Tuesday, April 5, 2016

हमें कुछ सोचना होगा।

- वीर विनोद छाबड़ा
मकान है। दुकान है। शोहरत है। पैसा है। अच्छे दोस्त हैं। फिर भी सुसाइड। यक़ीन नहीं होता।
क्या कारण हो सकता है? कोई सुसाइड नोट भी नहीं है। रहस्य गहरा है। शक़ की सुईयां कइयों पर घूम रही हैं। लेकिन घूम-फिर कर दोस्त पर आ जाती हैं। हो सकता है वही है।

उसके साथ वो लिव-इन रिलेशन में थी। क्या दोस्त ने बेवफ़ाई की? दोनों के बीच कोई तीसरी आ गई क्या? या दोस्त ने पैसे का गोल-माल किया? या कैरियर से अपेक्षाएं धाराशाही हो गईं? इससे वो क्षुब्ध हो गई? अवसाद में चली गई?
कुछ और कारण हो सकते हैं। चैनल मीडिया को मौका मिला है। परतें उधेड़ रहा है। एंकर बड़े भावुक हो रहे हैं। आंखों से आंसू टप टप हो रहे हैं। कुछ रहस्यमई हो रहे हैं। कई भयानक तस्वीर खींच रहे हैं। बहुत भयानक लग रहे हैं। कुछ इस मुद्दे को बहुत खूंखार रंग दे रहे हैं। मौका है और माहौल भी। दस्तूर भी कोई चीज़ है। एंकर भाइयों और बहनों दिखा दो तुम। एंकर की भी वज़ूद है। किसी बड़े एक्टर से कम नहीं हैं वो। देखो देखो हमारे टैलेंट को। कहां चले गए सारे प्रोडयसर-डायरेक्टर है? कोई है इधर? सारा बॉलीवुड सो गया क्या?
एक से बढ़ कर एक जो रहस्य सामने लाये जा रहे हैं या आ रहे हैं। मालूम नहीं कितने सच्चे हैं या झूठे। लेकिन इतना तो तय है कि टीआरपी का खेल ज़बरदस्त चल रहा है।
सेलिब्रेटी होना भी गुनाह है। कोई साधारण परिवार से वो होती तो दो लाईन की खबर छप जाती। पुलिस आती। रस्सी से लटकी लाश उतारती। पंचनामा होता और लाश पोस्टमार्टम चली जाती। कोई बड़ा हंगामा न होता। जो किस्से-कहानियां होते गली-मोहल्ले में दो दिन चर्चा होती। मामला खत्म हो जाता। कोई फॉलोअप न होता। बहुत होता तो मां-बाप दहेज़ उत्पीड़न का केस बनाते। अगर लड़की कुंवारी होती तो अड़ोस-पड़ोस के किसी शोहदे के नाम पर हंगामा खड़े करते। प्रिंट मीडिया में सुर्खी न बने, इसलिए पुलिस तहरीर ले लेती।
माफ़ करना मित्रों विषयांतर हो गया। लोग पहले भी आज ही की तरह सेंसिटिव हुए करते थे। इम्तिहान में फेल हो गए। लोग क्या कहेंगे? बीवी से झगड़ा हो गया? पति और सास-ससुर ने मार-पीट कर घर से निकाल दिया। कुलक्षणी का आरोप लगा दिया। गुस्सा आ गया। लटक गए फंदे से या कूद गए ट्रेन के सामने या लगा दी छलांग पुल से कूद कर।

मगर यह लिव-इन रिलेशन वाले मामले इक्का-दुक्का हुआ करते थे। चोरी-छुपे और ढके हुए। आजकल तो खुल्लम-खुल्ला लिव-इन है। और आम चलन में है। मगर ब्रेक-अप भी जल्दी जल्दी हो रहे हैं। वायदा निभाने में खोट ज्यादा है।
आजकल बड़ी मात्रा में जो सुसाइड हो रही हैं उसके पीछे इसी ब्रेक-अप का होना तो नहीं है?
हम आज़ादी के विरोधी कतई नहीं हैं। लेकिन कुछ सोचना पड़ेगा। अच्छे और बुरे का ज्ञान देना होगा। नज़र रखनी होगी कि अपनी संस्कृति कहीं कलंकित तो नहीं हो रही है। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो कोई स्वयंभू संस्कृति के दकियानूसी रक्षक या खाप हमारी ज़िम्मेदारी अपने हाथ में लेकर बात का बतंगड़ बना डालेंगे।
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