Monday, September 21, 2015

वीर जवानों से मुन्नी बदनाम हुई तक।

-वीर विनोद छाबड़ा
पास में ही है मैरिज लॉन। आये दिन बैंड बाजा और बारातयह देश है वीर जवानों का....मेरा यार बना है दुल्हा.... आज मेरे यार की शादी है...नागिन
की बीन.ज़मीन पर लेट सांप की तरह रेंगना और फुंफकारना.ले जाएंगे, ले जाएंगे, दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे...और दुल्हन के द्वार पर पहुंचते ही.बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है.
सीना गर्व से फूल जाता है। हमारे साठ-सत्तर के ज़माने से चला आ रहा है।
खासी बहस हुआ करती थी अमां वीर जवानों का क्या मतलब। बारात जा रहे हो कि फ्रंट पर। दुल्हनिया से पूछा नहीं और चल दिए दिल वाले दुल्हनिया लाने। सारे फैसले दुल्हा के चंडू-मंडू ही किये जा रहे है। और फिर नागिन की तरह फुफकारने का काम तो दुल्हन पक्ष का है।
ज़माना कहां से कहां सरक गया। पहले पार्टीशन से आये रिफ्यूजी और उनके घर की महिलायें सड़क पर भांगड़ा डालती और नाचतीं थीं। उन्हें कोसा और  संकीर्ण नज़र से देखा गया। मगर जल्द ही नयी पीढ़ी के दबाव में वो भी सड़क पर उतर आये। बेटे की शादी है। नाते और यार सब मिल कर खूब धमाल करो। छोटे से लेकर बूढ़े तक।  ख़ुशी तो सांझी है। झूम बराबर झूम...।  
पहले सिर्फ़ ढोल था। फिर बैंड-बाजा आया और अब डिस्को। ट्विस्ट गायब हो गया है। मगर भागड़ा है। भले डिस्को स्टाईल में उछलता, कूदता और थिरकता है।
हम भी आड़ा-तिरछा खूब नाचे-कूदे हैं बारातों में। खासतौर पर बुलाये जाते थे।
हमें याद है हमारे नाचने-कूदने का 'दि सैड एंड' अपनी ही बारात में हुआ था। जैसे ही बैंड से धुन निकलीआज मेरे यार की शादी है.उधर हम भूल गए कि हम दूल्हा हैं। घोड़ी से नीचे कूदे। खूब नाचे। बड़े-बुज़ुर्ग बहुत बिगड़े। नाक कटा दी। दूल्हा अपनी शादी में नाचा! फूफा और मौसा तो बामुश्किल खाने के लिये राजी हुए। 
असली ट्रेजडी तो सुहागरात पर हुई थी।
पत्नी गुस्से में फनफनाई और तमतमाई मिली। क्या सोचा था? पत्नी बहुत खुश होगी। कितना फूहड़ डांस था तुम्हारा? हमारी सहेलियां हंस रहीं थी। जीजा जी तो पूरे भालू-बंदर हैं, सड़क छाप नचनिया।
तैंतीस साल गुज़र चुके हैं नाचे हुए। न जाने कितने तूफ़ान आये और गुज़र गए। लेकिन संगीत और नृत्य तो डीएनए में है। सड़क न सही बाथरूम में गुनगुना लेते हैं। पत्नी बाज़ार गयी तो संगीत चैनल खुल गया। थिरकना शुरू। लेकिन पहले की तरह नहीं। आख़िर सिक्सटी प्लस हैं न।
उस दिन एक बारात में लंगोटिया यार मिल गये। खो गए अतीत में। बेसुरी धुन पर कंकड़-पत्थर वाली सड़क पर भी डांस। बड़ी चोटें लगती थीं। मस्त दिन थे वो भी!

Friday, September 18, 2015

अच्छा फल चाहिए तो तारीफ़ ज़रूर करें।

-वीर विनोद छाबड़ा
कल एक मित्र के घर गया। चूंकि जाना बहुत दिनों बाद हुआ था, लिहाज़ा ख़ातिर अच्छी हुई। चाय से पहले भाभी जी ने गर्मागर्म समोसे परोसे।
हमें लगा कल्लू हलवाई की कढ़ाई से निकले हैं अभी-अभी। पूछ ही बैठे। 
भाभी जी पहले थोड़ा लजाईं। फिर गर्व से बोलीं - नहीं, हमने खुद बनाये हैं। खाइये और फिर बताइये कैसे बने हैं? अभी कुछ ही दिन तो पहले बनाने सीखे हैं।
हमने अपनी खानदानी परंपरा का निर्वाह करते हुए सर्वप्रथम अच्छी तरह तस्दीक की - हम पर कोई एक्सपेरिमेंट नहीं हो रहा है?
उन्होंने बताया - कतई नहीं। आज से पहले भी कई बार बन चुके हैं। और आज तो हमसे पहले चार लोग खा भी चुके हैं और सब सही सलामत हैं। उनमें से एक आपके मित्र भी हैं जो साक्षात आपके सम्मुख बैठे हैं।
हमें तसल्ली हुई। हमने एक समोसा खाया। वाकई बहुत अच्छा था। आमतौर पर एक ही समोसा खाता हूं। लेकिन उस दिन भूख ज्यादा लगी थी। दूसरा भी खा लिया - बहुत उम्दा। भाभी लंबी उम्र हो आपकी। साथ में मेरी भी। ताकि आप यूं बनाती रहें और हम खाते रहें। खर्च भी बचता रहे।  
मित्र ने कहा - यार अजीब क्रैक आदमी हो। चटनी नहीं ली और यह टमैटो सॉस तो वैसी की वैसी ही रखी है। कहते हो उम्दा। एक समोसा और लो।
हमने कहा - नहीं बस। हमारा पेट छोटा है। हमें समोसा सादा ही पसंद है। काफी देर गप-शप की और फिर चलने को हुए।  
भाभी जी को बुलवाया।
हमने कहा - भाभी जी, हम धन्यवाद देना तो भूल ही गये। लाजवाब थे समोसे। वाकई।
भाभी जी ने कहा - अगर टमैटो सॉस और चटनी के साथ लेते तो और भी अच्छे लगते।
हमने कहा - लेकिन फिर हम टमैटो सॉस और चटनी के टेस्ट का ही मज़ा लेते। आपके हाथ के हुनर का तो पता ही नहीं चलता।

गणेश जी के चरणों में लोटते-पोटते मूषक जी।

-वीर विनोद छाबड़ा 
गणेश जी के वाहन मूषक के संबंध में जितनी कथाएं प्रचलित हैं, उतनी किसी अन्य देवी-देवता के वाहन के संबंध नहीं।
यह भी एक विचारणीय प्रश्न है कि गणपति पुत्र गजमुख ने वाचाल मूषक को ही अपनी सवारी क्यों चुना? दंतकथाओं की मानें तो मूषक मूलतः एक
आवारा गंधर्व कौंच था। पतिव्रता नारी को अपमानित करने के दंड स्वरूप उसे गणेश जी की सवारी मूषक बनने का श्राप मिला। 
इस संबंध में अग्रेतर एक दिलचस्प दंतकथा प्रचलित है। मूषक जी स्वभाव से बेहद चंचल थे। कभी एक जगह टिक कर न रहना उनके चित्त में रहा। शरारतें करना और दूसरों को नुकसान पहुंचाना उनका नित्य का शगल था।
कभी शंकर जी का आसान कुतर देते तो कभी मां भगवती के वस्त्रों में छेद कर आते। खाने-पीने के सामान में से भी हाथ साफ़ कर देते। कुबेर का ख़जाना भी न छोड़ा उन्होंने। सोने और चांदी के भंडारों को जब-तब आपस में मिला आते। हीरे-जवाहरात के आभूषणों को भी खींच कर संदूक के नीचे डाल देते। और कुबेर ढूंढ़ते रह जाते।
अन्य कई देवी-देवताओं को भी शिकायत थी कि मूषक जी महाराज आये दिन उनके महल में घुसपैठ करते हैं। गणेश जी से उनकी कई बार शिकायत भी की गयी।
 प्रारंभ में गणेश जी इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। लेकिन पानी जब सर से ऊपर निकल गया तो उन्होंने मूषक जी की ज़बरदस्त क्लास ली। मगर मूषक जी न माने।
जो बार-बार समझाने पर भी न माने, उसे एक दिन दंड तो भुगतना ही पड़ता है।
कुबेर के खजाने में उथल-पुथल मचाने के आरोप में एक दिन फंस ही गए मूषक जी । कुबेर जी ने उन्हें रंगे हाथ पकड़ लिया। वो चोरी-चुपके चांदी की पाजेब इधर से उधर कर रहे थे। उन्हें चांदी के पिंजड़े में बंद कर लिया गया। महीने भर का राशन पानी भी रख दिया उसमें। और उसके ऊपर सोने का ढेर लगा दिया। सांस लेने के लिए एक पतली सी नली को पिजड़े से जोड़ दिया जो महल के बाहर खुलती थी। 
इधर गणेशजी परेशान कि उनकी सवारी कहां गायब हो गयी? आकाश-पाताल एक कर डाला। मूषक जी नहीं मिले। गणेश जी को कहीं भी जाना होता तो अपनी सवारी न होने के कारण पैदल आते-जाते या दूसरों का सहारा लेते।
एक दिन गणेश जी कुबेर जी महल के पास से गुज़र रहे थे। मूषक जी को अपने स्वामी की गंध मिली। उन्होंने चूं चूं करना शुरू किया।
गणेश जी को यह आवाज़ जानी-पहचानी लगी। इधर-उधर बड़े ध्यान से देखा। सांस लेने वाली नली से आवाज़ आ रही थी। अरे, यह तो अपने मूषक जी हैं।

Thursday, September 17, 2015

यहां पहरा कानून का नहीं सद्भाव का है।

-वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ में इंदिरा नगर के मुंशी पुलिया का इलाका है। मैं यहीं रहता हूं।
चौराहे के पास गोश्त की ढेर दुकानें हैं। मंडी समझ लीजिये। पका हुआ तरह-तरह का गोश्त और चिकन बेचने वाले ढाबे, चलती-फिरती दुकानें तो बेशुमार हैं।
बेचने वाले नब्बे फ़ीसदी मुस्लिम हैं। लेकिन ज्यादातर दुकानों का शटर
मंगल को गिरा रहता है। नवरात्र के दिनों में भी और होली-दीवाली छोड़ कर अन्य बड़े हिन्दू त्यौहारों पर भी।
सावन के दिनों में भी अनेक दुकानें बंद रहती हैं।
बंद रखने के लिए कोई कानून नहीं है। स्वेच्छा, भाई-चारे, सद्भाव और सांप्रदायिक एकता के तहत ही सब होता है। 
एक साहब ने फ़रमाया कि मजबूरी है उनकी। खाने वाले ही सब हिंदू हैं। हिंदू त्यौहार के दिनों में गोश्त नहीं खाता।  
हमने कहा तो फिर यह कहना ग़लत है कि मुसलमान ही गोश्त खाता है।
हम कई मुस्लिम मित्रों से ईद मिलने जाते हैं। जो गोश्त नहीं खाते, उन्हें वेजीटेरियन सर्व किया जाता है।
बहरहाल, मेरे कहने का मक़सद यह है कि ज़ोर-ज़बरदस्ती या कानून बनाने से बेहतर है, आपसी सद्भाव और भाई-चारे से समझ बनाना। और यह कोई मुश्किल काम नहीं है।
मुंशी पुलिया पर मस्जिद भी है और मंदिर भी। व्यापारियों के मंडल हैं। इसमें हिंदू भी है और मुस्लिम भी। उनकी और से रोज़ा इफ़्तारी भी होती है और रात भर चलने वाले जागरण भी। यह आपसी सद्भाव ही तो है, समझ है। एकता का प्रतीक भी।
सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं। मिठाई की दुकान हो या गैराज। यहां हिंदू भी हैं और मुस्लिम भी।
त्यौहार किसी का भी हो। कारीग़र और कामगार कई-कई दिनों तक ग़ायब रहते हैं।
परेशानी तो सभी को होती है।
और यह स्थिति मुंशीपुलिया की ही नहीं तमाम शहर की है।

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17-09-2015 Mob 7505662636
D-2290 Indira Nagar
Lucknow -226016

Wednesday, September 16, 2015

तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को याद आये थे उस दिन।

-वीर विनोद छाबड़ा 
मित्र ड्राइव कर रहे थे। मैं उनकी बगल में बैठा था। हज़रतगंज का चौराहा। लाल बत्ती। कार रुक गयी।
मित्र ने मेरी और देखा। कुछ कहना चाह रहे हैं शायद। अगले ही क्षण
उन्होंने आवाज़ दी - सुनिये।
मैं चौंका। देखा, तो मित्र  इलाहाबाद बैंक के फुटपाथ पर खड़ी एक भद्र महिला से मुख़ातिब हैं।
कार और उस महिला के दरम्यान चार-पांच फुट का फ़ासला है। महिला के कानों तक उनकी आवाज़ पहुंच गयी लेकिन वो समझ नहीं पाई कि यह आवाज़ किधर से आ रही है। उसने इधर-उधर देखा। एक क्षण के लिए कार पर भी नज़र ठहरी। लेकिन मित्र दायीं तरफ थे। देख नहीं पायी।
मित्र ने एक बार फिर आवाज़ दी - सुनिये। 
उसने सुना तो लेकिन देख न पायी।
मैं कभी मित्र को तो कभी उस महिला को देख रहा था। अमां, कौन है यह? क्यों आवाज़ पे आवाज़ दे रहे हो।
तभी मित्र ने मेरा कंधा हिलाया - बुलाओ, जल्दी से उसको।
मैं उस महिला को और वो महिला मुझे ठीक-ठीक देख पा रही थी। मैडम, सुनिये
मेरा वाक्य पूरा न होने पाया था कि उसने भद्दी-भद्दी पांच-छह गालियां वहीं से दे मारीं। ज्वालामुखी धधक उठा है। कुछ लोग रुक गए।
मैं अवाक् उसे देखता रह गया। किसी ग़लत महिला को आवाज़ लगा दी है! मैं मदद के लिए मित्र की ओर मुड़ा ही था कि महिला बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ी। ज्वालामुखी का लावा अपनी ओर तेजी से बढ़ता दिखा।
अब वो मेरे बहुत क़रीब आ चुकी थी। घर में मां-बहनें नहीं हैं क्या हरामी, कुत्ते, बदज़ातयह कहते हुए उसका हाथ उठा.
मेरी आंखें स्वतः बंद हों गयीं। खुद को बचाव की मुद्रा में कर लिया। बोलती बंद। कंटाप अब पड़ा कि अब पड़ा.
यह सब कुछ पलों में हुआ। इस बीच कई बार तीनों लोक घूमे। तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को याद किया.
कुछ क्षण बीत गए। लेकिन कुछ न हुआ। हैरानी हुई। आंखें खोली।
महिला मेरे मित्र से बतिया रही थी। इससे पहले कि कुछ समझता कि हरी बत्ती हो गयी। उस महिला ने मित्र को थैंक्यू बोला। एक पल के लिए मुझे भी देखा। व्यंग्य से मुस्कुराई। 
झटके से कार चल दी।
मैं कतई सहज नहीं था। धक-धक करता दिल और चेहरे पर उड़ती हवाईयां। दुनिया का सबसे बड़ा चूतिया। और मेरा मित्र  सबसे सुखी इंसान।
मैं फ़नफ़नाया। यह सब है क्या? तुम दोनों के बीच मैं क्यों पिसा? कौन है वो? क्या नाम है उसका? दर्जनों सवाल दाग दिए।
धैर्यवान मित्र बोला  - शांत वत्स। यार, उस महिला का नाम तो मुझे भी नहीं पता। स्टाफ नर्स है। मेरी वाईफ़ की कलीग। अस्पताल में तो सभी को सिस्टर बोलते हैं। लिफ्ट के लिए पूछा था। इसमें कहीं कोई अपराध हुआ क्या? जो कुछ हुआ, ग़लतफ़हमी के कारण।

Tuesday, September 15, 2015

लेखन से पहला पेमेंट और अग्निहोत्री जी।

-वीर विनोद छाबड़ा 
मैंने लेखन लखनऊ के लोकप्रिय दैनिक स्वतंत्र भारत से शुरू किया था। संपादक के नाम पत्र से। यह १९६७-६८ की बात है।
सिनेमा देखने का शौक हद दर्जे का रहा। पहला लेख सिनेमा से ही संबंधित था।
हुआ यों कि जब भी फ़िल्म देख कर आता तो उसका विवरण एक पुरानी डॉयरी में दर्ज कर लेता। कौन सा शो, किस क्लास में और किसके साथ। और साथ में यह भी कि फिल्म कैसी रही।
एक दिन चोरी पकड़ी गयी। मां ने डॉयरी पढ़ ली। स्कूल जाकर शिकायत की। बच्चा बिगड़ रहा है। आप लोग ध्यान क्यों नहीं देते? सब फ़िल्में देखता है स्कूल से भाग कर। प्रिसिपल साहब ने सरेआम दो झापड़ रसीद दिए।
पिताजी दौरे से लौटे। मामला उनकी अदालत में पेश हुआ। उन्होंने तफ़सील से सब सुना और डॉयरी पढ़ते-पढ़ते कहने लगे - इतना अच्छा लिखते हो। अख़बार में छपने को क्यों नहीं भेजते?
आईडिया हिट कर गया। १९६७ की फ़िल्मों पर एक नज़र। स्वतंत्र भारत में छपा। इसके बाद कई और लेख छपे। दो तीन कहानियां भी। बच्चों के स्तंभ में। लेकिन पारिश्रमिक नहीं मिला। फिल्म देखने के लिए पैसों की अक्सर दरकार रहती थी।
एक दिन हिम्मत करके स्वतंत्र भारत के ऑफिस जाकर दरयाफ़्त की। मुझे श्री नन्द राम चतुर्वेदी जी के पास भेजा गया। वो वहां थे तो सर्कुलेशन मैनेजर, लेकिन मैगज़ीन देख रहे थे। खास तौर पर सिनेमा का पृष्ठ।
उन्होंने मुझे सर से पांव तक देखा। हैरान होते हुए बोले - अरे, तुम तो बच्चे हो। बिलकुल मेरे बेटे की तरह। 
मैं भी हाज़िर जवाब -  तो फिर बेटे को जेब खर्च दीजिये।
वो मुस्कुराये - अगले महीने से शुरू करेंगे। अग्निहोत्री जी से मिल लेना।
श्री बाल कृष्ण अग्निहोत्री जी वहां प्रूफ़ रीडिंग इंचार्ज थे। अगले महीने किसी तरह उन्हें तलाशते हुए नीचे छापेखाने में पहुंचा। दुबले-पतले, सफ़ेद और साफ़-सुथरा धोती-कुरता धारी। मुझे यकीन नहीं हुआ। मैंने सोचा था चतुर्वेदी जी तरह कोई सूटेड-बूटेड होंगे। किसी केबिन में तशरीफ़ रखे हुए। परंतु वो तो टहल रहे थे।
मैंने उन्हें अपना परिचय दिया। उन्होंने सरसरी निगाह से मुझे सर से पांव तक घूरा। असली-नकली की पहचान और तहक़ीक़ात का यही तरीका था उनका।
फिर जेब से उन्होंने एक मुड़ा हुआ कागज़ निकाला। उसे खोला। कई तहें थीं उसकी। किसी रजिस्टर से अलग किया हुआ। यह एक सूची थी। मेरा नाम तलाश किया। रसीदी टिकट लगाया। हस्ताक्षर कराये और थमा दिए सात रुपए। उन दिनों पांच रूपए के किसी भी भुगतान पर बीस पैसे का रसीदी लगता था।
मुझे धक्का लगा  - बस इतने ही!
वो मुस्कुराये - यही बड़ी उपलब्धि है कि इतने जल्दी मिलने शुरू हो गये। कइयों को तो महीनों झेलना पड़ता है।
ज़िंदगी में लेखन से पहली कमाई। कम ही सही। है तो गाड़े खून पसीने की। मैंने अग्निहोत्री जी के चरण स्पर्श किये। उन्होंने आशीर्वाद दिया।
मैंने इस कमाई को मां के क़दमों पर रख दिया। यह हमारे परिवार का रिवाज़ था और आज भी है कि पहली कमाई मां के चरणों में ही रखी जाती है।
यों मां मेरे लेखन से कतई खुश नहीं थी। जैसा बाप, वैसा बेटा। निखट्टू। लेकिन कमाई को चरणों में रखा देख भावुक हो गयी। आशीर्वाद दिया। गले लगाया।
स्वतंत्र भारत में बहुत लंबे समय तक लिखा और लंबे समय तक अग्निहोत्री जी पारिश्रमिक बनाने और उसका भुगतान करने के इंचार्ज रहे। वो चलते-फिरते कहीं भी मिल जाते थे। लेखकगणों के कैश ऑफिस। उनसे कुछ कहना नहीं पड़ता था। देखते ही जेब से सूची निकालते। मुझे लेख का भुगतान करते और मैं रसीदी टिकट का भुगतान उन्हें करता। चलते समय उनके चरण स्पर्श करना नहीं भूलता था। इससे वो बड़े प्रसन्न होते थे। बरसों चला यह सिस्टम।
एक बार महीने में तीन लेख छपे। सात रूपए के हिसाब से २१ रूपए बनता था। परंतु मिले सिर्फ़ बीस। एक रूपए का नुकसान। अग्निहोत्री जी ने हाथ खड़े कर दिए। प्रशासन की नीति है। साठ के दशक के अंत में एक रुपये का भी महत्व था।
दूसरे महीने दो छपे। सोचा राउंड फिगर में शायद पंद्रह मिलें। परंतु चौदह ही मिले।

Monday, September 14, 2015

हिंगलिश ही सही बढ़ तो रही है।

-वीर विनोद छाबड़ा
पचास के दशक का अंत। हमने जब होश संभाला तो खुद को लखनऊ के चंदर नगर में पाया। पार्टीशन से आये शरणार्थियों का बोलबाला था। पूरा

पंजाबी माहौल। दुकानदार भी पंजाबी। पढ़ते उर्दू का अख़बार थे। लेकिन पंजाबी लहज़े में हिंदी बोलते थे। यहीं हमने पहली मर्तबे हिंदी और अंग्रेज़ी का अख़बार देखा। साल भर एक हिंदी मीडियम मिशनरी स्कूल में पढ़े। हिंदी में बाईबल पढ़ी। पिताजी को चिंता हुई कि बच्चे महर्षि बाल्मीकि को कैसे जानेंगे
? एक सरकारी स्कूल में भर्ती हो गए। कक्षा एक से लेकर ट्रिपल एमए तक हम हिंदी माध्यम से ही ज्ञान प्राप्त करते रहे। इस बीच १९६८ में अंग्रेज़ी विरोधी आंदोलन चला। अंग्रेज़ी के बोर्ड उतरे और हिंदी के टंगे। १९८९ में श्री मुलायम सिंह यादव यूपी के मुख्यमंत्री बने। कई अंग्रेज़ी पसंद विभागों को ख्याल आया कि प्रदेश की राज्यभाषा हिंदी है। 
जो हिंदी में सोचते थे और अंग्रेज़ी में तरजुमा करके लिखते थे, अब हिंदी में लिखने भी लगे। कार्य सहज और त्वरित निपटने लगे।
लेकिन आम ज़िंदगी में अंग्रेज़ी मानसिकता हिंदी पर हावी रही। रैट के पीछे कैट है.टेबुल पर नाईफ़ रखा है.मुमु गुड ब्वॉय है.टॉयलेट में पॉटी करेगाकुर्सी पर नहीं चेयर पर बैठिये। कुत्ता भी 'सिट' कहने पर बैठता है और 'अप' पर खड़ा होता है। हिंदी में क्षमा मांगने वाले को हिक़ारत से देखा जाता है। अंग्रेज़ी का सॉरी तो हर मर्ज़ की दवा है। दूधवाला हो सब्ज़ीवाला  या फिर रिक्शावाला छुट्टा नहीं 'चेंज' बोलता है। भिखारी भी टेन रूपीस प्लीज़ कहने लगा है। अंग्रेज़ी बोलने वाला गरीब खुद को अभिजात्य और इलीट के समकक्ष समझाता है।
लेकिन हम निराश नहीं हैं। हमें फ़ख़्र है कि बच्चों के नाम शुद्ध हिंदी में हैं - नदिया, नेहा, पंखुड़ी, पायल, अंकिता, सुरभि, शुभांगी, आकांक्षा आदि। अर्थ जानने के लिए शब्दकोष की सहायता भी लेनी पड़ती है। 
घरों-बंगलों के गेट पर शिलापट लगे हैं -श्रद्धा, छाया, घरौंदा, मातृछाया, आसरा, शांति
कॉरपोरेट सामान बेचने के लिए हिंदी ही चाहिये। विज्ञापन देखिये। उत्पाद पर नाम अंग्रेज़ी में है। मगर यह पर्याप्त नहीं। साबुन का प्रयोग करने वाली सुंदरी हिंदी में बताती है उसका रंग रूप निखर आया है.फलां क्रीम से मुंहासे गायब हो  गए हैं.बिग बी तो कई कुछ मीठा हो जाये कह कर अरबों की चाकलेट बेच चुके हैं.सेकंड हैंड कार चला रहा कुत्ता भी हिंदी में संतोष व्यक्त करता है। हमें लगता है अगर कुत्ते बोलते होते तो हिंदी ही बोलते। इसे सीखने और जानने वालों की संख्या बढ़ रही है।