Tuesday, December 22, 2015

ये त्रिवेदाईन तो मिसराईन निकलीं।

- वीर विनोद छाबड़ा
ब्राह्मण लोग मीठा खाने के ही नहीं, खिलाने के भी शौक़ीन होते हैं। कम से कम हमारा तो यही अनुभव है।
ब्राह्मणों में हम ज्यादातर मिश्रा लोगों से घिरे रहे हैं। उनकी मिसराईनें न सिर्फ़ बहुत स्वादिष्ट व्यंजन बनाती ही हैं, बल्कि मात्रा भी भरपूर रखती हैं, ताकि हर कोई पूर्णतया तृप्त होये और जय जयकार करता हुआ बाहर निकले।

हमारे घर के ठीक पीछे कमल त्रिवेदी उर्फ़ पंडित जी का घर है। हमारे बहुत की घनिष्ट मित्र रहे। अफ़सोस कि वो अब इस दुनिया में नहीं हैं। जब तक वो जीवित रहे, हमारा उनके घर तक़रीबन रोज़ाना जाना रहा। उनकी त्रिवेदाईन बहुत ही लज़ीज़ व्यंजन बनाती थीं। उन्होंने जब भी कुछ नया बनाया, सबसे पहला एक्सपेरीमेंट हमारे पर ही किया। और हमने भी उन्हें कभी फेल नहीं किया। गुलाब जामुन तो अक्सर बनते ही थे, जलेबी-इमरती तक घर में परफेक्टली बनाये। इसके अलावा डोसा-इडली, समोसा आदि भी आये दिन बना करता था। मेहमान भी उनके यहां खूब आया करते थे। इसलिए कुछ न कुछ बनता ही रहता था और हम भी इसी बहाने गंगा में डुबकी लगा लेते।
दरअसल हमारे पंडित जी हर वक़्त कुछ न कुछ स्पेशल खाने-पीने के शौक़ीन रहे। इसलिए उनकी त्रिवेदाईन का ज्यादा वक़्त किचेन में गुज़रता था। नाना प्रकार के व्यंजन बनाने की दक्षता वो अपने मायके से ही लेकर आयीं थीं। हमें इतना मालूम था कि उनका मायका जिला कन्नौज के तिर्वा में था। तिर्वा से आये लल्लू के पेड़े और कन्नौज के गट्टे हमें कई बार खाने को मिले। त्रिवेदन जी सास के प्यार से पहले ही दिन से महरूम रहीं।

एक दिन हम पंडित जी के घर गए। वहां एक सज्जन पहले से मौजूद थे। पंडित जी ने हमारा परिचय कराया - इनसे मिलिए, आप हैं अशोक मिश्रा, हमारे साले साहब।
यह सुनते ही हम ख़ुशी से उछल पड़े - अच्छा तो भाभी दरअसल मूलतः मिसराईन हैं, तभी मैं कहूं व्यंजन इतने स्वादिष्ट क्यों बनते हैं?
हमारे यह कहते ही किचेन से पतीला गिरने की आवाज़ के साथ हंसने की भी बड़ी तेज आवाज़ आई। पंडित जी के बिना मूंछ वाले साले साहब ने मूंछों पर ताव दिया और पंडित जी ज़ोर से हंस दिए - अरे भाई, किचेन में हम त्रिवेदी भी साथ देते हैं।
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