Monday, November 14, 2016

हम भी दो हज़ारी हो गए।

- वीर विनोद छाबड़ा
वाह मोदी जी वाह। पहली बार आपने दिल खुश किया। देश हित में विलंब से लिया गया एक अच्छा फैसला। बैंकों के बाहर पिछले पांच दिन से लगी लंबी लाईनें देख कर हम बहुत प्रसन्न हैं। शायद हम जान ही नहीं सकते थे कि देश में कितने कालाधन रखने वाले हैं। निर्धन और निम्न आय वाले और रोज़ कुआँ खोदो और खाओ वालों की संख्या ज्यादा है। असली तो जाने कहां मौज उड़ाते घूम रहे हैं। हमें उम्मीद है कि वो भी आएंगे, कभी न कभी गिरफ़्त में आएंगे। बकरे की मां बहुत दिन तक खैर नहीं मना सकती।
मेमसाब ने कई परतों में पैसा छुपा रखा था। हमने कई बार समझाया। चोर भाई लोग तो कई बार घूम कर चले गए। आज वो सारे के सारे मोदी जी के समक्ष शर्मिंदा हैं। वाह सरदार वाह! लेकिन आज पोल खुल गयी। निकल आया ब्लैक मनी। कल हम लंबी लाईन में लगे थे तो उनमें गृहणियों की संख्या ज्यादा थी। एक साहब मोदी जी के इस नेक कदम की प्रशंसा कर रहे थे। राष्ट्र उन्हें सदैव याद रखेगा। गृहणियों ने उन्हें पकड़ कर पीट दिया। मुद्दत बाद देख रहे हैं कि बीच बाजार लोग सरकार और मोदीजी की जितनी प्रशंसा हो रही है उससे ज्यादा बुराई।
एक साहब कल कुछ निराश से मिले। हम भी दो हज़ारी हो गए। एकबारगी लगा जैसे किसी ने चूरन वाला नकली नोट पकड़ा दिया है। पिछवाड़े नंबर भी गायब है। इसके पीछे तर्क क्या है, मालूम नहीं। आंखें अभ्यस्त नहीं हुई हैं। पूरी मार्किट घूम आये। लेकिन कोई मिला नहीं तोड़ने वाला। हलवाई एक किलो खुरमा पर भी कमबख़्त राजी नहीं हुआ। कहने लगा, देख रहे हैं बाज़ार सन्नाटे में है। बेकरी से पांच सौ का सामान लिया। उसने खाली गल्ला दिखा दिया। सिर्फ डबल रोटी बिक रही है, वो भी पहले से कम। उसने सुझाव दिया। कार लेकर पेट्रोल पंप चले जाईये। टैंक फुल्ल करा लें। बस इसी काम आएगा। हमने उसे दो हज़ार गाली दी। पहले हज़ार गाली देते थे। अबे खाएंगे क्या? पेट्रोल? उसने तरस हमें एक डबल रोटी उधार पकड़ा दी। हमें लगा भिखारी हो गए हम।
कई आलतू-फालतू सवाल ज़हन में उठ रहा है कि हम जैसे शरीफ़ गरीब के लिए यह नोट नहीं छापा गया है। बड़े अमीरों के लिए है। छोटे से ब्रीफ़केस में पहले से दुगनी रकम एक बार में कैरी कर लो। बड़े लोग बड़ी बातें। फ़िलहाल तो स्टेटस सिम्बल है हमारे लिए। आगे से बोरा ले जाएंगे और बैंक वाले से कह देंगे कि पांच-दस के सिक्कों की रेजगारी दे दो। घंटा-आध घंटा बर्बाद कर देंगे गिनने में, लेकिन २००० हज़ार वाला मंज़ूर नहीं है। यों नहीं टूटने के कारण हम तो पूर्व में १००० वाले से भी भिनकते थे। फिर डर कहीं नकली न हो? और कहीं २००० वाला नकली निकला तो डबल चूना। ना बाबा न। एक बार हम हज़ार नोट के चक्कर में फंस चुके हैं। पूरे पांच नोट थे। बाज़ार पहुंचे तब पता चला। बड़ी मुश्किल से बैंक वाला माना। वो भी तब जब हमने शोर मचाया कि इस बैंक में नकली नोट मिलते हैं। हंगामा खड़ा हो गया। मैनेजर केबिन से बाहर आ गया। बैंक की इज़्ज़त दांव पर लगी देख उसने हस्तक्षेप किया तब नोट बदली हुए।

लीजिये अब प्लास्टिक के नोट की बात हो रही है। भक्त लोग बता रहे हैं कि कई विकसित देशों में प्लास्टिक के पतले नोट चलते हैं। इनसे बहुत फायदा है। क्लोनिंग नहीं हो पाती है। पुड़िया बना कर जेब में नहीं रखा जा सकता। फुरहैरी बना कर कान से मैल भी नहीं निकाली जा सकती। भीग जाए तो भी ग़म नहीं। हमें भी यह आईडिया अच्छा लगा।

लेकिन कुछ दिक्कतें हैं। हम तो आम तौर पर पर्स में मोड़ कर रूपए रखते हैं। प्लास्टिक नोट को पतलून में रखने की बजाये ऊपर शर्ट की जेब में रखना होगा। दरजी से नोट के साईज़ की जेबें शर्ट के बाहर और शर्ट के भीतर भी लगवानी पड़ेंगी। पुराने ज़माने के लालाजी लोग बनियान के भीतर चोर जेब बनवाते थे। जेबकतरों से बचे रहते थे और मंगतों से भी। 
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Published in Prabhat Khabar dated 14 Nov 2016
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