Monday, December 14, 2015

विभाग को उल्लूओं की ज़रूरत है।

-वीर विनोद छाबड़ा
लीला बाबू रिटायर हो रहे हैं। मातहत पुलकित हैं कि एक निठल्ले और तुगलकी अफसर से पिंड छूट रहा है। विदाई की इस सुखद बेला को यादगार बनाने के लिये वृहद राजसी प्रबंध किये हैं। एक-दूसरे की टांग-खिंचाई में वक़्त बरबाद करने में चतुर तमाम अधिकारी-कर्मचारी विभाग के इतिहास में पहली मर्तबा एकजुट हैं। बिना काम किये शान से अड़तीस साल काटने वाले इस अद्भुत पुरूष की अंतिम झलक हेतु सेल्फियां की होड़ है।

रस्म के मुताबिक तमाम वक्ताओं ने लीला बाबू को हरदिल अज़ीज़ बताया। उनकी शान में भांति-भांति के कसीदे पढ़े गये। एक ने उन्हें क़ायदे-कानून का सर्वकालीन ज्ञाता बताया। दूसरा एक क़दम आगे बढ़ कर इनसाईक्लोपीडिया बता गया। तीसरे की वो इंसानियत की जिंदा मिसाल लगे। चौथे की दृष्टि में फाईलों पर अंकित उनकी टिप्पणियों में प्रयुक्त शब्द आने वाली नस्लों के लिये नज़़ीर होंगे। पांचवे का गला भर आया - एक विकराल शून्य उत्पन्न हुआ है। इसे भरने के लिये स्वंय लीला बाबू को ही पुनर्जन्म लेना पड़ेगा।
ये फर्ज़ीनामा सुन कर सबका हंसी के मारे बुरा हाल है। कईयों के पेट दुखने लगे।
समारोह के अंत में आशीष वचन हेतु संबोधन में विभाग के मुखिया जी बड़े भावुक हो गए - हमें तो लीला बाबू के बारे में ऐसी-वैसी रिपोर्ट मिली थी। लेकिन आप लोगों का लीला बाबू के प्रति अपार स्नेह देखकर और उनके गुणों की गाथा सुनकर हम हतप्रद हूं साथ में गदगद भी। अतः उनकी अमूल्य सेवाओं का लाभ उठाने के दृष्टिगत सरकार उन्हें एक साल का सेवाविस्तार देने का फैसला करती है।
ऐसी घोषणाओं पर आमतौर पर अति प्रसन्न होकर गगनभेदी करतल ध्वनि होती है। परंत यहां हरेक को सांप सूंघ गया। चहुं ओर सन्नाटा खिंच गया। गहरी नीरवता व्याप्त हो गयी। कुछेक पछाड़ खाकर मूर्छित होते-होते बचे। बंदे के बगल में खड़े निर्बल हृदय कर्मठ बाबू तो लकवाग्रस्त हो जाते यदि उन्होंने ससमय जानबचाऊ गोली जीभ के नीचे न रख ली होती।
निकम्मे व चापलूस अफसर से छुट्टी पाने की खुशी में मनाया जा रहा जश्न मातम में तब्दील हो जाता यदि मौके की नज़ाकत को भांपकर समझदार आयोजक ने स्थिति न संभाली होती-  अब यह जश्न लीला जी की विदाई का नहीं है अपितु उनके सेवा विस्तार की खुशी में है। इसका सारा खर्चा लीला बाबू वहन करेंगे।

अब मूर्छित होने की बारी लीला बाबू की थी। खर्चा उठाने की उनसे कोई सहमति नहीं ली गयी थी। परंतु चमड़ी जाये, दमड़ी बची रहे के सिद्धांत के अनुयायी लीला बाबू के सामने दूसरा विकल्प नहीं था।
बाद में मुखिया जी को वास्तविकता से जब अवगत कराया गया तो वो बोले - आप लोग नहीं जानते हैं कि लीला बाबू क्या किये हैं? वो नेता जी के दूर-दराज़ के बड़के साले का जुगाड़ ले आये हैं। विभाग को भी ऐसे ही उल्लूओं की ज़रूरत है। आजकल फैसले लेने वाला फंसता है, फैसले नहीं लेने वाला नहीं।
सूबे को रोशन करने वाले विभाग के मुखिया की इस नीयत को जानकर रिटायरमेंट की दहलीज़ पर खड़े तमाम निठल्ले बाबू-अफसर खुश हैं और कर्मठ बाबू-अफ़सर किंकर्तव्यविमूढ़ व हताश।
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प्रभात ख़बर दिनांक १४ दिसंबर २०१५ में प्रकाशित।
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