Saturday, May 7, 2016

'ट्रेजेडी किंग' की सबसे बड़ी चूक।

-वीर विनोद छाबड़ा
काल १९५६-५७ का। गुरूदत्त एक लाईफ़टाईम प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे। नाम था - प्यासा। उनके किरदार का नाम था विजय। वो एक स्ट्रगलिंग कवि था। मगर उसकी कविताओं को कोई नहीं समझता था। प्रेमिका को उसमें आर्थिक हित नहीं दिखा। प्रकाशकों ने कूड़ा समझा। लेकिन वेश्या ने अपनाया। एक एक्सीडेंट में उसे मरा समझा गया। वो अचानक महान हो गया। उसकी मूर्ति खड़ी की गई। लेकिन विजय वहां अचानक पहुंच गया। ज़बरदस्त हंगामा हुआ। कोई उसे पागल कह रहा है तो कोई अपना। परेशान होकर विजय ने कहा वो विजय नहीं है।

ज़बरदस्त प्लाट था। लेकिन सब कुछ निर्भर था विजय के किरदार को जीने वाले पर। वही इस फिल्म को कालजई बना सकता था। और वो थे यूसुफ यानि दिलीप कुमार। जब इस इस किरदार को गढ़ा जा रहा था तो गुरू के ध्यान में सिर्फ दिलीप ही थे। यों भी गुरू दीवाने थे दिलीप कुमार के। उनकी दिली ख्वाईश तमन्ना थी कि इस ट्रेजेडी किंग को डायरेक्ट करके अपने टैलेंट का इम्तेहान लूं। तलाश थी तो बस एक बढ़िया स्क्रिप्ट की जो अबरार अल्वी ने तैयार कर ली थी। 
गुरू ने दिलीप से बात भी कर ली। दिलीप राज़ी हो गए थे।
इस बीच कई अन्य नामी एक्टरों ने गुरू को संदेशे भिजवाए। लेकिन गुरू ने कहा कि आखिरी फैसला हो चुका है। एक बात और। नायिकाओं के लिए गुरू की पहली पसंद नर्गिस और मधुबाला थीं। लेकिन बात नहीं बनी। तब क्रमशः माला सिन्हा और वहीदा रहमान ने उनकी जगह ली।
मगर जब फिल्म फ्लोर पर जाने को तैयार हुई तो अचानक दिलीप कुमार ने मना कर दिया। मानो ज़लज़ला आ गया।

दरअसल, दिलीप दीदार, मेला, यहूदी जैसी दुखांत फिल्मों के कारण गहरे अवसाद का शिकार हो चुके थे। एक लंबे ईलाज के बाद इस अवसाद से कुछ अरसा हुए बाहर आये थे। 'आज़ाद' की सफलता ने भी ज़िंदगी की एक नयी रोशनी दिखाई। उन्हें बस खतरा था कि कहीं ऐसा न हो कि 'प्यासा' उन्हें दोबारा गहरे अवसाद में डुबो दे।
इधर गुरू अड़े हुए थे कि अगर प्यासा दिलीप नहीं करेंगे तो नहीं बनेगी फ़िल्म। वो उनसे मिले भी। अपने इरादे ज़ाहिर किये।
मगर दिलीप कुमार भी हटी थे और गुरुदत्त उनसे ज्यादा। उनको यकीन था कि इस लाईफ़टाईम रोल को दिलीप कुमार छोड़ नहीं सकते। वो आख़िरी लम्हों में फैसला बदलेंगे। गुरू ने प्यासा की स्क्रिप्ट उनके घर छोड़ दी कि एक बार फिर पढ़ लें।
 

दिलीप कुमार को संदेशा गया कि फलां दिन 'प्यासा' फ्लोर पर जा रही है और मुहूर्त शॉट आप पर ही लिया जाना है।
लेकिन ऐन वक़्त दिलीप कुमार नहीं आये। गुरू ने फोन किया - आपका इंतज़ार है। लेकिन दिलीप कुमार नहीं माने।
गुरू को गुस्सा आ गया। सबने यही समझा कि अब तो पैकअप।
मगर थोड़ी देर बाद गुरू कैमरे के सामने हाज़िर थे। इस रोल को दिलीप कुमार के अलावा सिर्फ़ मैं कर सकता हूं। विजय के किरदार को गढ़ने में मेरा भी रोल है।
और जब फिल्म स्क्रीन पर आयी तो कमाल हो गया। ग्रेट दिलीप कुमार आल टाईम ग्रेटेस्ट बनने से चूक गए। आज भी विश्व में जब सर्वकालीन सौ श्रेष्ठ फिल्मों की गिनती होती है तो प्यासा का नाम आता है।

कदाचित वो अंदर ही अंदर ज़रूर पछताये भी होंगे। लेकिन एक दूसरा पहलू भी है। संभवतः प्यासा उन्हें एक बार फिर गहरे अवसाद में ले जाती, जहां से वापस आना मुमकिन ही नहीं नामुमकिन होता। 
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Published in Navodaya Times dated 07 May 2016
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