Sunday, April 5, 2015

आत्महत्या बनाम गोभी पराठा!

-वीर विनोद छाबड़ा
मित्रों आत्महत्या की कोई खबर सुनता हूं या अख़बार में उसके मुतल्लिक पढता हूं तो मुझे अपने साथ घटा एक वाक्या याद आता है।
बहुत पुरानी बात है।
बेहद अवसाद के क्षणों में ख्याल आया कि परिवार और दुनिया को मेरी ज़रुरत नहीं है। बोझ हूं मैं। मिथ्या है संसार और दुनियाबी चीज़ें। खुद को 'कम' करने का अटल फैसला लिया। मरने के कई विकल्पों पर दिमाग में गुथमगुथा हुई।
अंत में मन को समझाया कि ट्रेन के सामने कूदने से बढ़िया कोई विकल्प नहीं है। परलोक के लिए इंस्टेंट कूच है। 
परिवार और दुनिया के लिए नोट तैयार किया। कई प्रतियां बनायीं। लिफाफों में रखीं। घर में तीन-चार जगह लिफाफे रखे। एक जेब में भी। घर से चार-पांच  किलोमीटर दूर है बादशाहनगर रेलवे स्टेशन। भीड़ भी ज्यादा नहीं होती।
अगले दिन सुबह-सुबह स्कूटर उठाया। स्टेशन पहुंचा। पता चला कि दो घंटे देरी से चल रही है ट्रेन।
मन को समझाया -चलो ज़िंदगी के दो घंटे और सही। एक खाली बेंच पर बैठ कर मरणोपरांत दृश्य में खो गया.
देखा सब कुछ प्लान के मुताबिक चल रहा है। किससे क्या मिलना है और किस नासपीटे मित्र से उधारी वसूलनी है। अपने से संबंधित सामान किसको फ्री देना है और क्या बेचना है। इनमें स्कूटर भी था। लेकिन स्कूटर है कहां?…
अचानक झटके से नींद खुली। स्कूटर तो मैं साथ ही ले आया हूं। मेरे बाद लावारिस समझ इसे कोई उठा ले जायेगा! घडी देखी। अभी डेढ़ घंटा बाकी था ट्रेन आने में।
मन को समझाया - घर चलते हैं। स्कूटर छोड़ कर ऑटो  से लौट आऊंगा। मन मान गया। घर पहुंचा। स्कूटर खड़ी की ही थी। तभी सामने पत्नी प्रकट हुई - कहां चले गए थे, इतनी सुबह? चलो ब्रश कर लो। नाश्ता तैयार है।
मन ने कहा - कर लो। क्या बुराई है। परलोक पहुंच कर जाने कब खाने को मिले।

ब्रश करके बैठा ही था की सामने नाश्ता आ गया। गोभी के गर्मा-गर्म पराठे, घर में निकाले सफ़ेद से चुपड़े हुए और साथ में झक सफ़ेद दही। मनपसंद आइटम।
मन बोला - खा ले। परलोक में ये सब नहीं मिलेगा।
सच मज़ा आ गया खाने में। दिल को सकूं मिला। आख़िरी बार जो खा रहा था।
मेरी पत्नी खाना बहुत ही अच्छा बनाती है। हम दोनों में कितना भी मनमुटाव क्यों न हो, खाने से कभी नहीं रूठते हैं। अन्न का अपमान नहीं। इस खानदानी परंपरा का निर्वाह हम दोनों बड़ी तबियत से करते आये हैं।
तभी आकाशवाणी हुई - पगले, जब तक उम्मीद की आखरी किरण बाकी है, मरने की मत सोच। मर गया तो ये उम्मीद भी ख़त्म हो जाएगी।
मन बोला - बात तो पते की है। मन बेईमान हो गया था।
आज बीस बरस हो चुके हैं। पत्नी खाना अब भी अच्छा बना रही है, कमबख्त पहले से भी बेहतर।
और इधर मैं भी परिवार और दुनियावी माया-मोह में डूब चुका हूं, बहुत गहरे।
ऐसे में मरने की सोचने की  किसे फुरसत?
नोट - मित्रो, इस पुरानी याद को दिलचस्प बनाने के लिए थोड़ा फिक्शन भी डाला है।
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दिनांक ०५ अप्रैल २०१५ 

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