Monday, May 16, 2016

लल्लू जी के घर सियापा।

-वीर विनोद छाबड़ा
लल्लू जी आज फिर सुबह सुबह आ धमके। लटकता हुआ उदास चेहरा। पत्नी के शब्द बाणों से ही छिदे हैं। उनकी दुःखी आत्मा ने पलटी की। कल रात हम कर्नल रंजीत का पुराना नावल पढ़ रहे थे। इधर क़त्ल बस होने को ही था कि उधर बेगम हुंकारी कि बर्तन धोने जा रही हूं। जब दूध उबल जाये तो गैस बंद कर देना। हम अपनी धुन में थे। समझे कि पड़ोस में बर्तन धोने जा रही हैं। बस यही पूछ लिया। ज़लज़ला आ गया। हम कामवाली बाई हैं क्या? लाखों के दहेज़ का एक बार फिर हिसाब बता दिया। हमने लाख माफ़ी मांगी। चरण तक स्पर्श करने का विद सेल्फ़ी ऑफर दिया। मगर बेगम की ज़िद्द लॉक है। तमाम चाबियां लगाईं, लेकिन बेअसर। आज तो चाय भी नहीं बनी।
लल्लू जी की आंखों के साथ-साथ नाक भी भर आई। बंदा समझ गया कि लल्लू जी का अगला स्टेप उनका कंधा गंदा करना होगा। उन्होंने मेमसाब को ऊंचे स्वर में आर्डर दिया। बढ़िया सी चाय-शाये तो बनाओ।
उधर नेपथ्य में अप्रत्याशित गर्जना हुई। खुद बना लो। मुझे फुरसत नहीं है। बंदे का जी धकक् हो गया। यह तो अनहोनी है। लल्लू जी के घर की आग ने इधर भी आंच दिखाई है।  
बंदे ने हिम्मत की। लल्लू जी के लिए चाय बनाई। कुछ बिस्कुट उनके सामने प्रस्तुत किये। लल्लू जी बिस्कुट की ओर उंगली दिखाई। बंदा उनका आशय समझ गया। उनको आश्वस्त किया कि यह कुत्ते के खाने वाले नहीं हैं। लल्लू जी ने चाय में डुबो कर बेआवाज़ बिस्कुट खाए और सुड़कने के स्थान पर सिप करके चाय पी। इस दौरान चुप्पी रही। आख़िर दीवारों के भी कान होते हैं। 'चूं' करना भी महंगा साबित हो सकता है। फिर ज़माना भी सीसीटीवी का है। थोड़ी देर बाद लल्लू जी ने कलाई घड़ी देखी। दफ्तर का टाईम हो चला था। दबे पांव खिसक लिए। लेकिन लल्लू जी के चक्कर में बंदा पिस गया। उस दिन नाश्ता नहीं बना। भूखे ही दफ्तर जाना पड़ा।

हफ्ता गुज़र चुका है। अच्छी ख़बर यह है कि लल्लू जी का लंच और डिनर बहाल हो चुका है। लेकिन सुबह की चाय अभी तक बंदे के घर पर चल रही है। मेमसाब तो उन्हें देखते ही भड़क जाती हैं। चाय बंदा खुद ही बनाता है। लल्लू जी अभी तक चाय बेआवाज़ सिप करके पीते हैं। घंटा भर अख़बार चाटते हैं। इस बीच मिसेस लल्लू जी बर्तन, झाड़ू-पोंछा, डस्टिंग, स्नान वगैरह करके दो घंटे के लिए घंटियों वाली पूजा-पाठ और ध्यान के लिए बैठने चली जाती हैं। लल्लू जी को इसी मौके का इंतज़ार रहता है। दबे पांव घर में घुसते हैं। जल्दी से नहाते-धोते हैं। और फिर खुद ही नाश्ता-वाश्ता करके डाइनिंग टेबल पर एक परची रख कर दफ़्तर सरक लेते हैं। उस परची में लिखा होता है - हमसे भूल हो गई, हमका माफ़ी देई दो। 
लेकिन उनकी अर्जी मंज़ूर नहीं हुई है। चोट भी तो बहुत गहरी पहुंचायें हैं। घाव भरने में टाईम लगेगा। इधर बंदा बुरी संगत का फल भुगत रहा है। लल्लू जी को जल्दी माफ़ी मिले ताकि उसके घर का सियापा भी खत्म हो। इधर मेमसाब बार बार उल्हाने देती है - भुगतो ख़राब संगत का असर।
---
Published in Prabhat Khabar dated 16 May 2016
---
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
mob 7505663626



2 comments:

  1. विनोद जी, आपके जादातर लेख पढ़े है मैंने! आपके पोस्ट में खास बात यह होती है की वें बहुत ही रोचक और जानकारी से परिपूर्ण होते हैं । आपको हिंदी के एक सशक्त मंच के सृजन एवं कुशल संचालन हेतु बहुत-बहुत बधाई !!!
    इन्टरनेट पर अभी भी कई बेहतरीन रचनाएं अंग्रेज़ी भाषा में ही हैं, जिसके कारण आम हिंदीभाषी लोग इन महत्वपूर्ण आलेखों से जुड़े संदेशों या बातों जिनसे उनके जीवन में वास्तव में बदलाव हो सकता है, से वंचित रह जाते हैं| ऐसे हिन्दीभाषी यूजर्स के लिए ही हम आपके अमूल्य सहयोग की अपेक्षा रखते हैं । इस क्रम में हमारा विनम्र निवेदन है कि आप अपने लेख शब्दनगरी "www.shabdanagri.in" पर आपके नाम के साथ प्रकाशित करें । इस संबंध में आपसे विस्तार से बात करने हेतु आपसे निवेदन है की आप हमसे अपना कोई कांटैक्ट नंबर शेयर करें ताकि आपके रचना प्रकाशन से संबन्धित कुछ अन्य लाभ या जानकारी भी हम आपसे साझा कर सकें ।

    धन्यवाद,
    संजना पाण्डेय
    शब्दनगरी संगठन
    फोन : 0512-6795382

    ReplyDelete
  2. bahut khoob vir ji hamesha ki tarah you are great

    ReplyDelete