Tuesday, December 1, 2015

फ़िल्म देखो, टेंशन भगाओ।

- वीर विनोद छाबड़ा 
पहला दिन, पहला शो। यह भी एक जुनून था हमें। उस दिन शहर के तकरीबन सारे पिक्चरबाज़ एक जगह जमा होते थे। हमारी गिनती भी इसे जमात में होने लगी। लेकिन कुछ दिनों बाद हम इस जमात से बाहर हो गए।
भीड़-भाड़ और धक्कम-धक्का में फ़िल्म देखना हमारे बस में नहीं था। कभी चश्मा टूट जाता तो कभी कपड़े फट जाते। हां, शुरुआत के तीन-चार में फ़िल्म देखना धर्म होता था।
एक दिन में दो-तीन फ़िल्में देखना भी एक उपलब्धि मानी जाती थी। हमने भी एक-दो बार एक दिन में दो फ़िल्में लगातार देखीं। एक बार का तो हमें याद है। नून शो में पृथ्वीराज कपूर-दारा सिंह की 'लुटेरा' निशात में फर्स्ट डे फर्स्ट शो और इवनिंग शो में राजकुमार-मीना कुमारी-धर्मेंद्र की 'काजल' बसंत में फर्स्ट डे। सरदर्द हो गया।
एक बार तो गज़ब ही हो गया। हमने नून शो और फिर मैटनी लगातार दो फ़िल्में देखी। घर आये। थोड़ा हैंगओवर था। बिस्तर पर लेट गए। पिताजी के एक मित्र आ गए। प्रोग्राम बना कि राजिंदर सिंह बेदी की दस्तक देखी जाये। उसमें हमें भी शामिल कर लिया गया। क्रेज़ इतना था कि हम हैंगओवर भूल गए। इस तरह हमने एक दिन में तीन फ़िल्में देख लीं। लेकिन भुगत गए। सुबह तक सर पकड़े रहे। न लेट पाये और न ही बैठ पाये। इसके बाद ऐसी हरकत नहीं की। एक दिन में एक शो पर सीमित कर लिया। 
यह भी उसी दौर की बात है कि २८ दिन वाली फरवरी में हमने ३२ फ़िल्में देखने का अपना एक रिकॉर्ड क़ायम किया। लेकिन हम तो एक छोटे से प्यादे किस्म के पिक्चरबाज़ थे। एक से बढ़ कर एक धुरंधर हुआ करते थे जिनकी ज़िंदगी ही सिनेमाहाल और पिक्चर हुआ करती थी। उठते-बैठते खाते-पीते और सोते-जागते पिक्चर और सिर्फ़ पिक्चर।
हमारे क्रेज़ की हद तो यह थी कि अगले दिन एम.ए. का  वायवा टेस्ट था। मिश्राजी आ गए। 'एक मुट्ठी आसमान' की बड़ी चर्चा थी। नाईट शो फ़िल्म देखने निकल लिये। दिमाग फ्रेश हो गया। उसके बाद रात भर पढ़ते और औंघाते रहे, चाय पर चाय के साथ। अगले दिन टेस्ट दिया। १०० में ६२ नंबर मिले। फल गया फ़िल्म देखना।
  
नौकरी के लिये लिखित परीक्षा के ठीक एक दिन पहले हमने नाईट शो देखा था। हमें तो फिल्म का नाम तक याद है - परवीन बाबी-क्रिकेटर सलीम दुर्रानी अभिनित चरित्र थी। अगले दिन मज़ाक मज़ाक में हमने टेस्ट दिया। बीच बीच में झपकियां भी आती रहीं। संयोग से उत्तीर्ण हो गए। ३६ साल ०८ महीने नौकरी के बाद उ.प्र.राज्य विद्युत उत्पादन निगम से उप-महाप्रबंधक (मानव संसाधन) के पद से रिटायर हुए। एक बार फिर अहम मुकाम पर हमारा नाईट शो फ़िल्म देखना फलदायी रहा।
यों उस दौर में हमें जब कभी परेशान हुए तो हम फ़िल्म देखने चले गए और टेंशन सिनेमाहाल में छोड़ कर वापस आ गए। 
आजकल टेंशन खाली करने का फेस बुक भी एक ज़रिया है।
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