Sunday, June 19, 2016

एनएससी बनाम बड़े बाबू

- वीर विनोद छाबड़ा
पिछले दो दिन से पोस्ट ऑफिस जा रहा था। तेज उमस भरी धूप और ऊपर से आठ किलोमीटर का सफ़र। पसीने से तर-बतर हो गए। मकसद था, एक एनएससी का भुगतान प्राप्त करना। जब नौकरी में थे तब खरीदी थी। ऑफिस के पीछे ही पोस्ट ऑफिस था।

मगर बड़े बाबू मौजूद नहीं मिलते थे। बताया गया कि किसी ज़रूरी काम से निकलें हैं। थोड़ी देर इंतज़ार करें। हम घंटा भर इधर-उधर घूम-घाम कर लौटे। लेकिन बाबू जी नदारद। छोटे बाबू ने बताया गया कि मालूम नहीं कब आएंगे। छोटा सा पोस्ट ऑफिस, कुल जमा तीन बंदों का स्टाफ। पैसे के लेन-देन के हिसाब का अधिकार बड़े बाबू को ही है। हमें बहुत गुस्सा आया। कैसा टाईम आ गया है?किसी को अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास तक नहीं है। 
कल हम फिर पहुंचे। तीसरा दिन था। दूर से ही खिड़की पर बैठे दिख गए बड़े बाबू। आज खरी-खोटी सुना कर ही जाएंगे। आने-जाने पर खर्च हुए पेट्रोल, ऊर्जा और टाईम का हिसाब भी मांगेगे।
बड़े बाबू किसी का हिसाब निपटा रहे थे। हम अपनी बारी के इंतज़ार के साथ-साथ बड़े बाबू की फेस रीडिंग भी करने लगे। हमें लगा बंदा कुछ उदास है। चेहरे पर चिंता की लकीरें हैं, जो कभी आती हैं और कभी जाती हैं। माथे पर पसीने की मोटी बूंदे भी हैं। गौर किया तो पाया कि उंगलियों की स्पीड भी कम है। लेखनी रफ़्तार पकड़ती है और फिर यकायक रुक जाती है। बड़े बाबू का जिस्म तो यहां है मगर चित्त कहीं और। फिर उन्होंने मोहर उठाई और ठप्पा लगाया। लेकिन ठप्पा लगाने में जिस ज़ोर की ज़रूरत होती है वो गायब था। दूसरे बाबू को ईशारा किया। उसने ज़ोर का ठप्पा लगा कर दोबारा मोहर लगाई। साफ था कि उनके साथ सब कुछ नॉर्मल नहीं था।
अब हमारा नंबर आया। हमारा गुस्सा अब तक काफ़ूर हो चुका था। हमने एनएससी सर्टिफिकेट पेश किया। न जाने क्यों अनायास ही हम पूछ बैठे - भैया, लगता है कुछ परेशानी है आपको।

बड़े बाबू का हाथ रुक गया। वो हमें देखने लगे। उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि वो सोच रहे हैं कि यह अंजान आदमी कौन है? इसे मेरी फ़िक्र क्यों है? उन्होंने हमें जवाब नहीं दिया। सर झुका कर हमारी एनएससी देखने लगे।
हमने फिर पूछा - अगर आपको कोई दिक्कत हो रही है, तो हम दो दिन बाद आ जायें?
बड़े बाबू ने गर्दन हमारी ओर घुमाई। उनको हममें एक दर्द बांटने वाला हमदर्द मिल गया था। बहुत कातर स्वर में बोले - क्या बताऊं आपको? मेरी बेटी की तबीयत खराब है। कल उसका ट्रॉमा सेंटर में पेट का ऑपरेशन हुआ है। अभी तक खतरे से बाहर नहीं है। पूरा घर अस्पताल में है और मैं यहां। दिल-दिमाग वहीं हैं। ड्यूटी भी तो करनी है।
हमें बड़ी ग्लानि हुई कि हम एक दुःखी पिता को नाहक ही कोस रहे थे। हम भी तो ऐसी परिस्थितियों से गुज़र चुके थे। हमने उनको ढांढ़स बंधाया - ईश्वर सब ठीक करेगा। मेरा काम छोड़ें। अब कुछ दिन बात आऊंगा।

लेकिन उन्होंने कहा - आपके पीछे भी लोग खड़े हैं। उनका काम भी होना है।
बड़े बाबू ने थोड़ी देर में मेरा काम निपटा दिया। साथ साथ बताते भी रहे कि कितने लंबे समय से कहां कहां ईलाज के लिए भटके हैं।
हमारा काम हो गया। दस्तक कराए और और पेमेंट कर दिया। हम पेमेंट लेकर दो कदम चले ही थे कि अचानक हम मुड़े - अगर आपको कुछ धन की आवश्यकता हो तो इसमें से ले सकते हैं।
बड़े बाबू द्रवित हो गए - नहीं नहीं, इस मामले में परमात्मा की कृपा है अभी तक। बस, आप प्रार्थना करें कि मेरी बेटी जल्दी ठीक हो जाए।
हमने कहा, ज़रूर। हमने देखा, बड़े बाबू की आंख में आंसू थे।
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