Monday, July 20, 2015

बेमिसाल नसीरुद्दीन शाह!

-वीर विनोद छाबड़ा
नसीरुद्दीन के ६५ वर्ष पूर्ण करने पर।
१९७८ में लखनऊ में शशिकपूर की 'जुनून' की शूटिंग चल रही थी। वहीं मेरी नसीरुद्दीन शाह से पहली और आख़िरी मुलाक़ात हुई। बढ़ी हुई घनी काली और लंबी दाढ़ी। एकबारगी मैं उन्हें पहचान नहीं पाया। ज्यादा लोग पहचानते भी नहीं थे उन्हें उन दिनों। मैंने एक इंटरव्यू किया। लेकिन छप नहीं पाया। कारण, नसीर ने वादा करके भी अपनी तस्वीर नहीं दी और मैं संपादकजी दे नहीं पाया।

मुझे याद है कि जब मैंने नसीर को बताया कि 'माधुरी' में राही मासूस रज़ा का एक आर्टिकल आया है। उसमें राही ने आपकी बहुत तारीफ़ की है। दिलीप कुमार के बराबर ला खड़ा किया है।
इस पर नसीर मुस्कुराये थे। उनके चेहरे पर गर्व था मगर घमंड नहीं। धीरे से बोले - मैंने भी सुना है। लेकिन कहां युसूफ साहब और कहां मैं।
उस दौर में तब तक श्याम बेनेगल की मंथन, निशांत और भूमिका में नसीर दिखे थे। अच्छी अदाकारी के बावजूद उन्हें पहचानने वाले कम थे। जिसने भी राही को पढ़ा, हंस दिया।
लेकिन साल गुज़रते-गुज़रते नसीर ने साईं परांजपे की 'स्पर्श' में जब बेस्ट एक्टर का नेशनल अवार्ड जीता तो राही साहब का कथन सच होते दिखा। इसमें उन्होंने एक ऐसे खुद्दार इंसान की भूमिका अदा की थी जो देख नहीं सकता था। नसीर ने यह अवार्ड १९८४ में 'पार' के लिए और २००४ में 'इक़बाल' के लिए फिर जीता। १९८१, १९८२ और १९८४ में क्रमशः आक्रोश, चक्र और मासूम के लिए बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड हासिल किया। नसीर रिकॉर्ड १५ बार भिन्न-भिन्न किरदारों के लिए नॉमिनेट हुए। भारत सरकार ने उन्हें १९८७ में पद्मश्री और २००३ में पद्मभूषण के लिए नवाज़ा। अलावा इसके अनेक नेशनल/इंटरनेशनल अवार्ड उनकी झोली में गिरे।
जब कामयाबी सर पर चढ़ती है तो लाज़िमी है कि जाने-अनजाने हंगामा खड़े करने वाले बयान मुंह से निकल ही जाते हैं। १९८५ में एक इंटरव्यू में नसीर ने कह दिया कि वो दिलीप कुमार को बड़ा आर्टिस्ट नहीं मानते। बात ज्यादा तूल नहीं पकड़ी। बस थोड़ी-बहुत सुगबुगाहट हुई।
उन दिनों सुभाष घई 'कर्मा' की कास्ट फाइनल कर रहे थे। दिलीप कुमार के साथ में जैकी श्राफ और अनिल कपूर भी थे। एक जगह खाली थी। वैसे, सुना है नसीर के बयान के बाद वो जगह बनाई गई। दिलीप के कहने पर नसीर को न्यौता दिया गया। देखना है बाज़ुओं में कितना ज़ोर है। ज़बरदस्त हंगामा हुआ। सारा फोकस दिलीप कुमार बनाम नसीर हो गया। देखें नसीर कैसे साबित करते हैं कि दिलीप कुमार बड़े नहीं हैं।

लेकिन फ़िल्म के ख़त्म होते-होते नसीर ने बयान बदल दिया - युसूफ भाई बहुत बड़े आर्टिस्ट हैं।
इसी साल मार्च में नसीर ने राजनीति को परे रखते भारत-पाकिस्तान के अवाम के मज़बूत रिश्तों पर बयान दिया। शिव सेना ने इस बयान का प्रतिरोध किया था।
बहरहाल नसीरुद्दीन उन विरल अदाकारों में हैं जो किरदार के साथ एकाकार हो जाते हैं। अगर मुझे वोट करने को कहा जाए तो मैं उन्हें आल टाइम टॉप पांच में ज़रूर रखना चाहूंगा।
लेकिन त्रासदी यह है कि बावजूद इसके कि नसीर बेहतरीन अदाकार हैं, कोई-कोई उन्हें सदी के महानायक से भी बेहतर बताता है, वो अपनी परफॉरमेंस के दम पर फ़िल्म को लिफ़्ट भी कर सकते हैं, ज़र्रे को आफ़ताब भी बना सकते हैं, लेकिन अफ़सोस कि बॉक्स ऑफिस पर फ़िल्म को कामयाबी नहीं दिला सकते। दर्शक उनके नाम पर खिंचा चला नहीं आ सकता। 

Sunday, July 19, 2015

और अब ब्रह्मलीन हुए डा० बशेषर प्रदीप भी।

- वीर विनोद छाबड़ा  
बड़े दुःख के साथ इत्तला दे रहा हूं उर्दू इल्मो-अदब की दुनिया के मशहूर अफ़सानानिगार डा० बशेषर प्रदीप अब इस दुनिया में नहीं हैं। आज तड़के चार बजे  नींद में ही वो ब्रह्मलीन हो गए।
प्रदीप साहब उर्दू अदब की दुनिया में किसी परिचय का  मोहताज नहीं हैं। उर्दू में १४ और हिंदी में ०३ कहानी संग्रह अब तक छप चुके हैं। आत्मकथा 'चनाब से गोमती तक' का पहला हिस्सा आ चुका और दूसरा हिस्सा बस आने को तैयार है। आध्यात्म की दुनिया के परमहंस श्री श्री योगानंद जी की अंग्रेज़ी में प्रकाशित ऑटोबायोग्राफी का उर्दू अनुवाद (५६६ सफ़े) भी किया। उनके अफ़साने भारत के अनेक ज़बानों में ट्रांसलेट हुए हैं, देश-विदेश की अनेक सरकारों और अकादमियों ने कई बार उन्हें पुरुस्कृत किया है।

उत्तर प्रदेश उर्दू अकादेमी कौंसिल और एक्सिक्यूटिव कमेटी के मेंबर रहे हैं। प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन यूपी (उर्दू सेक्शन) के प्रेजिडेंट भी रहे हैं। डायरेक्टर, रिसर्च डेवलपमेंट, यूपी पीडब्लूडी की पोस्ट से रिटायर हुए मुद्दत गुज़र चुकी है।
अभी पिछली ०६ जुलाई को नब्बे साल के हुए थे प्रदीप साहब। दिली ख्वाईश कि उन्हें रूबरू होकर ज़िंदगी के इस अहम पड़ाव को पार करने की मुबारक़ दूं। लेकिन मैं आज-कल करता रह गया। वक़्त किसी का इंतज़ार नहीं करता। हसरत दिल में ही रह गयी।
आज सुबह उनके इंतकाल की ख़बर मिली तो बड़ी तक़लीफ़ हुई। फौरन उनके घर पहुंचा। प्रदीप साहब के दर्शन तो हुए, मगर सिर्फ़ जिस्म के। आत्मा तो ब्रह्मलीन हो चुकी थी। 
सन १९२५ को चिन्योट (अब पाकिस्तान) में जन्मे प्रदीप साहब कल तक ज़िंदगी की सबसे लंबी पारी खेल रहे एकलौते गैर-मुस्लिम उर्दू अफ़सानानिगार थे।
मैं प्रदीप साहब को प्रदीप चाचाजी कहता था। जबसे मैंने होश संभाला है तब से मैं उनको जानता हूं । वो मेरे पिताजी (स्वर्गीय रामलाल) के अज़ीज़ दोस्तों में थे। पिछले एक साल में उनसे कई बार मिला।
वो बहुत इमोशनल शख़्स थे। बात करते-करते वो सालों पीछे की दुनिया में खो जाते। उन पलों को याद करते, जिनमे सुख और दुःख दोनों होते। उनकी आंख से बरबस आंसू टपकने लगते। ज़िंदगी में कई कठिन दौर से गुज़रे। ज़िंदगी के आख़िर में भी बेहद कठिन दौर देखा जब पिछले साल जून में उनका बड़ा बेटा भुकेश उर्फ़ टोनी गुज़र गया। वो बताते थे - मैंने उसे हर चरण में बड़ा होते देखा।
मुझे याद है जब मैं अफ़सोस करने  गया था तो उन्हें बिलकुल टूटा हुआ पाया। मुझे फटी-फटी आंखों से देखते हुए बोले थे - अब तो जिस्म के साथ-साथ आंसू भी सूख चुके हैं।
मैं खामोश था। सिर्फ़ उनको देख और सुन रहा था।
वो बता रहे थे - उस दिन मुझे सुबह-सुबह छोटे बेटे ने बताया कि टोनी की डेथ हो गयी है। मैं बहुत देर तक उसका मुंह देखता रहा था। जड़ हो गया था। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि डेथ का मतलब क्या होता है.मुझे झिंझोड़ कर ज़िंदगी में वापस लाया गया था। तुम अंदाज़ा लगा सकते हो उस बाप के दिल पर क्या गुज़री होगी जिसके सामने उसके बेटे की लाश पड़ी हो। इन बूढ़े कंधों ने कैसे कंधा दिया होगा। मेरी आध्यात्मिक शक्ति ने मुझे हिम्मत दी। वरना ईश्वर किसी बाप को ऐसा दिन न दिखाए
मैं जब उनसे मिलता था तो मुझे लगता था वो उस ट्रॉमा से कभी बाहर नहीं आ पाये।
वो अक़्सर बड़ी तक़लीफ़ से शिक़ायत करते थे - अब कोई अदीब नहीं आता यहां। तुम भी कभी-कभी ही आते हो.और हां, तुमने मेरी आत्मकथा 'चनाब से गोमती तक' पढ़ी कि नहीं?
मैं उन्हें बताता था - जी, दो बार पढ़ चुका हूं। अब दूसरे पार्ट का इंतज़ार है। कहानी संग्रह 'जलती बुझती आंखें' भी तकरीबन पूरा पढ़ चुका  हूं।
फिर वो पूछते थे - यह उर्दू की दुनिया वाले क्या कर रहे हैं? न ख़ैर और न ख़बर। हिंदी वाले तो कभी कभार ख़बर ले लेते हैं। अभी कुछ दिन पहले वीरेंद्र यादव और राकेश आये थे। मेरी किताब 'चनाब से गोमती तक' वीरेंद्र को दे थी न।
मुझे लगता था कि उर्दू की दुनिया को उन्होंने जितना दिया, उर्दू की दुनिया ने उतना नहीं दिया। उन्हें मलाल रहा कि आख़िरी सफ़र के दौरान, चंद लोगो को छोड़ कर, कोई कोई पूछने वाला नहीं रहा। सबने उन्हें भुला दिया।
मुझे देख कर उन्हें तसल्ली मिलती थी। उन्हें मेरे पिता की और उनके साथ गुज़ारे लाखों पल याद आते थे। वो बताते थे - रामलाल साहब से मैं १५ अक्टूबर की शाम को मिला था। चलने लगा तो मेरे मना करने के बावजूद वो मुझे थोड़ी दूर तक छोड़ने भी आये। उसी रात मैं बाहर चला गया। अगले दिन सुबह मुझे ख़बर मिली कि रामलाल साहब नहीं रहे। वो मेरे आदर्श थे। मलाल रहा कि उन्हें कंधा नहीं दे पाया। मेरी जगह टोनी गया था।

Saturday, July 18, 2015

टेम्पो वाला - तेरी मां, मेरी मां।

-वीर विनोद छाबड़ा
आमतौर पर आम आदमी की निगाह में ऑटो-टेम्पो वालों का इम्प्रैशन ख़राब ही होता है।
काफ़ी हद तक वाज़िब भी है। इनकी मर्ज़ी है, जायेंगे। नहीं मर्ज़ी तो लाख मिन्नत करो, नहीं जाएंगे। यह चाहें तो ट्रेन पकड़ लें और अगर नहीं चाहें तो - गड्डी छूटदी है ते छुट्ट जाये।

हमारे लखनऊ में किराये को लेकर रोज़ाना की चिक-चिक तो आम है। मगर सब ऑटो-टेम्पो वाले ऐसे नहीं होते। तादाद में पांच-दस प्रतिशत ही सही। इनके लिए आराम है हराम। यात्री भगवान है। ईमानदारी की कमाई ही मेवा है। इसी में बरकत है। आज एक मुसाफ़िर और ऑटो वाले को झगड़ते देखा तो बरसों पहले की एक घटना याद आ गयी। 

उस दिन जोर की बारिश अभी बंद हुई ही थी। लेकिन हलकी बूंदा-बांदी जारी थी। रात एक बजे का वक़्त था। बत्ती गायब थी।
उन दिनों इन्वर्टर नहीं होते थे। लालटेन और मोमबत्ती से काम चल रहा था।
हमारे पड़ोसी को हरदोई से फोन आया कि मां सख्त बीमार है। कैसरबाग बस अड्डे पहुंचना था। मैंने स्कूटर उठाया। लेकिन ऐन मौके पर धोखा दे गया। लाख कोशिश की, मगर स्टार्ट नहीं हुआ। ऐसी विपदा की घड़ी में क्या करूं?
पास में ही मुंशी पुलिया पर टेम्पो स्टैंड था। उन दिनों ऑटो नहीं टेम्पो होता था। मुसाफिरों का दिन-रात आना-जाना रहता था।
हम पानी-कीचड़ से लथपथ होते हुए स्टैंड पर पहुंचे।
लेकिन रोज़ की तरह आज भीड़ नहीं थी। बामुश्किल एक टेम्पो वाला दिखा। ड्राइवर टेम्पो में आराम से पसरा सो रहा था। उसे उठाया।
लेकिन उसने कहीं भी जाने से इंकार कर दिया। बहुत चिरौरी की। मुंह-मांगी रकम की पेशकश की। मगर वो निष्ठुर नहीं माना।
आख़िर में विपदा का ब्यौरा दिया। मां की बीमारी का हवाला दिया। वो फौरन तैयार हो गया - पहले बताना था न।

Friday, July 17, 2015

याद आया ज़माना खटियन का।

-वीर विनोद छाबड़ा
याद आता है चारपाई जा ज़माना। इसे खाट, खटिया, खटोला भी कहा गया। पंजाब में छोटे साइज़ को मंझी और बड़े को मंझा। एक ही आइटम। अलग-अलग नाम। थोड़ा साइज़ में भी फ़र्क।
वैसे नाम में क्या रखा है? राम कहो या रहीम। चारपाई कहो या खाट। सोना ही तो है। अगर नींद आ जाये तो सपने तो एक से ही आने हैं। मुल्ला भी सोये इस पर और पंडित भी। क्षत्रिय भी सोये और छोटी जात का भी। अमीर भी सोये और गरीब भी।

हाई-वे के किनारे ढाबों पर भी बड़ी तादाद में देखे हैं। बीच में पटरा रख कर ट्रक ड्राइवर और मुसाफ़िर खाना खाते हुए देखे हैं। एक बार तो मैंने भी खाया है। पालथी मार कर बैठे थे। कई लोग पसरे हुए खर्राटा मारते हुये भी दिखे।
इधर पिछले पांच साल से हाई-वे पर नहीं गया। सुना तो है, ढाबों के सामने अब भी बड़ी बड़ी चारपाइयां बिछी होती हैं। लेकिन साथ ही तख़्त भी आ गए हैं और लोहे के पाइप वाली फोल्डिंग प्लास्टिक रेशे की निवाड़ वाली चारपाइयां भी। च्वॉइस दे दी गई है। चाहे इस पर बैठो या उस पर। 
तीस साल पहले तक तो इनका अपने लखनऊ शहर में भी चलन था। रोज़गार का बड़ा साधन। बाक़ायदा चारपाई बीनने वाले सुबह से शाम तक गली-गली आवाज़ें दिया करते थे - चारपाई बिनवा लो, चारपाई। छोटी-बड़ी मरम्मत भी हो जाया करती थी। कभी-कभी तो पाया ही बदलना पड़ता। हमने अपने कई बड़े-बुज़ुर्गों को कपडे धोने वाला साबुन बनाते और चारपाई भी बिनते भी देखा और साथ में मदद भी की।
चारपाई का वाकई अपना आनंद था। बच्चों का खासतौर पर खूब उछलना याद है। मां का डांटना और ढीले पड़ गए बान को नारियल की रस्सी वाली अर्ज़वाइन से कसना।
माफ़ करना मित्रों याद नहीं आ रहे इसमें प्रयोग किये जाने वाले आइटम और उनके नाम। इतना ज़रूर याद है कि सुतली से बुनी चारपाई ज्यादा मानी जाती थी। यों मुझे तो ढीली-ढाली और जगह-जगह से टूट गए बान वाली खटिया में सोने में बेहद आनंद आया। झूले जैसा आनंद मिला। कहावत भी थी भूख न देखे सूखी रोटी और नींद न देखे टूटी खाट।
खटिया पर सोने वालों की कमर अक्सर दुखा करती थी। डॉक्टर उन्हें ज़मीन या तख़्त पर सोने की सलाह दिया करते थे।
आलमबाग और चारबाग़ वाले घरों की छतें मिली हुईं थीं। गर्मियों में छत पर दूर दूर तक चारपाइयों का बिछा होने का नज़ारा याद आ रहा है। रात में बरसात होने पर मचती थी भगदड़।अपनी-अपनी चारपाई सुरक्षित रखने की होड़ मच जाती।
यह भी याद है भरी दोपहरिया में चारपाई को उल्टा लिटा कर उसके पाये ज़मीन पर पटकना। हर बार ढेर खटमल निकलते जिन्हें हम चप्पल से कूट देते। रात भर हम लोगों को चूसा हुए लाल लाल खून निकलता। कई बार चारपाई के पाये की चूलों गर्म गर्म पानी डाल देते। उससे भी ढेर खटमल बाहर आ जाते। कोई खटमल मार केमिकल भी याद आता है।  
हमें याद आता है ४२ साल पुरानी फिल्म 'छुपा रुस्तम' का किशोर की आवाज़ में यह गाना - धीरे से जाना खटियन में ओ खटमलऔर २१ साल पुराना राजा बाबू का यह वाहियात गाना भी - सरकाय ले खटिया के जाड़ा लगे

Wednesday, July 15, 2015

गधे का क्रियाकर्म।

-वीर विनोद छाबड़ा
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो भारत में शायद ही कोई ऐसा नागरिक हो जिसे नगर निगम ने दुल्लती न मारी हो, डंक न मारा हो। मुझे यकीन है कि इनके परिवारीजन भी इनसे दुखी रहते होंगे।
ऐसा ही विचार बत्ती विभाग के बारे में भी है। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं खुद बत्ती विभाग से संबंधित रहा हूं और जब भी बत्ती जाती है खूब जम कर कोसा जाता हूं। 
बहरहाल बात नगर निगम की हो रही है। जनता और उनकी समस्याओं के प्रति इनकी बेरुखी देख कर अफ़सोस होता है। बेसाख्ता मुंह से गाली ही निकलती है।
कभी कभी ऐसा लगता है कि हम जो हाउस टैक्स देते हैं, वो जैसे उनके वेतन के लिए है।
लेकिन कभी-कभी बाज़ महिला संगठन इनकी ख़बर झाड़ू हिला-हिला बड़े करीने से लेती हैं।
और कभी कोई तेज़ और हाज़िर जवाब मोहतरमा तो टेलीफोन पर ही इनकी बोलती बंद कर देती है।
अरसा पहले एक पढ़ा हुआ किस्सा याद आ रहा है।
हुआ यों कि ओवरलोड और भूखे होने के कारण एक गधे ने एक मोहतरमा के घर के सामने दम तोड़ दिया।

एक अच्छी नागरिक होने के फ़र्ज़ से पाबंद मोहतरमा ने नगर निगम में फ़ोन मिलाया।
बामुश्किल तमाम फ़ोन उठा।
उन्होंने संबंधित कर्मी को सूचित किया कि उनके घर के सामने एक गधा परलोक सिधार गया है।
निगम कर्मी चिर-परिचित बेरुखी से चीखा - तो मैं क्या करूं? क्या निगम ने गधों के क्रियाकर्म करने का ठेका ले रखा है? आपके घर के सामने गधा मरा है तो क्रियाकर्म भी आप ही को करना होगा।
मोहतरमा समझ गयी कि ये नाशुक्रा यों नहीं मानेगा। इसका ईलाज दूसरे तरीके से करना होगा। यों भी उसके मां-बाप ने फ़र्ज़ से पीछे न रहने का इल्म दिया था।
लिहाज़ा मोहतरमा ने बिना वक़्त गंवाए फौरन जवाब दिया -गधे के क्रियाकर्म से मुझे कोई इंकार नहीं है। वो तो मैं करूंगी ही। और यह मेरा फ़र्ज़ भी है। लेकिन ज़रूरी यह भी है कि गधे के नाते-रिश्तेदारों को भी खबर कर दूं। जल्दी पहुंचिए। सबसे नज़दीकी रिश्तेदार होने के नाते मुखाग्नि आखिर आपके मुखिया को ही तो देनी है। चैनल और प्रिंट मीडिया के लोग भी आ चुके हैं। बस अब आपका ही इंतज़ार है।
नतीजा ये हुआ कि दस मिनट के भीतर नगर निगम की मरे पशु ढोने वाली लारी आई और उस दिवंगत गधे को ससम्मान उठा कर ले गयी।
नोट - विद्वान लोग सही फ़रमाते हैं कि हर वक़्त गांधीगिरी से काम नहीं चलता। कभी-कभी बाज़ टेढ़ों से काम लेने के लिए उंगली टेढ़ी करके घुमानी पड़ती है।
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15-07-2015 Mob 7505663626
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Tuesday, July 14, 2015

उत्तर प्रदेश में यह हो क्या रहा है?

-वीर विनोद छाबड़ा
नेता जी, मुझे आपके दो रूप नज़र आते हैं। एक तरफ़ तो आप दानिशदां, अदीबों-साहित्यकारों, शायरों-कवियों और पत्रकारों के साथ खड़े नज़र आते हैं। उन्हें यश भारती से मालामाल करते हैं। उनकी ग़ुरबत आपसे बर्दाश्त नहीं होती है। गाहे बगाहे सबकी मदद करते रहते हैं। कोई आपके द्वार से खाली हाथ नहीं लौटता। ज़रूरत पड़ती है तो किसी बीमार को देखने उसके घर या अस्पताल चले जाते हैं। दुःख में भी साथ दीखते हैं और सुख में भी। दोस्तों के दोस्त हैं। विपक्ष से भी दोस्ती निभाते हैं, सामने के दरवाज़े से।

लगता है आपसे बड़ा मसीहा कोई नहीं। सांप्रदायिकता के विरुद्ध मोर्चा आपने बरसों पहले खोला तो आज तक अडिग हैं अपनी स्टैंड पर।
यह आपका पॉजिटिव पक्ष है। जिस पर सब निहाल हैं।
लेकिन परली तरफ झांकते हैं तो निराशा होती है। धक्का लगता है। यह कौन से रूप है आपका। अपने चेलों के बहकावे में आ जाते हैं आप। तहकीकात नहीं करते कि हक़ीक़त क्या है।
अभी थोड़े दिन पहले आपने एक आईपीएस को हड़का दिया। किस वज़ह से और किस अधिकार से? आपके पास कोई वैधानिक पद नहीं है। माना कि वो आईपीएस और उसकी पत्नी आये दिन कोई न कोई आरटीआई लगाये फिरते हैं या कोई मोर्चा खोले रखते हैं। इससे सरकार और उसके मंत्रियों-संत्रियों की नाक में दम हुआ करता है।
अरे सर, करने दो। जितना छेड़ेंगे उतनी हवा मिलेगी। आग ज्यादा फैलेगी। अब क्या मिला? वो आईपीएस चला गया थाने में रिपोर्ट लिखवाने। आपने उसे सस्पैंड करा दिया।
बढ़त किसे मिली? आपका तो नुकसान हो गया। जनता में धारणा क्या बनी? आपकी छवि ही ख़राब हुई न। लोग बहनजी का शासन याद कर रहे हैं - कम से कम गुंडागर्दी पर तो कंट्रोल था।
और मीडिया तो आपके और आपके सपुत्र के ख़राब लॉ एंड आर्डर वाले कुशासन के पीछे हाथ धो कर पड़ा ही है। गुजरात में क्या हो रहा और बंगाल में क्या हो रहा है? कर्णाटक और तमिलनाडु में तो मानों गुंडागर्दी है ही नहीं। हिमाचल और उत्तरांचल में सब ठीक-ठाक है? कभी कोई रेप या लूट या हत्या वहां नहीं होती? महाराष्ट्र और एमपी तो बिलकुल साफ़-सुथरे हैं! व्यापमं घोटाले को दबाने के लिए जितनी भी हत्याएं हुई हैं वो सब विपक्ष की साज़िश है। एमपी का गौरव घटाने की चाल है। मीडिया बहुत मुखर नहीं है उनके प्रति।
आप और आपके बेटे की सरकार प्रतिरोध भी नहीं कर पा रहे हैं। प्रदेश के विकास की जब भी बात होती है तो लॉ एंड आर्डर को लेकर कोई न कोई गुल-गपाड़ा हो जाता है।

Sunday, July 12, 2015

अखिलेश के बहाने वर्तमान चुनौती के परिप्रेक्ष्य में साहित्यिक पत्रकारिता पर बात/ एक रिपोर्ट।

-वीर विनोद छाबड़ा
१२ जुलाई को इप्टा की ओर से राजकमल प्रकाशन के सहयोग से लखनऊ में एक समारोह हुआ।
प्रथम सत्र कथाकार, संपादक तद्भव पर केंद्रित 'बनास जन' पत्रिका के लोकार्पण पर केंद्रित रहा। सुप्रसिद्ध पत्रिका 'बनास जन' के संपादक पल्लव हैं। इसका वर्तमान अंक तद्भव के संपादक और कथाकार पर केंद्रित है जिसके संपादक राजीव हैं। 
अध्यक्षता रवींद्र वर्मा ने की। मंच पर रूप रेखा वर्मा, अखिलेश, शिवमूर्ति, राजीव, पल्लव और बद्री नारायण उपस्थित रहे।

सुप्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति जी कहा - अब तक अखिलेश तद्भव के माध्यम से सबको सामने लाते रहे हैं और आज 'बनास जन' के संपादक अखिलेश को दुनिया के सामने लाये हैं जिसके लिए वो बधाई के पात्र हैं।
'बनास जनके अतिथि संपादक राजीव ने अखिलेश को चुनने का कारण बताया - आज के भूमंडलीकरण के दौर में अखिलेश की कहानियां जनमानस को छूती हैं। संप्रेषण की जटिलता की चुनौतियों को स्वीकार करती हैं। उन्हें सहज बनाती हैं।
कवि बद्री नारायण महसूस करते हैं कि आज जब प्रेरणायें और स्त्रोत ख़त्म हो चुके हैं ऐसे में बौद्धिक उछाल के साथ अखिलेश सामने आये। अखिलेश ने अपनी रचना में  भावनात्मक न्यूक्लस को उभारा।
वरिष्ठ कथाकार रवींद्र वर्मा ने अखिलेश की रचनाओं में भाषा और कथ्य को महत्वपूर्ण पाया। उन्होंने अभिव्यक्ति के लिए भाषा की ज़रूरत पर भी बल दिया। इस सत्र का संचालन इप्टा के राष्ट्रीय सचिव राकेश ने किया।

दूसरे सत्र में 'वर्तमान चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में साहित्यिक पत्रकारिता' विषय पर सेमिनार हुआ।
इसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार गिरीश चंद्र श्रीवास्तव ने की। मंच पर रवींद्र वर्मा, वीरेंद्र यादव, शैलेंद्र सागर, विजय राय और पल्लव भी उपस्थित रहे।

सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव की राय में आज के दौर में यह विषय अत्यधिक चिंतन का है। उन्होंने याद दिलाया कि साहित्यिक पत्रकारिता की चुनौतियां उन्नीसवीं शताब्दी में भी थी और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भी। आज इक्कीसवीं सदी में यह घोषित चुनौती है। राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र में स्थापित किया जा रहा है। सौ साल पीछे जाने पर पाते हैं कि इस धारणा के विरुद्ध आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' में 'देश की बात' पुस्तक पर टिप्पणी करते हुए लिखा था लगान बंद हो जाए तो सारा तंत्र फेल हो जाये। उस समय रूस में क्रांति नहीं हुए थी।
कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म भारत में नहीं हुआ था। मगर हमारी साहित्यिक पत्रकारिता चिंतित थी। उसका लंबा इतिहास रहा है। आज से १०० साल पहले जून १९१५ में गणेश शंकर विद्यार्थी ने हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना से मुठभेड़ की थी। उन्होंने कहा था ऐसी कल्पना करने वाले राष्ट्र का अर्थ ही नहीं समझते। हिन्दू राष्ट्र कभी बन ही नहीं सकता। १९२२ में माधवी पत्रिका में 'ईश्वर का बहिष्कार' विषय पर लेख छपे। बहुत विरोध हुआ। लेकिन पत्रिका चलती रही। १९३८ में यशपाल जी की 'विप्लव' पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं को पढ़ने से ज्ञात होता है की आज़ादी के आंदोलन में कांग्रेस और मुस्लिम लीग की क्या भूमिकाएं थीं। प्रेमचंद ने 'हंस' में भीमराव अंबेडकर की तस्वीर मुखपृष्ठ पर छाप कर उनकी भूमिका को स्वीकार किया था। उस दौर में समाजवादी और साम्यवादी विचारधारा से प्रेरणा लेकर सोच निर्धारित की जाती थी। आज विचारहीनता है। १९९२ में बाबरी मस्जिद के ढहाये जाने से सामाजिक समरसता के ढांचे को धक्का लगा और भूमंडलीकरण ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को पीछे धकेल दिया। धनिक तंत्र की स्थापना हो गई। सामाजिक समरसता और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर लेखक बंटा हुआ है। लूट मची है। अपराधी एक एक करके छूटे जा रहे हैं। बुद्धिजीवी बंद किये जा रहे हैं या हाशिये पर धकेले जा रहे हैं। सोच बनाने वाली सभी स्वायत्तशासी संस्थाओं के शीर्ष पर आरएसएस की सोच के लोग बैठाये जा रहे हैं। लेखक कहने के लिए मजबूर हो गया है कि उसके अंदर का लेखक मर गया है। नवीनतन उदाहरण फ़िल्म इंस्टीट्यूट का है। शीर्ष पर बैठाये व्यक्ति का पुरज़ोर विरोध हो रहा है। लेकिन केंद्र पुनर्विचार करने के बजाये धौंसिया रहा है। फैसला नहीं बदला जाएगा। इमरजेंसी के दौरान पहल जैसी लघु पत्रिका ने आवाज़ उठाई थी। आज प्रगतिशील लेखकों का अधिग्रहण किया जा रहा है। उनका मुखपत्र सामाजिक समरसता की बात करने वाले डॉ अंबेडकर को हिंदू विचारधारा के समर्थक के रूप में प्रस्तुत करता और पेरियार को हिंदू विरोधी। ऐसे में लघु पत्रिकाओं से साहित्यिक पत्रकारिता की ज़रूरत है। अपना इतिहास को खंगालें। जनतंत्र को बचाने के लिए एकजुट होकर आंदोलनकारी स्वरुप अपनाना पड़ेगा। कॉरपोरेट से स्वयं को बचाते हुए अभिव्यक्ति का भरपूर इस्तेमाल करने और आक्रामकता की ज़रूरत है।
कथाक्रम के संपादक और कथाकार शैलेंद्र सागर इतिहास में झांकने पर पाते हैं कि साहित्यिक पत्रिकायें पढ़ी जाती थीं। कुछ साल पहले तक 'धर्मयुग' और 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' भले ही पूर्णतया साहित्यिक पत्रिकाएं नहीं थीं परंतु साहित्य को पढ़ने के लिए प्रेरित करती थीं। सिर्फ़ साहित्यकार ही नहीं, समाज का हर बुद्धिजीवी चिंतक था। हर दौर का शासक अपने काडर के लोगों को प्रमोट करता है। मगर आज दिक्कत यह है कि काडर के निकृष्ट लोगों को आगे बढ़ाया जा रहा है और अच्छे लोगों को पीछे धकेला जा रहा है। आज की, कल की और उससे भी आने कल की पीढ़ी किस प्रकार का साहित्य और हिंदी पढ़ रही है यह चिंता का विषय है। चिंतन करना है कि साहित्य के प्रति कैसे लोगों को आकर्षित करना है। साहित्य पत्रिकायें आजकल जिस प्रकार के मुद्दों और विमर्श को उठा रही हैं उसमें किसान आंदोलन नहीं है, आदिवासी जीवन नहीं है। आत्महत्या के कारण नहीं बताये जा रहे हैं। नई पत्रिकाये आ रही हैं, यह शुभ संकेत है। मगर निगेटिव रचनायें छप रहीं हैं। आज से कुछ साल पहले तक यह संभव ही नहीं था। इसका असर यह है कि गुणवत्ता प्रभावित हुई है। लेखक एक्टिविस्ट की भूमिका में नहीं है। यही बात साहित्यक पत्रकारिता के बारे में भी कही जा सकती है।
'लमही' के संपादक विजय राय ने बताया कि आज़ादी पूर्व की तत्कालीन पत्रकारिता पर कहा गया था कि कुछ समय बाद यहां मशीन होगी। व्यक्ति भी वैसा ही होगा। खिंची हुई लकीर पर चलना रह जाएगा। आज की पत्रकारिता भिन्न नहीं है।
साहित्य हड़बड़ी में लिखा जा रहा है। ई-बुक्स का दौर है। नई तकनीक है। पुराने सामाजिक मूल्य ध्वस्त हो रहे हैं। नए परिवेश स्थापित हो रहे हैं। पत्रकारिता मनोरंजन हो गयी है। मीडिया के नए संसाधन, नयी तकनीक, चैनल और यांत्रिक विकास है। दो राय नहीं कि पुरानी रूढ़ियां को  इसने तोड़ा है।
मगर भाषा पर बुरा असर डाला है। पत्रकारिता का उद्देश्य यह भी है कि अपने वर्तमान को इतिहास से परिचित करायें। मगर उपेक्षा की जा रही है। आज पुस्तक मेले साहित्य को प्रचारित करने की महती भूमिका निभा रहे हैं। सोशल मीडिया की विश्वसनीयता सीमित है। वो लुग्दी साहित्य को फोकस करते हैं। और जनसामान्य तक नहीं पहुंच पाया है। मीडिया चैनल महज ५०० शब्दों के शब्दकोष पर चल रहे हैं। लघु पत्रिकाओं के संपादक मिल-जुल कर प्रतिरोध करें।

दिल्ली से आये अंग्रेज़ी शिक्षक डॉ आशुतोष मोहन का विचार था कि पत्रिका चाहे छोटी हो या बड़ी, अगर उसका उसका लक्ष्य साफ़ हो, फ़ोकस हो तो वार खाली नहीं जा सकता। अंग्रेजी में तो इसका सर्वथा अभाव है। उसका ज्ञान चेतन भगत तक सीमित है। इस पर उसे गर्व भी है। इसका मतलब है कि कहीं कुछ कमी है। अच्छा और जागरूक साहित्य क्या होता है, यह बताने का माध्यम आज नहीं है। ज़रूरत अच्छी और इंफार्मेटिव पत्रिकाओं की है।
'बनास जन' के संपादक पल्लव ने बताया कि एक समय था जब वह देश की सारी समस्याओं के लिए आरक्षण और अंबेडकर को ज़िम्मेदार मानते थे। लेकिन एक पत्रिका में उन्होंने गीता पर डॉ अंबेडकर का एक लेख पढ़ा। उनकी डॉ अंबेडकर के बारे में धारणा ही बदल गयी। पत्रिका एक ऐसी शक्ति है जो पाठक का दिमाग ही बदलने की शक्ति रखती है। उन्होंने बताया कि लखनऊ में एक चौराहे पर महाराणा प्रताप की मूर्ति देख चित्तौड़गढ़ निवासी होने पर उन्हें गर्व हुआ। लेकिन यह पढ़ कर दुःख हुआ कि उन्हें हिंदू शौर्य का सूर्य माना गया है। शायद लोगों को यह नहीं मालूम कि हल्दी घाटी की लड़ाई में महाराणा प्रताप का सेनापति एक मुस्लिम था और अकबर का सेनापति हिंदू था। यह न पढ़ने का परिणाम है। एक बार अपने एक भाषण में नेहरू ने महाराणा प्रताप को बहुत ऊंचा स्थान देते हुए कहा था कि बाबर आक्रमणकारी था, लेकिन अकबर यही पैदा हुआ और यहीं रह गया। बाज़ारवादी शक्तियों ने हमारी सूची ख़त्म कर अपनी स्थापित कर दी है। वही तय कर रही हैं कि हमें क्या खाना और पहनना है, और क्या पढ़ना है। साहित्य आदमी को अकलमंद बनाता है। उदारीकरण नहीं, असंस्कृति का दौर है यह। बाज़ारीकरण करेंगे तो साहित्य का नुकसान होगा, यह कहना आसान है। विचारधारा थोपी नहीं जा सकती। ज़रूरत है अपने को कायदे से रेखांकित करें। नए लोगों को ज्यादा से ज्यादा पढ़ना चाहिए। साहित्य में कैरियरवाद से बचें। लघु पत्रिकाओं को खरीदें और पढ़ें।