Wednesday, April 15, 2015

लौकी ले लो, लौकी!

-वीर विनोद छाबड़ा
वो मेरे अच्छे पड़ोसी हैं। उस दिन वो सुबह-सुबह मेरे घर आये।
इधर-उधर की और नेशनल, इंटरनेशनल पॉलिटिक्स, खेल वगैरह की बातें होती रहीं। किसी एक विषय पर वो ज्यादा देर टिके रह कर बात नही कर रहे थे। पल पल में स्टेशन बदल रहे थे।
मुझे लगा कोई खास बात हुई है। मुझसे शेयर करना चाह रहे हैं। लेकिन तनिक झिझक रहे है। उन्हें शायद संशय है कि प्रॉपर रिस्पांस मिलेगा या नहीं।
इधर आज उनकी मौजूदगी मुझे अच्छी भी नहीं लग रही थी। मैं चाहता था कि वो जल्दी चले जायें। दरअसल मेरा मूड ख़राब है। मेमसाब से झिक-झिक हो गयी थी। 
इससे पहले मैं उन्हें सीधे मूल मुद्दे पर आने के लिए कहता, वो अचानक बोले - अच्छा ये बताइये लौकी के बारे में आपके क्या विचार हैं?
मुझ पर बिजली सी गिरी। अभी कुछ पल पहले ये शख्स बहुत नेशनल और इंटरनेशनल अफेयर्स पर बात कर रहा था। वो एकाएक सब्जी-तरकारी जैसे लोकल मुद्दे पर क्योंकर उतर आया? इतने हाई-लेवल से एक पल में इतना लो-लेवल! बात समझ में नहीं आई। ये तो पहेली हो गई। 
मैंने सवाल किया - घर में किसी की तबियत ख़राब है क्या?
वो तनिक झेंप कर बोले - नहीं, नहीं। बिलकुल नही। बस ऐसे ही मन में ख्याल आया तो पूछ लिया।
मैंने एक गहरी सांस ली  - मैंने कई बार पढ़ा है इसके बारे में। नेट पर भी देखा है। ये बहुत ही गुणकारी है। हज़ारों साल से खायी जा रही हैं। तमाम ऋषि-मुनि भी यही खाते बताये जाते हैं। सब्जी, रायता, हलवा, पकौड़े, सब्ज़ी क्या-क्या नहीं बनता इसका। तमाम विधियां हैं बनाने की। लेकिन मेरे घर में दो कारणों से इसकी सिर्फ सब्ज़ी बनती है:-
) किसी की भी तबियत ख़राब हो और
) मेमसाब नाराज़ हों। ऐसे हालात में दिन में लौकी और रात में मूंग की दाल बनती है।
और आज मेरे घर में यही बनने जा रहा है। माफ़ करना मित्र आज मेमसाब का मूड ख़राब है। इसलिए चाय नहीं पिला पा रहा हूं।
ये सुनते ही मित्र उछल पड़ा - यार, मेरे घर में भी यही प्रॉब्लम है। इन फैक्ट, मैं तो ये पूछने आया था कि तेरे घर कुछ अच्छा बना हो तो एक कटोरी दे देना।
अचानक मुझे मित्र की मौजूदगी अच्छी लगने लगी। मैंने आत्मीयता से पूछा - यार ये बता, तबियत ख़राब होने पर लौकी और मूंग की दाल का बनना तो जायज़ लगता है। मगर नाराज़ होने पर ये लौकी और मूंग की दाल का बननाऔर फिर ये सारी पत्नियां नाराज़ होकर लौकी ही क्यों बनाती हैं? ये कैसी सज़ा है?
मित्र बोले - मुझे तो लगता है कि ये पत्नियां जान-बूझ कर नाराज़ होती हैं ताकि लौकी बनायें और पति की सेहत अच्छी रहे।
मैंने कहा - ठीक कहते हो। मुझे भी ऐसा ही लगता है। उस पर तुर्रा देखो। बाजार भरा पड़ा है लौकियों से। मुझे लगता है इन सब्ज़ी वालों को मालूम है कि एक तिहाई पत्नियां हर समय नाराज़ रहती हैं।
इतने में ठेलिया पर सब्ज़ी बेचने वाले की आवाज़ आती है - आलू, टमाटर, मैथी, तुरई, मिर्च ले लो.… लहसुन, प्याज़, हरी-ताज़ी लौकी ले लो.…
हम दोनों मित्र भाग कर बाहर आते हैं और सब्ज़ी वाले को डपटते हैं - लौकी-लौकी की गुहार इतनी जोर से लगानी ज़रूरी है क्या?
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- वीर विनोद छाबड़ा
15-04-2015

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