Wednesday, March 9, 2016

ऐसे भी होते हैं लोग।

- वीर विनोद छाबड़ा
जब शाम को ऑफिस से घर के लिए निकलते थे तो वो हमें स्कूटर स्टैंड के एग्जिट द्वार पर मिलता। और बिना पूछे धम्म से पीछे बैठ जाता। अब मित्र जो ठहरे। मना भी नहीं कर सकते थे।


कई बार हमें अपने किसी मित्र या रिश्तेदार से मिलना होता था। हम उन्हें अवगत भी कराते। वो कहते, चलो हम भी चलते हैं। हम बाहर खड़े रहेंगे।

अब वो बाहर खड़े रहें, यह न हमें अच्छा लगता और न ही मेज़बान को। अंदर ही बुला लेते। बहुत नागवार गुज़रता जब वो बिना मेज़बान की इजाज़त लिए सिगरेट सुलगा लेते।

खाज में कोढ़ वाली बात तो यह थी कि रास्ते में जब-तब किसी केमिस्ट शाप पर स्कूटर रुकवा देते। दवा लेनी है। जब पेमेंट की बारी आती तो उन्हें ख्याल आता कि पर्स तो घर भूल आये। यार, मां के लिए दवा ली है। बेचारी इंतज़ार करती होंगी।

हम इमोशनल ब्लैकमेल हो जाते। देने पड़ते पैसे। एक बार उन्होंने बेकरी पर स्कूटर रुकवाया। मेमसाब का जन्मदिन है। सुबह से जाने क्यों उदास है। जन्म देने वाले अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनकी याद आ रही थी। एक केक गिफ़्ट कर दूं। खुश हो जाएगी। पर्स खोला तो ठन-ठन गोपाल। बोले कल वापस कर दूंगा।

हमारे पास सौ का नोट। अस्सी का केक लिया और बाकी बचे जेब में रख लिए उन्होंने। कल वापस कर दूंगा।
 
वो कल कभी नहीं आया। कभी याद दिलाया तो उलटे उलाहना दे मारी। अमां लौटा देंगे। कहीं भागे जा रहे हैं क्या?

ऐसी ही एक नहीं अनेक घटनायें और वाक़ये।

एक दिन तो हद हो गयी। किसी ने हमें बताया कि हमें वो अपना ड्राईवर कहते हैं। हमने क्रॉस-चेक करके पुष्टि भी कर ली। अब वो हमारे सिर पर सवार हो गया। शाम होते ही अगर वो नहीं दिखता तो हम इंतज़ार करने लगते।

एक दिन हमने खुद से सवाल किया क्या हम उसके गुलाम हैं? हम सब कुछ बर्दाश्त कर सकते हैं लेकिन गुलामी नहीं। हमने उनसे पिंड छुड़ाने के लिए शास्त्रों में लिखे सभी सकारात्मक उपाय किये। लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ।

इधर हम भी दृढ़ प्रतिज्ञ थे। हमने जी कड़ा किया। उनसे साफ़ साफ़ कह दिया। यह स्कूटर हमने खून-पसीने की कमाई से खरीदा है। यह पेट्रोल से चलता है और पेट्रोल फ्री में नहीं मिलता। तुम्हें हम मुफ्त में नहीं ले जाएंगे। टेम्पो का नहीं तो बस का किराया तो देना ही पड़ेगा। रास्ते में चाय भी पिलानी पड़ेगी, पैडीज़ के साथ।

वो मुंह टेड़ा कर चल दिए। कुछ दिन बाद उन्होंने दूसरा 'मुर्गा' फंसा लिया।


पूरी नौकरी इन्होने इसी तरह ड्राईवर और मुर्गे बदल-बदल कर काटी। अब रिटायरमेंट के बाद भी कहीं आना-जाना हो तो पहले दस जगह फ़ोन करके मुर्गे तलाशते हैं। कोई नहीं मिलता तो झख मार कर ऑटो का सहारा लेते हैं। आदत से मजबूर हैं। इसीलिए उनका कोई दोस्त नहीं है। आजकल बीमार हैं। तन्हा ज़िंदगी बसर करते हैं। कहते हैं क्या फर्क पड़ता है। चार आदमी कंधा देने वाले तो मिल ही जायेंगे।


उन चार आदमियों में वो हमें ही नहीं उन सभी को शामिल किये हुए हैं जो कभी इनके ड्राईवर रहे हैं या मुर्गे।
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