Thursday, December 8, 2016

काले का भी नाम होता है?

-वीर विनोद छाबड़ा
एक आदमी बहुत काला था। उसने काले रंग का सूट पहना। एक दोस्त ने कमेंट किया - यार तुम शुरू कहां से होते हो और ख़त्म कहां?

कई साल पहले यह बड़ा मशहूर लतीफा होता था। काले रंग वालों को चिड़ाने के लिए गढ़ा गया था। मुझे कतई पसंद नहीं था। आज फिर मेरी नज़रों के सामने से यह गुज़रा।
मजबूर हो कर लिख मैं लिख रहा हूं। बहुत डेंट कर रहा है दिल-ओ-दिमाग को।
दरअसल पिछले साल १७ अगस्त २०१४ को जन्माष्टमी के दिन मैंने एक पोस्ट में इसी काले रंग का ज़िक्र करते हुए एक पोस्ट डाली थी।
समाज में गोरे और काले का भेदभाव आज भी खूब होता है जबकि हमारे भगवान कृष्ण जी का रंग भी तो श्याम था। तभी तो दक्षिण भारत के एवीएम के बैनर की फिल्म 'मैं भी लड़की हूं' की श्याम रंग नायिका मीना कुमारी विलाप करती है - कृष्णा, ओ काले कृष्णा, यह कैसा बदला लिया, रंग दे के मुझे अपना
उसी दौर की एक और फिल्म 'गुमनाम' में काले रंग वालों का हौसला बढ़ाने वाला महमूद पर फिल्माया यह गाना भी बड़ा मशहूर हुआ था - हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं.… 
इस पोस्ट पर मेरे एक बहुत अच्छे मित्र ने कमेंट में लिखा था - मेरा रंग भी काला है। और मुझे अपने इस रंग की वज़ह से स्कूल के दिनों में बहुत बेइज़्ज़त होना पड़ा। मास्टर जी ने जब मुझे कालू कह कर पुकारा तो मेरी आँखों में आंसू आ गए।
तबसे मेरे दिल-दिमाग में था कि कुछ लिखूंगा ज़रूर।
काला होना कोई गुनाह नहीं। यह तो कुदरत का नियम है। कोई क्या कर सकता है? क्या किसी के हाथ में है? दुनिया में बहुत बड़े-बड़े विद्वान और दार्शनिक वैज्ञानिक कलाकार की स्किन काले रंग की है। बहुत लंबी सूची है इनकी।
काले रंग पर नाक-भौं सिकोड़ना। सबसे बड़ा कसूर हमारे समाज का है।
बेटी का रंग काला हुआ तो महिलाएं कमेंट करती है - कल्लो पैदा की है। शादी ब्याह में दिक्क्त होगी।
यह विडंबना ही है कि लड़के की अपेक्षा लड़की का रंग श्याम होने पर दुश्वारियां ज्यादा पेश होती हैं। अपनी एक सहकर्मी की व्यथा को मैं जानता हूं जिसका रंग स्याह होने के कारण विवाह के लिए दूल्हा तय करते समय उसके पिता को इसका एक्स्ट्रा चार्ज पड़ा था। हालांकि उसके पति का रंग भी उसी की भांति श्याम था।
मेरे पड़ोस में मुंशी पुलिया पर ठाकुर प्रोविजन स्टोर है। उसके मालिक को लोग कल्लू कहते हैं। मैंने एक दिन उससे उसका असली नाम पूछा तो हंस दिया।
उसकी हंसी में जो दर्द छुपा था उसका कारण मैं समझ गया कि किसने उसका यह नाम रखा।
फिर उसने कहा - मेरी दुकान में इसी नाम से बरकत आई है। इसलिए अब मैं अपना असली नाम बताना भी नहीं चाहता।
मुझे याद है कि स्कूल में एक मास्टरजी बहुत दुष्ट प्रकृति के थे। किसी को उसके रंग के आधार पर कालू कह देते तो एक आंख से दृष्टिहीन को - कनवा।

हमारे समय के समाज में लंगड़ा कर चलने वाले को 'लंगड़दीन' और छह उंगली वाले को 'छंगुल' कहने का रिवाज़ आम था।
और यह आज भी कायम है। छोटे-छोटे ढाबों, कहवाघरों कारखानों, मोटर गैराजों पर पर जाईये। ऐसे तमाम लोग मिलेंगे जिन्हें उनके शरीर के रंग या शारीरिक अक्षमता के आधार पर जाना जाता है।
व्यवसाय से जुड़े लोगों को भी उनके व्यवसाय के नाम से जाना जाता है। सब्जीवाला, मिस्त्री-मज़दूर आदि।
मेरे घर पर कुछ दिन पूर्व एक प्लम्बर काम कर रहा था। पूछने पर अपना नाम उसने पिंटू बताया।
वो ऊपर छत पर काम रहा था। मैंने उसे नीचे आवाज़ दी तो उसने कोई जवाब नहीं दिया।
मैं ऊपर गया। पूछा - जवाब क्यों नहीं दिया।
वो बोला - सब मुझे प्लंबर कहते हैं। यही नाम को सुनने की आदत है। और फिर नाम में रखा ही क्या है। कहलायेंगे प्लंबर ही न।
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