Thursday, July 2, 2015

गु गु गु गुस्सा!

-वीर विनोद छाबड़ा 
क्रोध। बहुत ख़राब बात है। सेहत पर ख़राब असर पड़ता है। शुरू से ही माता-पिता और गुरूजन शिक्षा देते आये हैं। मानता भी हूं। लेकिन बहुत कोशिश के बावजूद क्रोध पर आज तक पूर्णतया काबू नहीं पा सका।
हमें हद से ज्यादा झूठ बोलने वालों पर, कामचोरों और कुतर्कियों पर बहुत क्रोध आया करता है। चाहे वो पुरूष हो या महिला।

हमारे एक अधिकारी ने एक बार हमें चेतावनी भी दी थी। बिना तथ्यों की पड़ताल किये इस चेतावनी देने पर भी क्रोध आया। लेकिन खून का घूंट पी कर रह गया। सही बात करने पर एक बहुत बड़े अधिकारी ने हमें कह दिया - तुम्हारा मेंटल ब्लॉक हो गया है। ऐसे बेहद कड़वे घूंट पीने की आदत पड़ चुकी थी। कई बार अकेले में आंसू भी बहाये। कोई बहुत अपना मिल गया तो कंधे पर सर रख दिया।
हमारे एक बहुत बड़े अधिकारी फरसा के नाम से मशहूर होते थे। जिसे भी बुलाते फायरिंग शुरू कर देते। सामने वाले को अर्दब में लेने की यह उनकी स्टाइल थी। बड़ा आनंद आता था उन्हें, सामने वाले को थर-थर कांपता देख कर। दूसरे की बात सुनते ही नहीं थे।
हम उनके सामने बहुत छोटे अधिकारी थे। उनके और हमारे बीच तीन अधिकारी और भी थे। एक दिन एक प्रकरण में हमें भी सम्मन आ गया। उस प्रकरण में हमारा पक्ष मजबूत था। हम उनके कमरे में घुसे। उन्होंने स्वभाव के अनुसार फायरिंग शुरू कर दी - मैं तुम्हें ससपेंड कर दूंगा।
जवाब में हमने भी फायर किया - सर, आपने मेरा नोट पढ़ा होता तो ऐसी बात नहीं करते। आप दूसरे का नोट पढ़ रहे हैं।
हमारे एक अधिकारी ने हमारा हाथ दबाया ताकि हम चुप रहें। लेकिन हमने अपनी फायरिंग जारी रखी  - मैं ग़लत नहीं हूं तो डरूं क्यों। फांसी तो चढ़ा नहीं सकते।
फरसा महोदय ये सुन एकदम से ठंडे पड़ गए -ठीक है। तुम लोग जाओ। मैं फ़ाइल पढ़ लूंगा। 
बाद में हमें दुःख हुआ। हमने सॉरी बोल दिया। हम उम्मीद कर रहे थे कि चेतावनी स्वरूप 'प्रेम पत्र' निर्गत हो ही जायेगा। लेकिन शुक्र है कि नहीं हुआ।
उस घटना के बाद से उन फरसा अधिकारी और मेरे बहुत अच्छे संबंध हो गए। वो अक्सर किसी न किसी केस में बुलाया करते। अपनी फीलिंग भी शेयर करते थे और चाय भी पिलाते। 
एक दिन मुझे उन्होंने अमेरिका के प्रेसीडेंट अब्राहम लिंकन का किस्सा सुनाया।
लिंकन के रक्षा मंत्री बड़े क्रोधी स्वभाव के हुआ करते थे। एक दिन उनके किसी सहायक ने बहुत बड़ी गलती कर दी। गुस्से से आग बबूला होते हुए वो प्रेसीडेंट के पास गए और सारा किस्सा सुना दिया। गालियों की बौछार रुक नहीं रही थी।
प्रेसीडेंट महोदय ने कहा - जो आप कह रहे हैं उसे चिट्ठी में लिख दें। साथ में उस सहायक का स्पष्टीकरण भी मांगे। रक्षा मंत्री ने चुनींदा कड़वे शब्दों का प्रयोग करते हुए उस सहायक के नाम चिट्टी बना दी। लेकिन निर्गत करने से पूर्व प्रेसीडेंट महोदय से कहा - सर एक बार आप भी इसे देख लें तो अच्छा होगा।

प्रेसीडेंट ने चिट्ठी पढ़े बिना कहा - ठीक है। अब इसे फाड़ कर रद्दी की टोकरी में डाल दें। उम्मीद है आपके मन की भड़ास निकल गई होगी। क्रोध में कोई फैसला लेना ठीक नहीं।
रक्षा मंत्री सहमत हुए कि वास्तव में क्रोध में निर्णय लेना उचित नहीं। वो लज्जित हो कर चले गए।
फरसा महोदय ने आगे बताया - आजकल मैं मनोचिकित्सक से गुस्से पर काबू पाने का ईलाज करा रहा हूं। जिस पर गुस्सा आता है उसका नाम कागज़ लिखता हूं और फाड़ कर फ़ेंक देता हूं। फिर भी चित्त शांत नहीं होता तो कागज़ पर फिर उसका नाम लिखता हूं और उस पर दस बार जूता मारता हूं। महीना भर हो गया है। लेकिन क्या करूं गुस्सा है कि मानता नहीं।
यह कथा सुन हम हैरानी से उनका मुंह देखने लगे। इससे पहले कि उन्हें क्रोध आता, हम जल्दी से खसक लिए।
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