Thursday, April 21, 2016

कहो तो लिफ़ाफ़ा दे दें!

- वीर विनोद छाबड़ा
आज हमारे एक मित्र की बेटी की शादी है। सुबह से फोन आ रहे हैं। आप जा रहे हैं? कब जायेंगे?

लेकिन हम सबसे मना कर रहे हैं कि हम नहीं जा रहे हैं। दरअसल हमें मालूम है कि पूछने के पीछे मकसद क्या है? पहले भी ऐसा कई बार हो चुका है।
जब हमने हां कहा तो पूछा - अच्छा आप कितना दे रहे हो?
अरे भाई, हम जितना भी दें तुमसे क्या मतलब?
ठीक है। अच्छा एक काम करो - मेरी तरफ से ५०१ भेंट कर देना। 
ऐसे ही कोई २५१ और कोई १००१ के बात करेगा। कोई कहेगा जितना आप दे रहे उतना ही मेरी तरफ से।
हमें यह अच्छी तरह से मालूम है इसमें से एक-आध अपवाद को छोड़ कर कोई पैसा लौटाने वाला नहीं। सब रिटायर हैं। रोज़ रोज़ तो मिलना होता नहीं। जाने कब भेंट हो। महीने बाद या छह महीने बाद। तब तक भूल चुके होते हैं सब। याद दिलाओ तब भी याद नहीं अाता। कोई ६२ पार तो कोई ६५ पार। ७० पार वाले भी होते हैं। सबकी याददाश्त कमजोर हो चुकी है। रीसेंट मेमोरी खासतौर पर टाटा कर चुकी है लेकिन पास्ट मेमोरी तो बिलकुल जैसे कल की घटना है। सविस्तार बता देंगे। सेकंड तक याद हैं।
एक साहब ने यह तक कह दिया कि उसने तो मुझे न्यौता तक तो दिया नहीं। मैं क्यों भिजवाने लगा उसे लिफाफा। 
कुछ बंदे तो इसलिए फ़ोन करते हैं। भई हमें भी लेते चलना। रात ठीक से दिखता नहीं है। कईयों को कार-स्कूटर चलाते हुए चक्कर भी आते हैं। सब नौटंकी है। पेट्रोल बचाना है। गुस्सा आता है। हम क्या जवान हैं? पैंसठ प्लस के हैं और तुम तो अभी बासठ प्लस के। हम बहाना बना देते हैं। पार्किंग नहीं मिलती है। ऑटो से जाऊंगा।

दुनिया बड़ी चालाक है। लिफाफा भी हमसे तैयार करवा दिया और खुद भी वहां हाज़िर हो गए। हमसे लिफाफा लिया और भेंट कर दिया। पेमेंट नहीं किया हमें। लेकिन हमने तय कर लिया है कि हम भी चालकी करेंगे।
हम निकलने वाले ही हैं कि मोबाईल की घंटी बजी। मूड ख़राब हो गया। फिर कोई मुसीबत लगती है। देखा नंबर है, पर नाम नहीं। जाने कौन है सयाना? हमने हेलो बोला। 
उधर से बंदा एक सांस में बोल गया - अरे हम मिश्रा बोल रहे हैं, अपनी पत्नी के मोबाईल से। फोन इसलिए किया था कि हम घर से निकल चुके हैं। कहो तो तुम्हें भी पिक कर लें। न जाना हो, तो कहो तुम्हारी तरफ से लिफाफा दे दें?
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20-04-2016 mob 7505663626
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Lucknow - 226016 



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