Sunday, March 20, 2016

गुरूमंत्र।

- वीर विनोद छाबड़ा
आज मुद्दत के बाद हमें वो मित्र दिखे। हमारे बहुत प्यारे मित्र हैं वो। मूलतः बंगाल से हैं वो। बरसों पहले उनकी शादी अटेंड की थी। खूब नाच-गाना हुआ था। जम कर दारू-शारू भी हुई थी।

मित्र बेचारे बहुत सीधे-साधे थे। हम लोगों ने उन्हें ढेर 'गुरूमंत्र' दिए। यह सिलसिला कई महीने तक चला। इस बीच हम मित्रों को कई बार उन्होंने चाय-वाये पर बुलाया। उनकी नवेली पत्नी बहुत अच्छी कुक थी। हर बार कोई नया आईटम। नॉन-वेज तो बस पूछिये नहीं। और बहुत खुश खुश हो कर खिलाती थी।
एक दिन हम मित्रों को अपने मित्र के सीधेपन पर कुछ शक़ हुआ। पूछा कि कहीं तुमने अपनी पत्नी को तो नहीं बताया कि ये गुरूमंत्र देने वाले गुरूजन कौन हैं।
उन्होंने बड़े भोलेपन से कहा था - हां, पत्नी जी ने पूछा था तो मैंने आप सब का नाम बताया था। इसमें क्या परेशानी है?
हम सबको गुस्सा आया आया और बड़ी शर्म भी। अजीब आदमी है। दोस्तों के बीच की बात पत्नी को बता दी और वो भी गुरूमंत्र वाली। बस उस दिन से हम मित्रों ने उनके घर जाना बंद कर दिया था। संयोग से उन्हें सरकारी कॉलोनी में मकान भी मिल गया। हम लोगों ने कहा - चलो, छुट्टी हुई।

आज बहुत अरसे बाद मिले तो हम नॉस्टॅल्जिक हो गए। हमने ऐसे ही उनसे मज़ाक किया कि अब तो 'गुरूमंत्र' की ज़रूरत नहीं पड़ती?
वो ज़ोर से ठट्ठाकर हंसे - अब तो हम खुद ही 'उस्ताद' हो गए हैं। लौंडों को गुरूमंत्र दिया करते हैं। सच कहूं, आजकल के लौंडे कुछ नहीं जानते। भेजे में ही कुछ नहीं घुसता। तभी तो सुबह शादी और शाम को तलाक़ लीजिये। सब साले, चाइनीज़ हैं।
वो जाने की जल्दी में थे। घर आने का उन्होंने न्यौता दिया। बोले, पत्नी जी सबको बहुत याद करती हैं।
हमें हंसी भी आई और शर्म भी। उम्र के इस मोड़ पर आज भी हमें 'गुरूमंत्र' से संबंधित पिछली बातें याद करके शर्म सी आती है और कुछ कुछ अजीब सा भी लगता है।
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