Monday, December 21, 2015

जिन्हें नाज़ था हिंद पे, वो कहां हैं?

- वीर विनोद छाबड़ा
कुछ लोग होते हैं, लकीर के फ़क़ीर। जैसे प्रेमबाबू, हमेशा अतीत में खोये और वर्तमान को गरियाते हुए।
कल ही की तो बात है। बंदे को देखते ही भड़क उठे - क्या ज़माना आ गया है? तेरवीं भी भ्रष्ट हो गयी। सोचा था ज़मीन पर बैठ कर पत्तल में कद्दू-पूड़ी मिलेगी। इसी बहाने भारतीय संस्कृति के दर्शन होंगे। मगर अब यहां भी सब उल्टा-पुल्टा हो गया।
नासपीटों ने गिद्ध भोज खिलाया। कहते हैं, यह बुफ़े है। अंग्रेज़ों की औलाद कहीं के। मरने वाला क ख ग वाला मास्टर था। बेशर्मी की हद कि पूछ रहे थे, वेज या नान-वेज। बेटा खींसें निपोर रहा था, बाबूजी बिरयानी खाते हुए गए। कह गए थे कि मुंह में गंगाजल की जगह दो बूंद मदिरा टपका देना और मुर्गा सबको ज़रूर खिलाना। तुर्रा यह कि सब नान-वेज भकोस रहे थे। हमारा तो खून खौल गया। सीता होते तो समा जाते ज़मीं में। मिनरल वाटर पीकर चले आये।
बंदा समझाने की कोशिश करता है कि तेरवीं में बुफ़े अब आम है।
मगर प्रेमबाबू बेअसर, वही 'एक हमारा ज़माना' की टेर। बिछौना और पीतल के बर्तनों में दाल-चावल। घड़े का ठंडा पानी और आत्मा तृप्त। अब डाईनिंग टेबुल है। अनब्रेकेबुल सिरेमिक क्राकरी में पिज़्ज़ा, नूडल-चाऊमीन, मंचूरियन और सैंडविच खा रहे हैं। चीन, जापान, कोरिया, इटली किसी को न छोड़ा। अंगीठी, चूल्हा, किरोसिन स्टोव इतिहास बन गए। ये मोबाईल, डिजिटल कैमरे, टीवी, कम्प्यूटर वगैरह देखिये। अपना तो कुछ भी तो नही दिखता यहां। कभी विदेशी आईटम अमीरों की बपौती थे। अमीर भी खुश और औकात नहीं होने के कारण हम ग़रीब भी खुश। अब घर-घर में फारेन का माल। मेड इन फारेन की मिट्टी पलीद कर दी। हमारे वक़्त में सिर्फ़ लाट साहबों और अमीरों की औलादें ही फॉरन जाती थीं। अब एैरा-गैरा, नत्थू-खैरा जा रहा है। मानों बाज़ार शापिंग करने जा रहे हैं। मज़ाक हो गया है विलायत जाना।

बंदा प्रेमबाबू को समझाता है कि आज जो मार्किट लग्जरी आईटमों से पटी पड़ी है उसमें पूंजी विदेशी है मगर मेहनत भारतियों की है। शीर्ष पर हम भारतीय बैठे हैं। सारी दुनिया में भारतीय डाक्टरों की धूम है। हजारों-लाखों विदेशी ईलाज वास्ते भारत आते हैं। यहां उन्हें सस्ता भी पड़ता है। पहले भारत में इने-गिने अमीर थे। अब लाखों हैं। अनेक तो दुनिया के सौ शीर्ष अमीरों में शामिल हैं। कल हमारा सैटेलाईट चांद पर था, अब मंगल तक पहुंच गया। बुलेट ट्रेन भी चली ही समझो। सेंसेक्स का ग्राफ़ आसमान छू रहा है। हमारी क्रय शक्ति बढ़ी है। जो चाहो खरीदो। बैंक दिल खोल कर उधार देता है। प्रेमबाबू आप कहां हैं? जागो! जागो!!
मगर प्रेमबाबू जल्दी हार मानने वालों में से नहीं थे। अगले ही दिन अलसुबह आ धमके। ढेर आंकड़ों और ब्यौरों का पुलिंदा लेकर, जिसमें कुपोषण, गुरबत, बीमारी और उधार न चुका सकने के कारण आत्महत्या करने वाले लाखों लोगों की दास्तां बयां थी। भ्रष्टाचार और अपराधों का भी ब्यौरा था। कमर तोड़ महंगाई का ग्राफ़ भी ऊंचा था। ये सब दिखाते हुये यकायक प्रेमबाबू ने भावुक होकर पूछा- जिन्हें नाज़ था हिंद पे, वो कहां हैं?
बंदे के पास इधर-उधर बगलें झांकने के सिवा कोई जवाब नहीं था।
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Published in Prabhat Khabar dated 21 Dec 2015
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