Sunday, January 22, 2017

कुत्तों वाली दालमोठ!

-वीर विनोद छाबड़ा
आज बरसों बाद जीतू के घर जाना हुआ। जफ्फियां डाल कर मिले। गुज़रे ज़माने की यादों में डूब कर खूब बिंदास बातें हुईं। अच्छाइयों पर कम और बेकूफ़ियों पर ज्यादा हंसे। उसकी पत्नी चाय-शाये ले कर आई।
जीतू को कुछ कमी दिखी। पत्नी से बोला - ओ सोंढ़िये, काजू वाली दालमोठ भी ले आ। अपणा यार है। फिर वो मेरी ओर देखते हुए बोला - देहरादून से खास मंगाई है। बड़ी महंगी है। हर ऐरे-गैरे को नहीं खिलाते। पर तू तो अपणा यार है, यार।
मैंने कहा - छोड़ यार। मगर उसने मेरी एक न सुनी।
थोड़ी देर बाद जीतू की पत्नी प्लेट में दालमोठ लेकर हाज़िर हुईं। मैंने देखा उनकी निगाहें दालमोठ में कुछ तलाश रही हैं। इससे पहले कि मैं कुछ समझता, उसने दालमोठ में बचा हुआ काजू का टुकड़ा ढूंढ निकाला और पलक झपकते ही मुहं में ठूंस लिया। फिर खींसे निपोरते हुए प्लेट सामने रख दी - आप किस्मतवाले हो जी। बस इत्ती बची है।
ये कह कर वो झट से खिसक गयीं।
मैंने कनखियों से देखा। मुट्ठी भर दालमोठ। काजू का नामो-निशान नही। मैं समझ गया। जीतू की पत्नी सारे काजू बीन कर कबकी खा चुकी है। जो बचा था मेरे सामने प्लेट रखने से पहले अभी अभी खा गयी।
दालमोठ की मात्रा और उसमें काजू न देखकर जीतू तनिक खिसियाया  - हें...हें...अपनी वाइफ बड़ी शौकीन है जी काजू की।
मैंने उसको सांत्वना दी - कोई नईं प्यारे। कहानी घर घर की। काजू का दुश्मन सारा ज़माना। और यार सच्ची बात तो ये है कि मैं दालमोठ खाता ही नहीं। चाहे उसमें दुनिया भर की नियामत ही क्यों न पड़ी हो। इसका भी एक किस्सा है।

जीतू थोड़ा सहज हुआ। थोड़ी उत्सुकता भी जगी - अच्छा। बता यार। क्या है किस्सा?
मैं कोई तीस बरस पीछे चला गया...

नई शादी हुई थी। ससुराल पड़ोस में थी। मेमसाब के चक्कर में अक्सर जाना होता था तो इज़्ज़त भी ऐरों-गैरों वाली मिलती थी।
उस दिन चाय के साथ घटिया किस्म की दालमोठ थी। मैं न चाहते हुए भी सासूजी के इसरार पर थोड़ा बहुत चुग रहा था। तभी उनका पामेरियन स्वीटी पैरों पर लोटने लगा। सासूजी ने प्लेट से थोड़ी दालमोठ ले कर स्वीटी के सामने डाल दी। मुझे मानो ४४० वोल्ट का करंट लगा गया हो। लगा कुत्ते और मुझमें सासूजी ने कोई फर्क ही नही रखा है। उनका बस चलता तो स्वीटी के सामने पूरी प्लेट ही रख देतीं। या फिर एक ही चम्मच से बारी बारी से मुझे और स्वीटी को दालमोठ खिलातीं। ये सोच-सोच कर मेरी आंखों के सामने घुप्प अंधेरा छाने लगा। मुझे याद नहीं कि मैं कब वहां से उठ लिया...

...तो मित्र, वो दिन है और आज का। मैंने दालमोठ खानी ही छोड़ दी। बेशकीमती काजू-पिस्ते वाली दालमोठ भी कुत्तों वाली दालमोठ दिखती है। दालमोठ का नाम सुनते ही मेरी आंखों के सामने जो नज़ारा तैरता है उसमें मैं खुद को और कुत्ते को एक ही प्लेट में दालमोठ खाते हुए पाता हूं।
मैंने देखा जीतू की आंखें नम हो आई हैं। जो हमने दास्तां अपनी सुनाई आप क्यूं रोये।
तभी मेरी मोबाइल की घंटी बजती है। मुझे ख्याल आता है। आज मेमसाब को शॉपिंग करनी है और उसे मुझ जैसा वफ़ादार और आज्ञाकारी फ्री ड्राईवर चाहिए। मैंने जीतू से कहा - चलते हैं यारा। छेती मिलेंगे।
जीतू बोला - हां यार। फिर मैं भी सुनाऊंगा अपनी दास्तां। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है।

मैंने कहा - श्योर। हमें ऐसे ही भुक्तभोगियों की तो तलाश रहती है।
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