Monday, June 22, 2015

मुंह से कम, इशारों से बात ज्यादा!

-वीर विनोद छाबड़ा 
बचपन के कुछ साथी आज भी याद हैं। उनमें एक हैं विपिन विरमानी। इधर कई दिन से उनकी बड़ी शिद्दत से याद आ रही। लखनऊ की टेड़ी पुलिया, आलमबाग में का मेडिकल स्टोर हुआ करता था।

बड़े विचित्र प्राणी हुआ करते हैं विपिन । मुहं से कभी कभार ही बात करते हैं।  हाथ के इशारे से या/और चेहरे पर भाव-भंगिमा बना कर बात करना ज्यादा पसंद करते हैं। कभी भवें चढ़ा कर तो कभी होंट बिचका कर भी।
उनके पिता का देहांत हुआ। मैं अफ़सोस करने गया। दुखी ह्रदय से उनके पिता का स्मरण किया। उन्होंने पेंडुलम की तरह सर हिलाया, आंखें ऊपर चढायीं और दोनों हाथ आकाश की ओर उठा दिए।
एक बार किसी बात पर उन्होंने आंखें बड़ी की, उंगली होटों पर रखी और दूसरे हाथ से पंखा झलने लगे। यानी चुप रहो। सीक्रेट। न हवा आने दे और न जाने दे।  
गणेशजी की याद आई तो नाक को हाथ छू कर हवा में डाउनवर्ड लहरा दिया।
इसी तरह हनुमान जी का ज़िक्र करने के लिए हाथ पीछे छुआ और अपवर्ड लहरा दिया।
त्याग, करुणा, क्रोध, विद्रोह, हास्य, विछोह, मिलन, रहस्य आदि बेशुमार भाव व्यक्त करने की भंगिमाएं आवश्यकतानुसार सेकंड भर में चेहरे, आंखों, माथे आती-जाती त्योरियों से व्यक्त कर देते थे। कई भावों को दांत पीस कर भी व्यक्त किया। हाथ का प्रयोग उस भाव भंगिमा के प्रभाव को बढ़ाने के लिए करते ही थे। मुझे यकीन था कि उनके तरकस में शास्त्रों में उल्लिखित समस्त रसों और भावों से कहीं ज्यादा तीर थे। वो मुझे हमेशा महान विदूषक चार्ली चैपलिन की याद दिलाया करते। मैं अक्सर सोचा करता था अगर मैं कभी डायरेक्टर या प्रोड्यूसर बना तो उन्हें ज़रूर कास्ट करूंगा।
एक दिन मैंने पूछा - भगवान ने मुंह में जुबान दी है? कब इस्तेमाल करोगे।
उन्होंने जवाब दिया - यार ये जीभ ही हर झगड़े की जड़ है। मैंने उसे कहा कुछ और अगले ने समझा कुछ और। या यों कहो वही समझा जो उसने समझना चाहा। शुरू हो गया झगड़ा। ऐसा ही मैं भी हो सकता हूं। फिर कुछ की आदत होती है बातचीत में शब्द पकड़ते की। बाकी सब ताक पर। इसीलिए भाई, अपना असूल है न बोलो और न सुनो। न रहे बांस न रहे बांसरी।
ये कहते हुए उन्होंने हवा में बांस की आकृति बनाई और एक जगह विशेष घुसड़ने का एक्शन किया।
आजकल का माहौल बिलकुल ऐसा ही है। बोलो कम, इशारों और भाव भंगिमाओं से ज्यादा से ज्यादा काम चलाओ।
चूंकि एक मुद्दत से देखा नहीं था उन्हें। आज गया मिलने। जहां उनकी दुकान थी, वहां तो कोई काम्प्लेक्स बना था। आस-पास पूछा। इस जगह एक मेडिकल स्टोर हुआ करता था। कोई कुछ बता नहीं सका।
उनका घर चंदर नगर में है। पिछले बीस साल में वहां इतना कुछ बदल चुका है कि उनकी गली ही कहीं गुम हो गयी है। चला आया। अब दो-चार दिन बाद फिर कवायद करूंगा। डर भी लगता है कि संसार से बंदा ही कहीं गुम न हो गया हो।
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२३-०६-२०१५  मो.७५०५६६३६२६
डी-२२९० इंदिरा नगर लखनऊ-२२६०१६

2 comments:

  1. आपने अच्छा लिखा है। जिस कैरेक्टर के बारे में लिखा है वह यूनीक है और आपका ऑब्ज़र्वेशन बेहतरीन है।

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  2. टेढ़ी पुलिया,कुर्सी रोड क्षेत्र तो पाँच वर्षों में ही काफी बदल गया है फिर बीस वर्ष तो चार गुना अधिक हैं। हो सकता है उनकी आदत भी बदल गई हो।

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