Tuesday, June 30, 2015

लॉटरी - घर बनते नहीं उजड़ते देखे।


-वीर विनोद छाबड़ा
लॉटरी को लेकर पुराने दिन याद आ गए। साठ का दशक हुआ करता था। हम इंटरमीडिएट में रहे होंगे तब।
बाराबती रैफल लॉटरी चला करती थी। कोई कलकत्ता वाले थे। काले रंग की अम्बेस्डर पर लॉटरी बिकती थी। मैंने इस कार को अक्सर अपने लखनऊ के कैपिटल सिनेमा के सामने सड़क के उस पार गांधीजी की मूर्ति के समीप खड़ा देखा।

एक रूपए का टिकट। और ईनाम एक लाख रूपए। सुनते ही गश खा गए। लाख की बड़ी ज़बरदस्त वैल्यू थी। आज से मिलान करें तो करोड़ तो हो जायेगा। एफडी किये होते तो दो करोड़ तो कहीं नही गए थे। सोचा मौजूदा ज़िंदगी ही नहीं अगली दो एक पुश्तें भी मौज कर लेंगी। लालच बुरी बलां। हम ललचा गए। कहीं से इकन्नी और कहीं से दुअन्नी बटोरी। तिनका तिनका करके एक रुपया हो गया। टिकट ले लिया। टेलीग्राम से इतल्ला हो जाएगी। लिहाज़ा नाम-पता भी लिखवा दिया।
पता नहीं कितनी रातें जागे हम। कई कई बार खुले आसमान पर चमचमाते तारे गिने। महल बना डाले। सपने देखने में क्या खर्च होता है? एक नामी हीरोइन से ब्याह तक रचा लिया।
कितने दिन हमने राह तकी तार वाले डाकिये की। बड़े पोस्ट ऑफिस में  दरियाफ़्त कि हमारे नाम कोई कोई टेलीग्राम आया? रजिस्ट्री तो नहीं बैरंग लौट गयी।
कई महीने बाद पता चला कि कोई मद्रासी उठा ले गया लाख रुपया। छोटे-मोटे बाकी इनाम भी उधर ही के लोग ले गए।
उसके बाद शुरू हुआ हरियाणा स्टेट लॉटरी। तमिलनाडु, ओड़िसा और महाराष्ट्र भी कूदे। यूपी वाले भला क्यों पीछे रहते? सरकारें जुआ खेलने और खिलाने लगीं। कल्याणकारी योजनाएं चलाने के नाम पर हर स्टेट में बाकायदा लॉटरी निदेशालय खुल गए। रकम पचास हज़ार। फिर साठ हज़ार। फिर लाख और करोड़ तक रकम दांव पर लगने लगी।
पहले एक महीने में खुलती थी। महीना घट कर हफ्ता हुआ और घटते-घटते सुबह शाम पर धंधा उतर आया। घंटे-घंटे पर लॉटरी हो गयी। आख़िरी नंबर पर दांव लगने लगे। तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले, खुद पे भरोसा है तो दांव लगा ले.
खबर यह आई कि काली रकम को सफ़ेद करने का भी धंधा शुरू हो गया है। उधर घर बर्बाद होने लगे। सब्जी लेने निकले तो सीधा लाटरी के स्टाल पहुंच गए। वेतन मिला नही कि घर की बजाये लॉटरी की दुकान दिखने लगी। उधार पर रकम उठाने लगे। जीपीएफ खाली हो गए। घर के जेवर गिरवी हो गए। सिर्फ़ मर्द ही नहीं जोरू भी उतर आयीं मैदान में। एक लगाओ, दुगना-तिगुना ही नहीं दस गुना पाओ।
जिसकी नहीं निकली उसने गुस्से में आकर पांच सौ, हज़ार टिकेट हवा में उड़ा दिए। लॉटरी के टिकटों से सड़क पट जाया करती थीं। लोग बर्बाद होने लगे। घर उजड़ने लगे। अपने आस-पास के कई मित्र रिश्तेदार मैंने पनपते तो नहीं उजड़ते ज़रूर देखे। आत्महत्या की ख़बरें ज्यादा हो गयी। लेकिन सरकारें सोती रहीं। मोटी रक़म जो मिलने लगी थीं। कई मामले कोर्ट-कचेहरी में लग गए। बड़ी मुश्किल से लटारियों का अवैध सरकारी कारोबार रुका। उजड़े घर फिर बसने लगे। चेहरों पर रौनकें लौट आई।
इसी बात पर एक लतीफ़ा भी याद आता है। सस्ते का ज़माना था वो।

ओपन हार्ट सर्जरी के मरीज़ की सात लाख की लाटरी लगी।
डॉक्टर ने सलाह दी - एकदम से न बताया जाये। इतनी ख़ुशी बर्दाश्त नहीं होगी मरीज़ को। हार्ट फेल तक हो सकता है। धीरे-धीरे बताना होगा।
फिर डॉक्टर ने मरीज़ से पूछा - मान लो तुम्हारी सात लाख की लाटरी लग जाए तो क्या करोगे?
उदास मरीज़ के चेहरे पर ख़ुशी की असंख्य लकीरें दौड़ पड़ीं - अगर ऐसा हुआ तो वादा रहा कि आधी रक़म आपको दे दूंगा।
यह सुनते ही डॉक्टर का हार्ट फेल हो गया।
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30-06-2015 mob 7505663626
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