Saturday, January 28, 2017

आख़िर तक बरक़रार रही मेरा नाम जोकर की नाकामी की टीस

-वीर विनोद छाबड़ा
इस धरती के सबसे बड़े कॉमेडियन चार्ली चैपलिन से बेहद प्रभावित थे राजकपूर। वो अक्सर एक ऐसी फिल्म का सपना देखते थे जिसमें उनकी नाकामियां भी थीं और कामयाबियों भी। साथ ही सुनहरा भविष्य भी। कुल मिला कर आत्मकथ्य। इसका नाम भी उन्होंने प्रचारित कर रखा था - मेरा नाम जोकर। वो कहते थे कि जोकर को इतना भव्य शो बनाऊंगा कि धरती पर यह पहला और आखिरी बड़ा शो होगा। बरसों से चर्चा में था उनका यह ड्रीम प्रोजेक्ट। आखिर शुरू हुआ शो का बनना। बहुत बड़ा बजट, विशाल कैनवास। उस ज़माने की सबसे महंगी फिल्म। ज़िंदगी भर की कमाई पूंजी लगा दी इसे वर्ल्ड क्लासिक बनाने में। बाजार से क़र्ज़ भी लिया था।
बहरहाल, जैसे-तैसे मेरा नाम जोकरपूरी हुई। पूरे छह साल लग गए इस ड्रीम को पूरा होने में। राजसाब ने चैन की सांस ली।
मगर जब प्रिव्यू देखा तो कुछ बैचेन हो गए। बार-बार देखा। कुछ बात बनती नहीं दिखी। मित्रों और हमदर्दों को दिखाई। अरे, क्लासिक है यह तो। बधाई राज साहब। सबने खूब सराहा। राजसाब को तसल्ली हुई। फिर ख्याल आया कि दुनिया के सामने पेश करने से पहले किसी वर्ल्ड क्लास हस्ती से इस पर मोहर लगवाई जाये। कई नाम उनके ज़हन में आये। आख़िरकार एक जगह निगाह रुकी - सत्यजीत रे। क्लासिक फिल्में बनाने में माहिर और वर्ल्ड सिनेमा में आईकॉन। उनकी फिल्म मेकिंग की स्टाईल और सोच के बेहद क़ायल थे राजसाब। मन ही मन उनसे प्रतिस्पर्धा की चाहत भी रखते थे।
Rajkapoor
 
राजसाब ने सत्यजीत रे को न्यौता भेजा। सत्यजीत बंबई तशरीफ़ लाये। रेड कारपेट वेल्कम हुआ। राजसाब के चेहरे की चमक बता रही थी कि वर्ल्ड क्लास फिल्में रे साहब सिर्फ आप टॉलीगंज वाले ही नहीं हम बालीबुड वाले भी बना सकते हैं। हम किसी चौधरी से कम नहीं हैं। 
सत्यजीत रे भी राजकपूर के मुरीद थे। उन्होंने उनकी बूट पालिश’, ‘आवारा’, ‘जागते रहोऔर जिस देश में गंगा बहती हैजैसी क्लासिक फिल्में देख रखी थीं।  मगर मेरा नाम जोकरइन सबसे कई कदम आगे वाला वर्ल्ड क्लासिक होने जा रहा था।
राजसाहब को पूरा इत्मीनान था कि रे साहब इस पर मोहर लगा देंगे।
एक स्पेशल शो हुआ। रे साहब ने बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ फिल्म देखी। इस बीच थिएटर में अंधेरे के बावज़ूद राजसाहब की नज़रें बराबर रे साहब के चेहरे पर उतरते-चढ़ते भावों को पढ़ने की कोशिश में लगी रहीं।
फिल्म खत्म हुई। सबकी नज़रें रे एक साथ साहब की ओर उठ गयीं। राजसाब का चेहरा गर्व से तमतमा रहा था। तो बताईये रे साहब कि कैसा लगा हमारा जोकर?
सत्यजीत रे साफगोई में यकीन रखते थे। वो बहुत गंभीर थे। बोले - राज, आपकी फिल्म तीन पार्ट में है। पहला पार्ट बेहद अच्छा है, वर्ल्ड  क्लास। इसे पहले रिलीज़ कर दें। दूसरा पार्ट बढ़िया इंटरटेनमेंट है। तीन महीने बाद रिलीज़ करो। सुपर हिट होगा। और तीसरा पार्ट दफ़न कर दो। 

सब हैरान-परेशान। राजसाब पर तो बिजली सी गिरी। दिल तेजी से धड़कने लगा। सत्यजीत रे यह क्या फ़रमा रहे हैं? राजसाहब ने जैसे-तैसे अपने जज़्बात कंट्रोल किये। रे साहब से वादा किया कि उनके सुझावों पर ज़रूर गौर किया जाएगा।
लेकिन सच यह है कि सत्यजीत रे के सुझाव पर रत्ती भर भी गौर नहीं किया गया। मित्रों और हमदर्दों ने ज़ोर दिया और मार्किट का प्रेशर भी बहुत था। ब्याज बढ़ता ही जा रहा था। उन्होंने जस की तस फ़िल्म रिलीज़ कर दी।
लेकिन नतीजा वही हुआ जिसकी भयानक तस्वीर का संकेत सत्यजीत रे दे चुके थे। फ़िल्म औंधे मुंह जा गिरी बाक्स आफिस पर। सपना टूट गया। उम्मीद के विपरीत प्रेस से मिश्रित प्रतिक्रियाएं मिलीं। कुछ ने बहुत अच्छा बातया तो कुछ ने औसत करार दिया। काश! सत्यजीत रे की बात मान ली होती।

राजसाहब को जोकर की नाकामी का ज़बरदस्त झटका लगा। नाकामी से उबरने के लिए उन्हें युवा लवस्टोरी बाबीबनानी पड़ी। मगर जोकर की नाकामी से टूटे दिल से उठती टीस ज़िंदगी के आख़िर बरकरार रही। 
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Published in Navodaya Times dated 28 Jan 2017
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