Tuesday, April 26, 2016

पैसा फेंको तमाशा देखो।

- वीर विनोद छाबड़ा
बात १९९४ की है। एक दिन ज़बरदस्त तूफ़ान आया। बारिश भी हुई। बिजली तो गुल होनी ही थी। कोढ़ में खाज यह कि पोल से तार टूट गया।

नतीजा यह कि घंटो बाद बिजली आई तो हमारा घर रोशन नहीं हुआ। सौभाग्य से फोन डेड नहीं हुआ।
पत्नी ने फोन किया कि आते हुए एचएएल से बिजली लेते आना।
उन दिनों हमें एचएएल के सब-स्टेशन से बिजली सप्लाई होती थी। मैं दफ्तर से छुट्टी लेकर सीधा एचएएल पहुंचा। संयोग से जेई साहब मिल गए।
वो बोले कल जुड़ पाएगा तार। मैंने उन्हें प्रभावित करने के लिए बताया कि मैं हैडक्वार्टर में काम करता हूं। फलां पोस्ट पर हूं। फलां सेक्शन में हूं।
लेकिन जेई साहब पर कोई असर नहीं हुआ। उलटे अकड़ गए। मेरे पर ही बरस पड़े। मैं क्या करूं? जाइये चेयरमैन से कहिये खंबे पर चढ़ कर जायें। बिजली आ जाएगी।
मैंने इंसानियत का हवाला दिया। मगर वो जेई पट्ठा ही निकला। कतई न पिघला। स्कूटर स्टार्ट करके निकल लिया।
इन्वर्टर का ज़माना नहीं था। उमस और गर्मी से बेहाल कैंसर पीड़ित पिता, पैरलाइज़ माता, छोटे-छोटे दो बच्चे और रसोई में पसीने से तर-बतर लालटेन की रोशनी में रोटी सेंकती पत्नी। देखा नहीं गया।

मैं फिर एचएएल पहुंचा। सब-स्टेशन के पीछे स्टाफ क्वार्टर थे। एक लाईनमैन का किवाड़ खटखटाया। बिना अपना परिचय दिए उसे अपनी विपदा सुनाई। उसने कहा कोई और वक्त होता तो सौ से नीचे न लेता। लेकिन मैं भी इंसान हूं। मेरे भी माता-पिता हैं। इसलिए चाय-पानी के लिए पचास रूपए दे देना।

आधे घंटे में पोल से तार जुड़ गया। 
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