Tuesday, January 17, 2017

सत्रोहन - बहुत मीठा है ये तो!

- वीर विनोद छाबड़ा
नवें-दसवें में मेरा एक सहपाठी था। बहुत कुशाग्र बुद्धि का था।
मुझे उसके साथ बैठने में बहुत अच्छा लगता था। मेरी बुद्धि थोड़ी मंद थी। मैथ में तो निल बट्टा ज़ीरो थे। बिना चांदे की सहायता के साठ डिग्री का कोण नहीं बना सकते थे। मेरी बहुत मदद करता था वो। नाम था उसका - सत्रोहन।
यों तो उसकी सब बातें तो बहुत पसंद थीं, लेकिन उसका नाम मुझे कुछ अजीब सा लगता था। यह सत्रोहन क्या होता है?
उसने बताया कि उसका असल नाम तो शत्रुघ्न है। लेकिन बिगड़ गया। ग्रामीण पृष्ठभूमि है। गांव वाले अपने हिसाब से चलते हैं। अक्सर हर नाम का उच्चारण बिगाड़ देने की कला में माहिर। लक्ष्मण को लक्षमणवा या लखनवा। गांव में हम लोग पिताजी को बाबू कहते थे। बाबा ने बाबू को खूब पढ़ाया-लिखाया। उनकी नौकरी शहर में लग गई। हम सब शहर आ गए। बाबा एडमिशन कराने स्कूल ले गए। नाम पूछा गया तो लिखा दिया - सत्रोहन।
मैंने पूछा - बदल क्यों नहीं देते? शत्रुघ्न कितना अच्छा नाम है। बहुत कम लोग रखते हैं। मैंने तो आज पहली बार सुना है।
वो बोला - हूं। बाबू ने स्कूल में अर्जी दे रखी है। प्रिंसिपल से बात हुई है। उन्होंने कहा है कि रिकार्ड्स में बदल दिया है। लेकिन ध्यान रहे कि हाई स्कूल का फॉर्म भरना तो उसमें शत्रुघ्न ही लिखना। और फिर अंत तक यही चलेगा।
और फिर कुछ दिनों बाद हाई स्कूल का फॉर्म भरने का समय आया। मास्टर साहब ने सबको समझाया कि देर भले हो जाए लेकिन कोई गलती नहीं होनी चाहिए। और वही हुआ जिसका डर था। सत्रोहन ने अपना नाम नहीं शत्रुघ्न नहीं लिखा। सत्रोहन ही रहने दिया। बहुत डांट पड़ी उसे। उसके पिता को बुलाया गया। प्रिंसिपल साहब ने जोड़-तोड़ करके नए फॉर्म की व्यवस्था करने की बात भी की। लेकिन सत्रोहन ने इंकार कर दिया। सत्रोहन ही रहूंगा। प्रिंसिपल ने कहा - रहने दीजिये। नाम में क्या रखा है।
बाद में मैंने पूछा - क्यों नहीं बदला नाम?

उसने कहा - मन नहीं हुआ। यह नाम मेरे बाबा का दिया हुआ है। बड़े प्यार से बुलाते थे, आजा मेरा सत्रोहन बेटा। पांच साल पहले गुज़र गए। उनका दिया नाम था, सत्रोहन। मुझे लगा, बहुत मिठास है इस नाम में। सच, बहुत प्यार करते थे मुझे। उनकी यही तो आखिरी याद है मेरे पास।
मैंने हैरानी से उसका चेहरा देखा और उसके अनदेखे बाबा की एक आकृति मन में बनाई और धीमे से कहा - सत्रोहन। हां, सच में यह तो बहुत मीठा है रे! 

हाई स्कूल में सत्रोहन फर्स्ट आया था। संयोग से उसके पिता का ट्रांसफर दूसरे शहर हो गया। हमने सुना सत्रोहन बहुत पढ़-लिख गया। विदेश चला गया। वहां वकालत करने लगा। उस मुल्क के लोगों ने उसे अपने दिल में बसा लिया। और फिर सत्रोहन वहीं बस गया। लेकिन मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि सत्रोहन को एक दिन उसके बाबा की याद अपने देश में खींच लाएगी। 
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