Wednesday, March 11, 2015

उन्नाव में धमाल! (पार्ट एक - १)

-वीर विनोद छाबड़ा 

उन दिनों मैं बीए में था। १९७० की गर्मियां थीं। हम पांच दोस्त थे। उसमें एक था राजनारायण, हम दोस्तों में सबसे बड़ा। सोने-चांदी का छोटा सा कारोबार था उनका।

उसकी शादी तय हो गई। हम दोस्तों में पहली बार किसी की शादी तय हुई थी। इसलिए बहुत उत्साहित थे। उन्नाव जानी थी बारात। ट्रेन से आते जाते तो कई बार देखा था उन्नाव। मगर हक़ीक़त में अब देखेंगे। सब पहली-पहली बार हो रहा था। खूब तैयारी की।

राजनारायण के पिता बहुत सख्त थे। उनको हमलोगों से जाने क्यों हमेशा से एलर्जी थी। बेहूदा समझते थे। सुना बामुश्किल बारात में शामिल करने पर तैयार हुए थे। चलने से पहले साफ बता दिया - नो नाच-गाना।

बस में हम सब बड़ी सलीके से बैठ गए। हममें एक सरदार भी था, दलजीत सिंह। विचित्र प्राणी। बायीं कलाई के नीचे से एक हाथ गायब था। बचपन में हुई एक दुर्घटना में कट गया था। वो हैंडब्रेक भी कहलाता था।

चुपचाप बैठना दलजीत की फितरत में नहीं था। बेहद शरारती और खतरों का खिलाड़ी। दो गियर वाली कोई विदेशी मोपेड थी उसके पास। आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है। उस पर यह सही बैठती थी। जाने क्या सिस्टम फिट किया उसमें कि वो उसे एक हाथ से चला लेता था।

आदतन बस में उसने ज़बरदस्त तमाशे किये। कभी जादू दिखाया तो कभी लतीफ़े सुना कर हंसाया। हमारे मना करने पर भी खूब ऊंचे-ऊंचे ठहाके लगाये। खुद राजनारायण को आकर कहना पड़ा - पिताजी नाराज़ हो रहे हैं और बाकी बुज़ुर्ग भी।

किसी तरह कंट्रोल किया उसको। बारात का जनवासा कोई किसी स्कूल का बड़ा हाल था। राजनारायण के पिताजी ने विशेषतौर पर दलजीत को निशाना बना कर बहुत डांटा - याद रहे कोई डांस नहीं होगा। उसको हम घेरे में लेकर चलते रहे।

अब उन्नाव की सड़कें क्या थीं, गलियां थीं। ऊंची-नीची। बामुश्किल तीन-चार आदमी एक दफ़े में निकल सकें। अचानक हमने पाया कि दलजीत गायब है। जाने कहां गया? बहुत गुस्से में था। कहीं लखनऊ वापस तो नहीं चला गया? चला गया हो अच्छा है। हमारी चिंता ख़त्म हो। लेकिन पुष्टि तो हो।

बारात में शामिल होने का सारा मज़ा ही किरकिरा हो गया। बारात छोड़ उसे ढूंढने निकले। कभी इस गली, तो कभी उस गली। वो तो नहीं मिला, हमीं खो गए। पूछते-पाछते बारात में फिर शामिल हो गए। लेकिन चिंता दलजीत की।

तभी दो पुलिस वाले आये। एक बाराती से कुछ पूछा। उसने हम लोगों की ओर इशारा कर दिया। उन्होंने पूछा- आप लोग दलजीत के साथ हैं?


हमारे प्राण सूख गए। डरते-डरते बताया - हम हैं।

वो बोले दरोगा जी ने बुलाया है थाने।

पूछा - क्या कसूर किया है?

वो बोले वहीँ- चल कर पता चलेगा।

हम थाने पहुंचे। देखा दलजीत वहां तखत पर लेता था। पता चला, नाराज दलजीत ने कहीं से पउवा खरीद चढ़ा लिया था और किसी उन्नाव वाले से पंगा ले लिया। अच्छा-खासा पिटा भी। फिर पुलिस के हत्थे चढ़ गया। दरोगाजी कुछ भले आदमी थे। हाथ-पैर जोड़ने और जेब खाली करने पर काम चल गया।

दलजीत सिंह इस हालत में नहीं था कि उसे बारात में ले जाते। हम लोग जैसे तैसे रिक्शा में टांग उसे धर्मशाला ले गए। खाना वगैरह भी हम भूल ही चुके थे। प्राथमिकता ये थी कि दलजीत सिंह सीधा खड़ा हो जाये और किसी को खबर न हो।

शुक्र है कि विवाह स्थल से लोग रात देर से लौटे। तब तक दलजीत दो बार उल्टी करके खर्राटे मार रहा था।
हम लोग दलजीत को गालियां देते हुए भूखे ही सो गए।

-वीर विनोद छाबड़ा  
(क्रमशः)

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