे में कहानी का बहाव, गुणवत्ता आदि सब हाशिये पर रहता था। तभी तो उनकी महज़ महीने भर में बनी बांग्लादेश की आज़ादी पर आधारित ‘फाईव राईफल्स’ और ‘जोय बांग्लादेश’ बुरी तरह पिटीं।

सन 1975 में देश में इमरजेंसी लागू करने के कारण जौहर प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कट्टर विरोधी हो गये थे। उनकी नीतियों का मज़ाक उड़ाने वाली फिल्म ‘नसबंदी’ बनायी। खूब चर्चा हुई। सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया। लेकिन इमरजेंसी हटते ही यह रिलीज हुई। इसे देखने के लिये शुरूआती दिनों में तो खूब भीड़ उमड़ी परंतु बहुत घटिया स्क्रीनप्ले और डायरेक्शन के कारण ज्यादा दिन टिक नहीं पायी।

जौहर की फिल्में भले ही क्लास जैन्ट्री ने नापसंद की हों मगर उनके हास्य के टाईमिंग और चुटीले संवादों का लोहा सभी ने माना। पचास, साठ और सत्तर के दौर पहली पंक्ति के तकरीबन सभी प्रोडयूसर-डायरेक्टर्स की वह पहली पसंद थे। उनकी हिट और चर्चित फिल्मों में प्रमुख थीं, अफ़साना, श्रीमती जी, नास्तिक, हम सब चोर हैं, बेवकूफ, तीन देवियां, अप्रेल फूल, दिल ने फिर याद किया है, शागिर्द, पवित्र पापी, सफ़र, अनीता, राज, जोशीला, रूप तेरा मस्ताना, ख़लीफ़ा, एक मुट्ठी आसमान, प्रेम शास्त्र, आज की ताज़ा खबर, प्रियतमा, साहेब बहादुर, दो नंबर के अमीर, छोटी बहू, बढ़ती का नाम दाढ़ी, दास्तान, तांगे वाला, बनारसी बाबू, गंगा की सौगंध, त्रिमूर्ति, गोपीचंद जासूस, तीसरी आंख आदि। देवानंद-हेमा मालिनी की मशहूर सुपर हिट फिल्म ‘जानी मेरा नाम’ (1971) में उन्होंने तिहरी भूमिका की थी। इसके लिये उन्हें श्रेष्ठ कामेडियन के फिल्मफेयर पुरूस्कार से नवाज़ा गया था। ‘शागिर्द’ का उन पर फिल्माया ये गाना बेहद लोकप्रिय हुआ था -ओ बड़े मियां दीवाने ऐसे न बनो, दुनिया क्या चाहे हमसे सुनो....। इसमें उनकी आवाज़ में कुछ पंक्तियां भी थीं।

जौहर की हाज़िर जवाबी और बुद्धिमता के कारण ही मशहूर पाक्षिक पत्रिका ‘फ़िल्मफ़ेयर’ में सवाल-जवाब का एक पूरे पेज का स्तंभ उनके नाम पर था- आईएस जौहर क्वेशचन बाक्स। इस बाक्स की रेटिंग बहुत ऊंची थी। जिसके सवाल को जवाब के लायक चुना जाता था वो धन्य हो जाता था। सवाल अक्सर टेढ़े-मेढे़ और कुतर्की होते थे। उनका जवाब भी नहले पर दहला समान होता था। प्रश्नकर्ता लाजवाब हो जाता था। श्रेष्ठ सवाल के लिये पचास रुपये नकद का पुरूस्कार भी था। इस बाक्स की लोकप्रियता का आलम यह था कि फिल्मफेयर के स्टैंड पर आते ही पाठक सर्वप्रथम इसी पृष्ठ को खोलते थे।

जौहर साधु-बाबा आदि को ढोंगी और समाज का दुश्मन मानते थे। उनका ख्याल था कि आमजन को जाहिल बनाने में इनका बड़ा हाथ है। आमजन के साथ साथ फिल्म इंडस्ट्री के तमाम खासो आम भी तकदीर चमकाने के चक्कर में फर्जी बाबाओं व फकीरों के फेर में फंसे रहते थे। उनका मज़ाक उड़ाने और यह बताने के प्रयास में कि यह सब मिथ्या और ढोंग है, उन्होंने एक काल्पनिक आकाशी बाबा लांच किया और खुद को उनका चेला बताया। वो रोज बताते थे कि आकाशी बाबा ने पिछली रात उनके सपने में आकर कौन सी भविष्यवाणी की।

एक दिन जौहर ने बताया कि कल वो अपने आकाशी बाबा के पास दूसरे लोक चले जायेंगे। किसी को यकीन नहीं हुआ। सबने भद्दा मज़ाक माना इसे। मगर संयोग देखिये। जौहर दूसरे दिन सचमुच ही स्मृति शेष हो गये। जौहर का जन्म 16 फरवरी, 1920 को तोलागंज (अब पाकिस्तान) में हुआ था और मुत्यु 10 मार्च, 1984 को बंबई में हुई थी।

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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290 इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016
मोबाईल नं. 7505663626

दिनांक 26 जुलाई 2014

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