Tuesday, March 3, 2015

वो आख़िरी सिगरेट !

-वीर विनोद छाबड़ा

आज मेरे पिताजी (दिवंगत रामलाल, उर्दू के मशहूर अफसानानिगार) का जन्मदिन है। आज होते तो ९२ पूरा कर चुके होते। बहुत याद आते हैं। काश ऐसे पिता हर जन्म में मिलें।

जब तक वो रहे घर में हमेशा चहल-पहल रही। अदबी माहौल रहा। उर्दू वाले भी और हिंदी वाले भी। खूब बहस होती। और इस बीच जाने कितनी सिगरेटें फूंक जाती। कमरा धुआं-धुआं हो जाता। शायद ही कोई दिन रहा हो कि कोई मिलने न आया हो। 

पिताजी तक़रीबन चेनस्मोकर थे। वो उत्तर रेलवे में मुलाज़िम थे। सिगरेट उनकी शख़्सियत का हिस्सा थी तो ट्रेन उनके अफ़सानों की सांस।

ट्रेन में बढ़िया बर्थ हो और वेटिंग रूम में आरामकुर्सी। या फिर किसी छोटे रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर ही खाली बेंच मिल जाये। सिगरेट की तीन-चार डिब्बी साथ हों तो एक अफ़साना उनकी क़लम से निकलना बड़ी बात नहीं थी। कई बार तो लिखने में इतने मशग़ूल हो गए कि ट्रेन छूट गई या एक दो स्टेशन आगे निकल गये।
 

मुझे लगता था कि सिगरेट न हो तो कुछ लिख नहीं पाएंगे। ब्रांड वो बदलते रहे। कभी चारमीनार तो कभी आखिरी कश तक मज़ा देने वाली पनामा। विल्स भी कई साल पी। जब छोड़ी तब कैप्सटन पिया करते थे। जावाडासन सिगार का डिब्बा हमेशा पास रखा। कभी-कभी शौकिया पिया करते थे।

याद नहीं कि कैसे हुआ यह। उन्होंने इच्छा शक्ति मज़बूत की। मैं सिगरेट गुलाम नहीं। नहीं पियूंगा। बिना सिगरेट पिये लिखूंगा। यह दौर साल भर चला। इस बीच छह महीने स्कैण्डिनेवियन और यूरोप भी रह आये। वहां से ढेरों सिगरेट की डिब्बियां बटोर लाये। मगर पी नहीं। एक मुझे भी गिफ्ट की।

मगर कुछ महीने बाद शुरू हो गए। मैंने पूछा तो बोले - मैं आज़मा रहा था कि इसके बिना जिंदा सकता हूं कि नहीं। किसी मोड़ पर इसे अलविदा भी कहना पड़े तो तक़लीफ़ न हो। खुद पर अपना कितना कंट्रोल है।

सिगरेट पीने से पिता जी की कभी-कभी सांस फूलती थी और साथ में खांसी भी खूब आती थी। डॉक्टर दवा देते थे और ताक़ीद करते थे कि छोड़ दीजिये। एक-आध हफ़्ता नहीं पी। ठीक होते ही फिर शुरू हो जाते। कहते थे सिगरेट की तलब हरा देती है । एक दिन कहा भी - ये तलब वैसी ही है जैसे वन डे क्रिकेट का  आख़िरी क्लिफ़हैंगर ओवर। 

सन १९९३ में जब डॉक्टर ने घोषित किया कि किडनी कैंसर है। उस रोज़ उन्होंने सिगरेट से एक दिनी क्रिकेट खेलना छोड़ दी। फाइनल तौबा कर ली। उन दिनों वो पीजीआई में भर्ती थे।

मुझसे बोले- सुना है कैंसर है। शायद दो-ढाई महीने बाकी बताये हैं। अब तो सिगरेट छोड़नी ही पड़ेगी।


मेरा दिल भरा हुआ था। क्या बोलता ? कुछ बोला ही नहीं गया। मुंह घुमा लिया। मौत को पिताजी के इतने करीब देख कर मुझे बेइंतेहा तक़लीफ़ थी, ख़ौफ़ज़दा  भी। उनके दिल पर क्या बीत रही होगी?

कुछ लम्हे हम दोनों के बीच गहरा सन्नाटा पसरा रहा। वो कुछ लम्हे इतने लंबे थे कि लगा सदियां गुज़र गयी हों। कैसे तोडूं इस ख़ौफ़नाक चुप्पी को? हिम्मत भी नहीं हो रही थी।

आख़िर में पिताजी ही ने चुप्पी तोड़ी - ठीक है। जितनी भी ज़िंदगी बाकी है, मैं इसका हर पल एन्जॉय करना चाहता हूं।

वो बड़े सहज दिख रहे थे। फिर एक पल रुके और बोले- ज़िंदगी के इस 'आख़ीर' पर आख़िरी बार एक सिगरेट पीने की ख्वाईश है।

मैंने देखा उनकी नज़र मेरी शर्ट की जेब में साफ़ दिख रखी सिगरेट की डिब्बी पर है। सिगरेट के डिब्बी मैं पैंट की जेब में रखता था मगर उस दिन.

कोई और दिन होता तो मैं कोई बहाना बना मना कर देता। लेकिन उस दिन मना नहीं कर सका। जेब में न भी होती तो बाहर से लाकर देता।

और मैंने उनकी ख्वाईश पूरी की।

यह पहली और आख़िरी बार था कि मैंने उनको अपनी कमाई से सिगरेट पिलाई थी।
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- वीर विनोद छाबड़ा ०३-०३-२०१५

2 comments:

  1. बुरी लत जान लेके ही जाती है. मार्मिक कथा.

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